ये है पेट्रोल-डीजल की सरकारी 'ब्लैक मार्केटिंग'
बीते दिनों में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के साथ ही सरकार ने टैक्स और ड्यूटी में भारी इजाफा कर ग्राहकों के लिए सस्ता पेट्रोल-डीजल एक सपना ही बना दिया. क्या इस तरह टैक्स थोपना सरकार की 'ब्लैक मार्केटिंग' नहीं कही जाएगी.
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ग्लोबल मार्केट में पिछले डेढ़ साल के दौरान कच्चे तेल की कीमत 120 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर लगभग 40 डॉलर तक आ गई हैं. लेकिन हमारी सरकार इस गिरावट को देखते हुए पेट्रोल और डीजल की कीमत में कटौती नहीं होने दे रही है. हालांकि अब दोनों कीमतें बाजार निर्धारित करता है, फिर भी केन्द्र सरकार ने टैक्स और ड्यूटी का सहारा लेकर इस गिरावट के दौरान महज अपनी जेब भरने का काम किया है. टैक्स और ड्यूटी बढ़ाने का फैसला बीते एक साल में सरकार पांच बार ले चुकी है. हद तो तब हो गई जब पेट्रोल और डीजल पर लग रहा टैक्स और ड्यूटी उसकी कुल प्रोडक्शन कॉस्ट से भी अधिक हो गई है.
अब राजधानी दिल्ली में ही पेट्रोल की कीमतों को देखिए. इस इंडस्ट्री से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक कच्चे तेल और विदेशी मुद्रा की विनियम दर की औसत दरों पर एक लीटर पेट्रोल की प्रोडक्शन कॉस्ट मात्र 24.75 रुपये आती है. इस लागत पर अगर संबंधित कंपनी की मार्जिन और अतिरिक्त दरों को जोड़ दें तो पेट्रोल पंप पर एक लीटर पेट्रोल मात्र 28 रुपये के आसपास बिकना चाहिए. लेकिन केन्द्र सरकार इसपर 19.06 रुपये का एक्साइज ड्यूटी के साथ-साथ 2.26 रुपये प्रति लीटर डीलर कमीशन वसूलती है. इसके अलावा इन कीमतों में अन्य टैक्स जैसे कि वैट और सेल्स टैक्स, लगभग 12.14 रुपये, जोड़ा जाता है. इन सभी टैक्स और ड्यूटी को जोड़ने के बाद राजधानी दिल्ली में एक लीटर पेट्रोल की कीमत 60.70 रुपये हो जाती है.
ठीक इसी तरह डीजल की भी रीटेल कॉस्ट उसकी प्रोडक्शन कॉस्ट के दोगुने से भी ज्यादा की जा रही है.
सवाल यह उठता है कि आखिर कच्चे तेल की कीमत जब 120 डॉलर पर थी तब पेट्रोल 70 रुपये लीटर बिकता था और अब जब कीमतें गिरकर 40 डॉलर के दायरे में हैं तो पेट्रोल 61 रुपये प्रति लीटर किस तर्क के साथ बेचा जा रहा है. केन्द्र सरकार और देश के अर्थशाष्त्रियों का मानना है कि कच्चे तेल की कीमतों में इस गिरावट से सरकार का इंपोर्ट बिल कम हो रहा है जिसके चलते वह अपना राजस्व घाटा पाटने में लगी है.
अब प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमनियन की माने तो इस अथिरिक्त धन से केन्द्र सरकार का खजाना भले भर रहा है, लेकिन इस पैसे का इस्तेमाल देश में सब्सिडी के बोझ को कम करने के लिए किया जा रहा है. इसके साथ ही इस पैसे से सरकार के टैक्स रेवेन्यू में इजाफा किया गया है जिसे बजट के माध्यम से वापस जनता के लिए विकास कार्यों (जैसे सड़क और पुल का निर्माण, स्वास्थ सुविधाओं को बेहतर बनाने) के लिए किया गया है.
लिहाजा, क्या सरकार यह भी बताने कि कोशिश करेगी कि देश की जनता से लिया जा रहा इन्कम टैक्स, सर्विस टैक्स, वैल्यू एडेड टैक्स जैसे तमाम टैक्स इन कामों के लिए नहीं इस्तेमाल हो रहे हैं? जबकि हकीकत यह है कि आप बाजार में बर्गर-पिज्जा खाने से लेकर घर की रसोईं के लिए खरीदी जा रही रसद, गाडी खरीदने से लेकर उसकी सर्विस तक, घर खरीदने से लेकर किराए का मकान लेने तक हर काम में किसी न किसी रूप में टैक्स का भुगतान कर रहे हैं.
ऐसे में जब वैश्विक डिमांड और सप्लाई का तारतम्य बिगड़ने से दुनियाभर में कई कमोडिटी की कीमतों में बड़ी गिरावट दर्ज हो रही है और ज्यादातर इंडस्ट्रियल रॉ मटेरियल की कीमतें गिर रही हैं (उदाहरण के तौर पर स्टील), तो इस तर्क के चलते सरकार उन कीमतों को भी क्यों नहीं पुरानी दरों पर बरकरार रख रही है? क्या केन्द्र सरकार का अपने बढ़ते खर्च से सरकारी खजाने को पहुंचे घाटे को पाटने के लिए यह फॉर्मूला जायज है. या फिर उसे कच्चे चेल की कीमतों में जारी इस गिरावट का लाभ सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाना चाहिए जिससे उनकी जेब में कुछ अधिक पैसा बच सके. क्या यह कहना ठीक नहीं कि सरकार की इस तरह धन उगाही पेट्रोल और डीजल की 'ब्लैक मार्केट' जैसा ही है?
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