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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 08 फरवरी, 2023 12:08 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर संसद में सबसे कम मौजूद रहने का बड़ा रिकॉर्ड कायम करने के बाद राहुल गांधी की 'किलकारियां' सुनी गईं. बावजूद कि गौतम अडानी के बहाने सूट-बूट वाली नरेंद्र मोदी सरकार पर उन्होंने जितने हमले किए उसमें कुछ भी नया नहीं था. प्रतिभाशाली राजनीतिक युवा को लेकर यह देश का दुर्भाग्य है. वैसे, मोदी के पीएम बनने के बाद शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो जब उन्होंने अडानी-अंबानी के बहाने मोदी पर तीखे हमले ना किए हों. लगभग वह सब बातें बार-बार दोहरा चुके हैं जो उन्होंने आज बोला. वे तभी चुप दिखे जब छुट्टी पर थे. कई बार उन्होंने और उनके नेताओं ने स्तरहीन टिप्पणियां तक की हैं.

खैर, वह भी कोई बड़ी बात नहीं. इश्क और जंग में इतना तो जायज मान लेना चाहिए. अरविंद केजरीवाल जैसे ईमानदार नेता मंच पर गाली देकर अदालतों में किसी कारोबारी से सशर्त माफी मांग सकते हैं. शायद राहुल की तरफ से भी उनके तमाम मुख्यमंत्री अडानी से माफी मांगते ही रहते हैं- "उन्हें बुद्धि नहीं है. जाने दीजिए." शायद इसी वजह से अडानी ने सालों गालियां सुनने के बावजूद कोई कोर्ट केस नहीं किया अबतक. या कोई और वजह हो, मुझे तो नहीं मालूम. मगर आज संसद में राहुल की 'किलकारियों' से एक पल के लिए लगा कि भारतीय राजनीति में कोई वीर जन्म लेने जा रहा है. पर जैसे ही उन्होंने अडानी मामले में मोदी को घेरते हुए नियमों में फेरबदल कर उन्हें फायदा पहुंचाने की बात की- साफ़ हो गया कि हिंडनबर्ग के पहाड़ को खोदने में चुहिया निकल कर संसद के गलियारों में दौड़ने लगी. राहुल गांधी संसद के पटल पर एक भी तथ्य रखने में नाकाम रहे.

vijay malyaराहुल गांधी और विजय माल्या.

हिंडनबर्ग अब अडानी के कर्मचारियों की जाति पता करे अब, राजनीति बदल जाएगी  

आशंका की जो थोड़ी बहुत गुंजाइश थी- वह भी आज ही संसद में भारत की विदेश नीति पर आई उनकी टिप्पणी से साफ़ हो गई और एक तरह से यह भी साफ़ हो गया कि राहुल के पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही हैं. देश ने खुली आंखों और कानों सबकुछ देखा और सुना. उन्होंने कहा- "यह फॉरेन पॉलिसी भारत की नहीं बल्कि अडानी जी की है. ये विदेश दौरे अडानी जी के बिजनेस को संवारने के लिए किए गए हैं." चलिए राहुल की टिप्पणी से साफ़ हुआ कि अब भारत में भी अडानी जैसा कारोबारी है जो विदेशों में भले अपनी कॉलोनी ना बनाए, मगर चार लाख भारतीय परिवारों को मुश्किल वक्त में दो वक्त की रोटी तो दे रहा है. अब हिंडनबर्ग को चाहिए कि अडानी के करीब चार लाख लाभार्थियों की जाति और उनका क्षेत्र पता करे. मानस की चौपाई तो नहीं, मगर यह जरूर एक चुनावी मुद्दा बन सकता है. राहुल का भाषण ख़त्म होते होते शेयर बाजार में अडानी के तमाम शेयर्स ने जबरदस्त वापसी की है.

अब बात जब अडानी से शुरू हुई है तो थोड़ी चर्चा कांग्रेस के भी अडानियों से भी की जाए. चूंकि राहुल ने नियमों में फेरबदल का हवाला दिया है इससे समझा जाए कि कौन सा नियम या क़ानून बदलना देश के लिए फायदेमंद रहा. अडानी के लिए या विजय माल्या के लिए. कांग्रेस के माल्याओं की कहानी से समझ में आता है कि पश्चिम का सिंडिकेट भारत की राजनीति और तमाम चीजों को कैसे अपने पक्ष में प्रभावित करता रहा है. कांग्रेस के चाल चरित्र और चेहरा से भी इसे समझा जा सकता है. एक हद तक समझा जा सकता है कि आखिर वह वजह क्या रही कि कांग्रेस हर चुनाव में गरीबी हटाओ, गरीबी हटाओ का नारा देते प्रचंड बहुमत से सरकार बनाती रही- वह खुद हट गई मगर गरीबों नहीं हट पाई.

