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Updated: 30 अप्रिल, 2020 11:42 AM
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पिछले कुछ दिनों से कोरोना (Coronavirus) के अलावा एक और खबर सुर्ख़ियों में छायी हुई है और वह भी नकारात्मक वजह से. दरअसल आजकल नकारात्मकता का ट्रेंड कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है, लेकिन यह खबर ऐसी है जो लोगों तक पहुंचनी ही चाहिए. हिन्दुस्तान की आवाम को यह पता होना चाहिए कि उनके खून पसीने की गाढ़ी कमाई किसके द्वारा लूटी जा रही है. मैं बात कर रहा हूं रिजर्व बैंक (Reserve Bank) द्वारा दी गयी उस रिपोर्ट के बारे में जिसमें उन्होंने बताया है कि बैंकों (Banks) ने साल 2019-20 में सबसे बड़े 50 चूककर्ताओं के रु. 68607.00 करोड़ का राइट ऑफ किया है (मतलब रु. 68607.00 करोड़ बट्टे खाते में डाले हैं). इन बड़े चूककर्ताओं में सभी तरह के लोग यथा मेहुल चौकसी (Mehul Choksi), जतिन मेहता (Jatin Mehta), झुनझुनवाला, बाबा रामदेव (Baba Ramdev) आदि हैं. और इसमें सब तरह के उद्योग भी शामिल हैं.इन खबरों को पढ़कर आम व्यक्ति को यही लगता होगा कि इतने बड़े बड़े लोगों के ऋण (Loans) को बैंक माफ़ कर देता है और छोटे और मझोले उद्योग धंधे करने वालों को ऋण वसूली के नाम पर तरह तरह से परेशान किया जाता है. इसलिए कुछ बात बैंक ऋण के विषय में भी बताना जरुरी है.

Bank, RBI, Interest, Defaulters, NPA, Financeतमाम मोर्चों के अलावा आज भारत सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बैंकों का बढ़ता हुआ एनपीए भी है

 

दरअसल बैंक रिजर्व बैंक के नियमों के तहत ही कार्य करते हैं और उनके दिशा निर्देशों का पालन करते हुए ही किसी भी व्यक्ति या उद्योग को ऋण देते हैं. अब ये ऋण या तो समय से चुका दिए जाते हैं या फिर ये धीरे धीरे डिफ़ॉल्ट की श्रेणी में आते हैं. कुछ समय बाद ऐसे ऋण जिनमें पैसे नहीं आ रहे हैं, वह एनपीए यानी अनुत्पादक अस्थियों में बदल जाते हैं (मतलब इनसे किसी प्रकार की आय बैंकों को नहीं होती है).

ऋण खातों को एन. पी. ए. (N.P.A.) में वर्गीकृत करने के लिए रिजर्व बैंक के हिसाब से कुछ नियम बनाये गए हैं जो निम्नलिखित हैं-

अगर किसी ऋण खाते में 90 दिन तक किश्त या ब्याज की राशि जमा नहीं होती है तो ऐसे खातों को एन. पी. ए. खाते में वर्गीकृत कर देते हैं.

कृषि क्षेत्र के ऋण खातों में अगर ऋण देने के बाद 2 साल तक किश्त या ब्याज की राशि जमा नहीं होती है तो ऐसे खातों को एन. पी. ए. खाते में वर्गीकृत कर देते हैं.

एनपीए खातों को भी समय के साथ कई तरह से वर्गीकृत किया जाता है-

सब-स्टैण्डर्ड (Sub-standard) खाते- शुरूआती एक साल

डाउटफुल (Doubtful) खाते- एक साल के बाद आगे तक

लॉस (Loss) खाते- ऐसे खाते जिनमें सिक्योरिटी की वैल्यू ऋण के वैल्यू के 10% से भी कम हो.

अब इन एनपीए खातों में बैंक को रिजर्व बैंक के नियम के अनुसार प्रोविजन करना पड़ता है. यह प्रोविजन बैंक अपने लाभ हानि खाते को नामे (Debit) करके करता है, मतलब कि बैंक अपने लाभ हानि को प्रोविजन के बराबर कम कर देता है. अब इसका सीधा सा मतलब है कि जितना ज्यादा प्रोविजन होगा, बैंक का लाभ उतना ही कम हो जाएगा. यह प्रोविजन 10% से लेकर 100% तक होता है, सब-स्टैण्डर्ड (Sub-standard) खाते में 10%-20%, डाउटफुल (Doubtful) खाते में 30% से लेकर 100% और लॉस खातों में 100%. जैसे ही बैंक में ऋण खाता गड़बड़ होने लगता है, बैंक उसकी वसूली के लिए प्रयास शुरू करता है.

