भारत के बैंकों को बचाना है तो इन बातों का ध्यान रखना होगा
पीएनबी और रोटोमाक भारत की वित्तीय पारदर्शिता के दो विरोधी चेहरे हैं. स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड होने और वहां के कड़े नियमों के कारण भले दो हफ्ते तक टाल-मटोल करने के बावजूद भी पीएनबी को अपने यहां घोटाले का खुलासा करना पड़ा. हालांकि रोटोमैक के केस में बैंकों को डिफॉल्ट की जानकारी अपने तक रखने का अधिकार है.
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भारत की बैंकिंग व्यवस्था ध्वस्त होते होते बची है. जहां एक ओर सरकार का फोकस बैंकों के क्रेडिट से बढ़ती हुई आर्थिक दर पर है वहीं दूसरी ओर सरकार जनता को अपना पैसा बैंक में जमा करने के लिए कहती है. पीएनबी और रोटोमैक घोटाले ने भारत की बैंकिंग व्यवस्था को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है. इसके बाद देश के पास बैंकों के लिए पारदर्शी व्यवस्था लाने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा था.
बैंकों की क्रेडिट से बढ़ती दरों पर भरोसा करने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए हमें पहले तीन सवालों के जवाब खोजने होंगे-
1- पारदर्शिता के कड़े कानून हमारे यहां सिर्फ सरकारी कंपनियों के लिए ही क्यों हैं? जबकि कर्जे में डूबे प्राइवेट कंपनियों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है.
2- आखिर हम प्राइवेट या सरकारी बैंकों के लिए एक यूनीवर्सल फाइनैंनशियल डिस्क्लोजर नियम क्यों नहीं बनाते हैं?
3- आखिर हम वित्तीय पारदर्शिता के मुद्दे पर बैंक के डिपोजिटर और कस्टमर को शेयरधारकों और इंवेस्टरों के बराबर कब लाएंगे?
इन सभी सवालों का जवाब पीएनबी घोटाले और रोटोमैक डिफॉल्ट मामले में छुपा है.
सेबी के नियम नहीं होते तो ये घोटाला भी शायद सामने न आतापारदर्शिता कैसे काम करती है-
हम से कितने लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया कि भारत के दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक में इतने बड़े पैमाने पर हुए घोटाले के बारे में पहली जानकारी एक बड़ी ही असामान्य माध्यम से बाहर आई. हालांकि भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की बात सरकार बार बार करती रहती है. लेकिन फिर भी सच्चाई यही है कि नीरव मोदी के मामले में एफआईआर घटना रिपोर्ट होने के 15 दिन बाद और मुख्य अभियुक्तों नीरव मोदी और मेहूल चौकसी के विदेश चले जाने के बाद दर्ज की गई थी.
इस पूरे घोटाले पर से पर्दा तो शेयर बाजार ने उठाया. सेबी के डिस्क्लोजर नियम का अनुसरण करते हुए 14 फरवरी को पीएनबी ने बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को जानकारी दी कि मुंबई की इसकी एक शाखा में $1771.69 मीलियन यानि 11,000 करोड़ से ऊपर रुपयों के अनाधिकृत लेनदेन का मामला सामने आया है. इस घोषणा के बाद शेयर बाजार में भूचाल आ गया और पीएनबी के शेयर 10 प्रतिशत से ज्यादा गिर गए. इसके बाद ही सरकार और नियामक अपनी नींद से जागे.
आखिर अपारदर्शिता ने कैसे धाखा दिया-
रोटोमैक ग्लोबल ग्रुप एनपीए केस देखते हैं. आखिर कंपनी द्वारा लोन चुकाने के डिफॉल्ट की खबर आने के दो साल तक सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सोती क्यों रही? बिना कुछ सोचे समझे ये जवाब दिया जा सकता है कि भारतीय वित्तीय व्यवस्था की पर्दादारी इसकी वजह है.
पारदर्शिता के दो विश्व-
जब तक पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर के लिए दोहरे नियम होंगे रोक लगनी मुश्किल है
पीएनबी और रोटोमाक भारत की वित्तीय पारदर्शिता के दो विरोधी चेहरे हैं. स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड होने और वहां के कड़े नियमों के कारण भले दो हफ्ते तक टाल-मटोल करने के बावजूद भी पीएनबी को अपने यहां घोटाले का खुलासा करना पड़ा. हालांकि रोटोमैक के केस में बैंकों को डिफॉल्ट की जानकारी अपने तक रखने का अधिकार है. उन्हें सिर्फ एनपीए दिखाना होता है. रोटोमैक घोटाला पर्दे के पीछे इसलिए रहा क्योंकि वो एक प्राइवेट कंपनी है और उसके पास आजादी है कि अपनी खास्ता हालत को वो छुपाकर रख सकता है. इसकी वजह से बैंक में पैसे जमा करने वाले नागरिकों के पैसों का नुकसान होता है.
भारत की वित्तीय व्यवस्था में पारदर्शिता में बहुत सारी असंगतियां हैं. डिस्क्लोजर नियम मालिकाना हक के हिसाब से बने हुए हैं- पब्लिक, प्राइवेट और प्रॉपराइटर बिजनेस. इन सभी के लिए तय नियम हैं.
1992 और 2001 में एक के बाद एक हुए घाटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) ने सेबी को कड़े नियम बनाने पर मजबूर कर दिया. सेबी के नियमों के अनुसार कंपनियों को स्टॉक एक्सचेंज में हर छोटी जानकारी देनी होगी. पीएनबी स्कैम इसी वजह से सामने आया क्योंकि इसमें पब्लिक होल्डिंग वाली दो कंपनियां पीएनबी और गीतांजलि जेम्स जुड़ी थी.
वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट कंपनियों को सिर्फ अपना सलाना बैलेंस शीट, नफा और नुकसान के दस्तावेज इत्यादि जमा करने होते हैं. आम लोग इन दस्तावेजों को सरकार को फीस देकर देख सकते हैं.
ऋण पारदर्शिता-
पिछले 20 सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने बैंको द्वारा कंपनियों को ऋण चुकाने के लिए पैसे देन की कई घटनाएं देखीं. कंपनियां, बैंकों से कम दरों पर ऋण लेकर अपना बिजनेस बढ़ाती हैं. इससे एक तरह से बैंक के लाखों ग्राहक, कंपनी में हिस्सेदार बन जाते हैं. लेकिन शेयर बाजार की तरह यहां लोगों को कंपनी के फायदे में तो कोई हिस्सा नहीं मिलता लेकिन नुकसान में हाथ जलने का डर जरुर होता है. और क्योंकि बैंक और प्राइवेट लिमिटेड फर्म अपने बिजनेस में गोपनीयता बरतते हैं इसलिए लोगों को सिर्फ उनके डिफॉल्ट की ही खबर पता चलती है.
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