माल्याओं के साथ कांग्रेस कुछ इस तरह से गरीबी हटाती रही है

गरीबी हटाने में कांग्रेस इतना मगन हो गई कि समाज और राजनीति की धुरी ही बदल गई. संस्कृति बदल गई. चलिए 1983 में चलते हैं. यह वो साल है जब देश भयावह उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. जम्मू-कश्मीर, पंजाब, बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तर पूर्व और दक्षिण के समाज में अराजकता किस तरह थी, कभी इत्मीनान से चेक करना चाहिए. हर तरफ अराजकता और जातीय नरसंहार. राज्यों के बीच का झगड़ा. 1983 में तमाम बड़ी चीजें हो रही थीं. एक 'किंग ऑफ़ गुड टाइम्स' भी गर्भस्थ था. वह माल्या था, जो 28 साल की उमर में यूनाइटेड वेबरीज का चेयरमैन बनता है. आगे चलकर इसी माल्या की पहचान भारत और उससे बाहर एक शराब कारोबारी के रूप में हुई.

बावजूद कि माल्या से पहले तक भारतीय समाज में शराब का बिजनेस था और पीने वाले भी थे. लेकिन यह हमारी अर्थव्यवस्था में बस एक बिजनेस भर था. हर कोई इसकी तरफ ध्यान नहीं देता था. खारिज भी नहीं करता था. बस वह था तो था. जैसे प्रख्यात साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि शराब उनके परिवार का खानदानी व्यापार था, मगर उन्होंने कभी शराब मुंह नहीं लगाई. समझा जा सकता है कि भारतीय समाज के हर तबके में शराब की अहमियत क्या थी.

माल्या बिजनेस फैमिली से था. पश्चिम से बहुत प्रभावित था. उसका रोल मॉडल अमेरिका था. मजेदार यह है कि माल्या के चेयरमैन बनने के बाद भारत ने 1985 में नारकोटिक्स को लेकर एक कानून बनाया. इसके तहत कैनबिस के फल और फूल के इस्तेमाल को अपराध की श्रेणी में रख दिया गया. अब भांग, गांजा या चरस जो भी कह लीजिए. बस इसकी पत्तियों को नहीं रखा गया. और ऐसा सिर्फ इसलिए कि इसकी धार्मिक अहमियत थी. महादेव को चढ़ाया जाता था. मगर भांग को लीगलाइज किया गया. नियंत्रण समाज की बजाए सरकार की हाथ में आ गया. यह ऐसी चीज थी कि भारतीय समाज को लगा होगा कि समाजहित में कांग्रेस सरकार ने बहुत बड़ा काम किया. तब प्रचारित भी ऐसे ही किया गया होगा.

समाज की जान बचाने के लिए क़ानून नहीं बना पाए मगर शराब के लिए रास्ता साफ़ कर दिया

कांग्रेस के पास प्रचंड बहुमत था. वह भले तब शाहबानो मामले में एक बहुत जरूरी कानून बनाने से शांतिदूतों के डर की वजह से पीछे हट गई, कश्मीर में आतंकी उभार को नहीं देख पाई, पंजाब समेत समूचे देश को सिखों के खिलाफ घृणा और अलगाव की राह पर धकेल दिया, मगर नारकोटिक्स पर क़ानून बनाने में उसे अपार संभावना दिखी. संभावनाएं क्या थी- अंगूठे जितनी मोटी जनेऊ पहनने वाले महापंडित विजय माल्या के शीर्ष पर पहुंचने, कांग्रेस के साथ उनकी दोस्ती और बर्बादी से समझ सकते हैं. एक्ट के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ किस तरह से था उसे भी समझा जा सकता है. असल में पश्चिम भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों में शराब के कारोबार में संभावना देख रहा था. अपने उपनिवेश के जरिए उसने भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में पारंपरिक व्यवस्था को ना सिर्फ ख़त्म कर दिया बल्कि सामजिक अराजकता की तरफ धकेल दिया.

उससे पहले तक भारत का ज्यादातर शराब कारोबार साफ सुथरा था. पारंपरिक था. समाज सापेक्ष था. तब शराब कारोबार पर एक सामजिक बंदिश थी एक तरह से सामाजिक नियंत्रण था. माल्या ने शराब कारोबार का समूचा खेल ही पलट ही दिया. शहर, माल्या की बियर और व्हिस्की में इस कदर झूमकर इलीट फील करने लगे कि समाज में संपन्नता के मानक बदलने लगे. रोजी रोजगार हो या नहीं, उम्र हो या नहीं, जेब में पैसे हो या नहीं, पढ़ाई लिखाई हो या नहीं- मगर किंगफिशर की 'इंग्लिश' लेडीज ने क्रांति ला दी. भुक्खड़ों को इलीट होने का फील मिल गया. महानगरों, शहरों, कस्बों  की क्या ही बता की जाए- माल्या क्रांति वहां भी पहुंची, जहां पक्की सड़क, पानी का हैंडपंप, स्कूल और बिजली का बल्ब तक नहीं पहुंच पाया था.

