भगवान क्या हमारा सुख नहीं चाहते, जो उन्होंने सतयुग रोककर कलयुग ला दिया? एक विमर्श...
भगवान को हम रचयिता, ब्रह्मा, क्रीएटर के रूप में अपने हिसाब से, अपनी श्रद्धा से रीनेम कर सकते हैं. या, साइंसदानों के लिए सबसे आसान और पचाने योग्य शब्द है. सवाल ये है कि हम इंसान, जब भी सुख शांति की बात करते हैं, तब सिर्फ खुद को केंद्र में रखकर सोचते हैं. क्या हम इंसानों का सुख शांति से रहना ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सुख से रहना है?
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भगवान जब चाहते हैं कि हमेशा सुख शांति बनी रहे तो उन्होंने हमेशा सतयुग ही क्यों न चलने दिया? अलग-अलग युगों का कान्सेप्ट क्यों रखा? ये एक अतिगम्भीर सवाल मेरे एक मित्र ने पूछा. इसके जवाब में मैंने उनसे पूछा कि आपको किसने बताया कि भगवान चाहते हैं कि हमेशा सुख शांति बनी रहे और सुख शांति से आपका क्या तात्पर्य है? उन्होंने बताया कि लोग कहते हैं और उन्हें ऐसा लगता है. पर महाभारत में भी कलयुग का जिक्र है. पॉइंट इज़, कि जब भगवान चाहते थे कि धर्म की स्थापना हो तो उन्होंने कौरवों को जन्म ही क्यों लेने दिया? धर्म को बनाए रखने का एक तरीका ये नहीं हो सकता कि अधर्मियों को आने ही न दिया जाए? मुझे पूरा यकीन है कि ये या इस जैसे सवाल बहुत से सुधिजनों के मन में आते होंगे. सवाल का जवाब ढूंढने से कहीं ज़रूरी होता है सवाल ‘को’ समझना. सवाल ये कहता है कि भगवान ये चाहते हैं कि सुख शांति बने रहे.
आदमी चाहे कितना बड़ा ही धार्मिक क्यों न हो जाए लेकिन ऐसे तमाम लोग हैं जिनके मन में ईश्वर को लेकर ढेरों सवाल हैं
भगवान को हम रचयिता, ब्रह्मा, क्रीएटर, या किसी अड्वान्स एलिअन के रूप में अपने हिसाब से, अपनी श्रद्धा से रीनेम कर सकते हैं. या, साइंसदानों के लिए सबसे आसान और पचाने योग्य शब्द है – यूनिवर्स. सवाल पर वापस लौटते हैं. हम इंसान, जब भी सुख शांति की बात करते हैं, तब सिर्फ खुद को केंद्र में रखकर सोचते हैं. क्या हम इंसानों का सुख शांति से रहना ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सुख से रहना है?
एक छोटा स उदाहरण जानिए, एक साम्राज्य बहुत हंसी-खुशी फल-फूल रहा है. वहां न कोई हमला होता है और न ही किसी घर में क्लेश होता है. तो वह साम्राज्य क्या करेगा? ज़ाहिर है कि विस्तार करेगा. उस विस्तार में क्या कुछ जायेगा? सबसे पहले जंगल, फिर उसमें रहने वाले जानवर, पक्षी, वहां की नदी और असंख्य कीट पतंगे जिनके जलने भुनने की सीमा नहीं होगी, उनका विनाश करेगा.
अब फ़र्ज़ कीजिए एक सुखी परिवार अपने बेटे (फेमनिस्ट लोग बेटी पढ़ें) के लिए एक खाली प्लॉट में नींव बना रहा है ताकि अब वह सुख से बड़ी जगह में रह सके. एक से भले दो घर हों. लेकिन जहां पहला फावड़ा चलता है, वहां चींटियों की एक बाम्बी है जो एक झटके में जड़ से गायब हो जाती है. अब सोचिए वो चीटियां क्या कहेंगी? क्या उनके लिए सुख शांति बनी रही? (चीटियां हमारी सभ्यताओं से कहीं पहले से घर बनाकर, सोसाइटी बनाकर रहती आ रही हैं)
सबसे पहले तो ये समझिए कि यह सुख और शांति की बात सिर्फ हम तक सीमित नहीं है. हमसे पहले भी सपीशियस थीं, हमसे पहले भी हमसे ज़्यादा समझदार थे जीव थे, हमारे बाद भी होंगे.
दूसरा बेसिक फन्डामेंटल फाइनेंस से समझिए कि कहीं कोई पैसा क्रेडिट हुआ है तो कहीं से डेबिट भी हुआ ही होगा. कहीं सुख है तो यकीनन किसी को दुख देकर आया होगा और वहीं कहीं पर कोई दुखी है, किसी का नुकसान हुआ है तो 100% किन्हीं दो का फायदा भी हुआ होगा. पुरानी कहावत है कि मुर्दे आते रहेंगे तो डोम के घर का चूल्हा जलता रहेगा. इस एक लाइन को गांठ बांधकर अपने साथ रख लीजिए कि जो बुरा होता है उसके पीछे कुछ बहुत अच्छा होने का कारण छिपा है.