पहले उधारकर्ता को बुलाकर उसकी दिक्कत को समझा जाता है, फिर उसकी यथासंभव मदद की जाती है. अगर बैंक को लगता है कि उधारकर्ता को अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता है तो बैंक उसे वह भी उपलब्ध करवाता है. इसके बाद भी अगर ऋण खाता ठीक नहीं होता है तो बैंक उसके लिए उधारकर्ता को क़ानूनी नोटिस देता है. इसपर भी अगर बैंक का पैसा नहीं आता है तो बैंक उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करता है.

अगर बैंक के पास कोई संपत्ति गिरवी रखी है तो उसे सरफेसी के अंतर्गत सूचना देकर बेचने की कार्यवाही करता है. अगर कोई भी संपत्ति गिरवी नहीं है तो बैंक उधारकर्ता के खिलाफ न्यायालय में जाता है और कोर्ट आर्डर के बाद उसकी अन्य सम्पत्तियों को बेचकर अपना पैसा वसूल करता है.

छोटे खातों में तो बैंक के पास अमूमन कोई न कोई संपत्ति गिरवी रहती है जिसे बेचकर बैंक अपनी वसूली कर लेता है. लेकिन बड़े बड़े ऋण के मामले में बैंक के पास ऐसी सम्पत्तियां नहीं होतीं जिन्हें बेचकर वह अपनी वसूली कर पाए. अब बैंक वसूली के लिए इनके खिलाफ न्यायालय (DRT) और एनसीएलटी (N.C.L.T) में जाता है.

इसी बीच बैंक उधारकर्ता से समझौता प्रस्ताव के लिए भी बातचीत करता रहता है और अगर बैंक के पालिसी के हिसाब से कोई उधारकर्ता पैसा भरने के लिए तैयार हो जाता है तो वह खाता भी समझौता प्रस्ताव के अंतर्गत बंद हो जाता है. इस समय लगभग हर बैंक ने अपने यहाँ बहुत लचीली और आकर्षक समझौता पालिसी बना रखी है और बैंक का उद्देश्य केवल अपने डूब चुके धन की वसूली होती है.

एनपीए खातों से बैंक को कई तरह से नुक्सान होता है जैसे उसपर कोई कमाई नहीं होती है, प्रोविजन करना पड़ता है जो समय के साथ बढ़कर 100% हो जाता है, इत्यादि. बैंक के द्वारा तमाम प्रयास के बावजूद भी कुछ ऐसे खाते होते हैं जिनमें बैंक के पास कोई सिक्योरिटी नहीं होती और उसकी वसूली न सिर्फ बहुत समय लेने वाली होती है, बल्कि इनमें पैसे आने की सम्भावना बहुत कम होती है.

बैंक ऐसे खातों को राइट ऑफ (बट्टे खाते में डालना) कर देता है जिससे यह राशि उसके बैलेंस शीट से कम हो जाती है, मतलब बैंक का एनपीए और उसका प्रोविजन दोनों घट जाता है. और आज हर बैंक की यह मज़बूरी है कि उसे अपने बैलेंस शीट में एनपीए और प्रोविजन दोनों कम से कम दिखाना है. लेकिन राइट ऑफ करने का यह मतलब कत्तई नहीं होता कि बैंक ने उस खाते से वसूली बंद कर दी है.

चूंकि ऐसे खातों में पहले से ही 100% प्रोविजन होता है तो इनको बट्टे खाते में डालने से बैंक के लाभ हानि में कोई फर्क नहीं दिखता. अलबत्ता बैंक इतना ऋण और दे सकता है. बैंक इन राइट ऑफ खातों में लगातार वसूली का कार्य जारी रखता है और जो भी पैसा उसे प्राप्त होता है वह उसके लाभ में सीधे सीधे बढ़ोत्तरी कर देता है.

इसलिए यह सोचना कि, बैंक इन बड़े या छोटे कर्जदारों के ऋण खातों को राइट ऑफ करके इनको कोई मदद पहुंचाता है, या उनके कर्ज को माफ़ कर देता है, गलत है. हां ऐसे बड़े कर्जदारों के नाम जरूर विलफुल डिफाल्टर्स के तौर पर सार्वजनिक करना चाहिए जिससे समाज को पता चले कि उनकी गाढ़ी कमाई को कौन बर्बाद कर रहा है.

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