गांवों की शादियां शराबनोशी का प्रशिक्षण केंद्र बन गई. आंखों देखी बता रहा हूं- 12 से13 साल के बच्चे चंदे से माल्या की बियर या व्हिस्की खरीदकर इलीट सुख पाने लगे. बेशक यह माल्या भर की क्रांति नहीं थी. कांग्रेस ने भी निम्नवर्गीय समाज को इलीट फील कराने का ऐतिहासिक मौका दिया. बॉलीवुड का भी योगदान है इसमें. आज की तारीख में वह किस स्तर का है- कहीं भी अपने आसपास देख लीजिए. शराब हमारी संस्कृति में इतना घुस चुका है- महिलाओं के एक बड़े तबके को छोड़ दिया जाए तो वह अब हिकारत का विषय नहीं है. शराब को लेकर हमारे समाज की व्यवस्था किस तरह थी कभी देखना हो तो आदिवासी समाज और उत्तर पूर्व के समाज और दक्षिण में उसे देख सकते हैं. आज भी.

यही कांग्रेस शराब पर अमेरिका के दबाव में नहीं झुकी थी

असल में भारत में यह शराब क्रांति और पहले आ जाती. अमेरिका ने भारत पर 1961 में ही नारकोटिक्स को लेकर दबाव डाला था. वह भारतीय समाज की आदतें बदलना चाहता था, मगर तब पुराने मिजाज के लोग थे और उसके दुष्परिणाम से परिचित थे- भारी दबाव के बावजूद खारिज कर दिया. माल्या की सफलता ने तो कारोबारियों को नोट छापने का धंधा दे दिया. बाद में कितने शराब कारोबारी आए. राज्य सरकारों ने फैक्ट्रियां लगाईं. जमकर नोट छापा गया. दिलचस्प यह है कि आज की तारीख में उसी पश्चिम ने अपने यहां कैनबिस के इस्तेमाल को सामान्य बताकर लीगलाइज कर दिया है.

राहुल गांधी ने संसद में अडानी के अनुभव का भी सवाल उठाया था कि उन्हें जिस कारोबार का अनुभव नहीं है वह भी सरकार ने दे दिया. बहुत से केस हैं मगर यहां भी बात सिर्फ माल्या के उदाहरण से. माल्या को शराब कारोबार के अलावा किसी और बिजनेस का अनुभव नहीं था. बावजूद पैसे की ताकत पर उसे एयरलाइन का बिजनेस दिया गया. किंगफिशर एयरलाइन. साल 2005  में मनमोहन सरकार में शुरू हुआ. सुरिया की एक फिल्म है- सुरराई पोतरू. इसमें दिखाया गया है कि कैसे माल्या और दूसरे स्थापित कारोबारियों ने सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट की वजह से एक आम आदमी जी गोपीनाथ ने एयरलाइन खड़ी कर समाज को बदलने का सपना देख रहा था- उसे प्रभावित किया गया. वक्त मिले तो इस प्रेरक फिल्म को हर भारतीय जरूर देखे. माल्या जैसे तमाम प्यादों की कोशिशों के बावजूद उस कारोबारी ने घरेलू एयरलाइन में एक बेंचमार्क बनाया.

इसके बाद कांग्रेस राज में ही टी20 फ़ॉर्मेट में घरेलू क्रिकेट की सीरिज शुरू की गई. माल्या को भी एक टीम मिली. माल्या को भी खेलों का कोई अनुभव नहीं था. रॉयल चैलेंजर बेंगलुरु उन्हें किसकी कृपा से मिली. माल्या को कांग्रेस सरकार की तरफ से जो पैसे मिले थे उसने मनमाने बिजनेस पर खर्च किया. अय्याशी पर खर्च किया और उसके नतीजे क्या निकलकर आए. वह बर्बाद हो चुका. डिफाल्ट हुआ. ललित मोदी भी भागा और माल्या भी भागा. हालांकि उससे पहले- उसने 2010 से 2013 के बीच सीधे मनमोहन सिंह को कई मेल किए. पत्र लिखा. तब पी चिदंबरम वित्त मंत्री हुआ करते थे. कांग्रेस को आज बताना चाहिए कि तब किसके कहने पर चिदंबरम ने एयरलाइन लोन मामले में माल्या को राहत दिलवाई. और राहत मिलने के बाद आखिर कांग्रेस का सबसे भरोसेमंद कारोबारी भाग क्यों गया? उसके तमाम बिजनेस क्या हुए?

उस सरकार में एक से बढ़कर अर्थशास्त्री थे. मनमोहन, चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, सैम पैत्रोदा ना जाने कितने लोग थे. क्या हुआ था? सिर्फ नौ साल पहले की कहानी है. माल्या से लेकर आज संसद में राहुल गांधी के भाषण तक तमाम चीजें साफ़ हो गई. कांग्रेस के दो दर्जन माल्या हैं. सामाज और देशहित में कांग्रेस के योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा.

उम्मीद है कि अपने सवालों का जवाब पाने के लिए राहुल जी संसद में मौजूद होंगे. अधीर बाबू को अकेला नहीं छोड़ेंगे.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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