तीन जन माता वैष्णोदेवी की यात्रा पर थे कि झमाझम बारिश शुरु हो गई. उनमें से दो बारिश का मज़ा ले रहे थे पर मिस्टर तीसरा अड़ गया कि मैं बारिश में नहीं चलूंगा मुझे जुकाम हो जाता है. वन और टू ने उसका खूब मज़ाक उड़ाया पर वो नहीं हिला. एक महीन से शेड में सिर बचा के खड़ा रहा. रात का समय था, सन 1992 का काल, बाकी दोनों ने भी वहीं रुकने का फैसला किया कि तीनों साथ ही जाएंगे. कोई 4 घंटे बाद वह दोनों फिर चल निकले, थोड़ी दूर ही गए थे कि देखा रास्ता बंद है. 4 घंटे पहले यहां लैंडस्लाइड हुई थी जिसमें कई श्रद्धालु दब गए हैं.
इसको बड़े स्तर पर समझिए, द्वितीय विश्वयुद्ध में करोड़ों जानें गईं. असंख्य बेघर हुए, पर उसके बाद क्या हुआ? उसके बाद यूरोप जो बात-बात पर आपस में युद्ध करता था; वो एक हो गया. ब्रिटीशर्स को भारत छोड़ना पड़ा. मेडिकल साइंस ने इतनी तरक्की कर ली कि डेलीवेरी के वक़्त 99% तक बच्चे जीवित बचने लगे. आपको क्या लगता है कि अगर हिरोशिमा पर नूक्लीअर न गिरा होता तो आज जापान इतना अड्वान्स होता?
हर छोटी घटना होने वाली बड़ी घटना का कारण है.
फिर भी, भगवान अगर कौरव ही न बनाते तो क्या लड़ने-भिड़ने की ज़रूरत ही न पड़ती. ऐसा भी नहीं है. आप कौरव सिर्फ एक परिवार को समझ रहे हैं जबकि वह एक सोच है. दुर्योधन था तो पांडवों हीरो बने. क्या पता उसके न होने से पांडव खुद ही एक दूसरे से लड़ते, किसी नारी का अपमान होता, बटवारा करते नज़र आते? लड़ना इंसान की प्रवत्ति है, इंसान जब-जब नहीं लड़ता है, तबतब नेचर का सत्यानाश करता है.
फिर, श्रीकृष्ण की बात करें, तो उन्होंने खुद कहा था कि वह चाहें तो एक पल में यह युद्ध खत्म कर सकते हैं पर क्यों न किया? क्योंकि इस तरह से आने वाली पीढ़ी एवॉल्व कैसे होगी? इंसान का धर्म है आगे बढ़ते रहना. लीडर्स का काम है वो रास्ता दिखाना कि किधर बढ़ते रहना है. इसलिए सुख शांति से रहना है तो युद्ध बहुत ज़रूरी है.
अब रही बात कलयुग की तो एक बेसिक फंडा और समझिए, इसबार साइंस से समझिए. एक नेगेटिव चार्ज होता है और एक पाज़िटिव. सारा ब्रह्मांड इसी पर बना है. इसी पर सब कुछ टिका है. आप, मैं बैग्पाइपर, सब! अब सतयुग अगर पाज़िटिव चार्ज से बना है तो कलयुग नेगेटिव चार्ज से चलता हुआ!. थे दोनों यहीं, हैं दोनों यहीं, रहेंगे दोनों यहीं, बस एक का स्तर कभी ऊपर तो कभी दूसरे का नीचे होता रहेगा. ये एक साइकिल है. समय एक बड़ा पहिया है जिसमें कभी पोसीटिविटी ऊपर तो कभी नेगेटिविटी हावी होती रहेगी.
इसको और माइथोलॉजिकल अंदाज़ में समझना है तो कभी देवता शासन करेंगे तो कभी राक्षस. ये चक्र चलता रहेगा. कोई घटना सुख देगी और कोई दुर्घटना सबक देगी. भगवान सतयुग (हालांकि राक्षसों का आतंक वहाँ भी था) चाहते हैं तो असुर कलयुग चाहते हैं. पर मुद्दा ये भी नहीं है मेरे दोस्त. मुद्दा बस इतना सा है कि ये हमारे बारे में नहीं है. ये बात भी गांठ बांधकर गले में रख लीजिए.
लिबरल्स फेमि दीदीज रोती हैं कि व्रत करा-करा के औरतों पर अत्याचार करते हैं ये हिन्दू त्यौहार. पर आप कभी व्रत करती उस मां या पत्नी या बहन का चेहरा देखिए. उनके चेहरे पर विश्वास दिखता है, सुकून झलकता है, शक्ति चमकती है. क्योंकि वो औरत भली भांति समझती है कि यह जीवन सिर्फ और सिर्फ उसके अपने फायदे के लिए नहीं है, ये परिवार के लिए है, समाज के लिए है, उस ब्रह्मांड के लिए लिए है जिसने उसको जन्म दिया है.
भगवान शिव ने हलाहल इसलिए नहीं पिया कि उन्हें फिर अमृत भी चाहिए था. एक ज़िम्मेदार पिता अपनी एड़ियों के छाले नहीं देख रोने की बजाए अपनी औलादों को ट्रौफी लेकर स्टेज पर खड़े मुसकुराते देख ज़्यादा खुश होता है. ये संसार ही, सिर्फ हमारे तक सीमित नहीं है, इससे कहीं आगे है. जिस रोज़ हम निःस्वार्थ होकर ये बात समझ लेते हैं, उस दिन से हमारा सतयुग, हमारा सुख और हमारे मन की शांति आरंभ हो जाती है और हम तृप्त होने का सही अर्थ समझ लेते हैं.
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