आरबीआई के लिए राजन वैसे ही हैं, जैसे चुनाव आयोग के लिए शेषन या कैग के लिए विनोद राय
आरबीआई तो रघुराम राजन के बाद भी काम करेगी. लेकिन, गवर्नर राजन के महत्व और उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा. जिनके मुक्त विचार, उनके काम पर पड़े भारी पड़ गए.
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काम बोलता है लेकिन कभी कभी मुक्त विचारों की आवाज बड़े और सफल कामों पर भी भारी पड़ जाती है. रघुराम राजन के साथ यही हुआ है. राजन को भले ही सियासत को चिढ़ाने वाले भाषणों की सजा मिली हो लेकिन उनकी खूबी उनकी तकरीरें नहीं वह भूमिका है जिसके लिए उन्हें तैनात किया गया था. रिजर्व बैंक गवर्नर के तौर पर उनका काम उनके बेलौस भाषणों से ज्यादा प्रभावी है. भारत की संभावित चुनौतियों की रोशनी में राजन के भाषणों की नहीं बल्कि उन आविष्कारों की जरुरत सबसे ज्यादा होगी, जो उन्होंने रिजर्व बैंक गवर्नर रहते हुए किये हैं.
पिछले रिजर्व बैंक गवर्नरों के विपरीत रघुराम राजन ने हमेशा दो अलग अलग समूहों को संबोधित किया. पहला है दिल्ली दरबार, जहां नेता और बुद्धिजीवी राजन की तीखी टिप्पणियों से खुश या आहत होते थे. जबकि दूसरी है मिंट या दलाल स्ट्रीट, जहां राजन के बयानों के ज्यादा उनके कामों की कीमत थी. क्योंकि उनके फैसले पर अरबों डॉलर के निवेश की आवाजाही टिकी थी. और इस महत्वपूर्ण तबके लिए राजन वह केंद्रीय बैंकर जिसने भारत में ब्याज दर तय करने की व्यवस्था, करेंसी विनिमय दर और बैंकिंग प्रणाली को तदर्थवाद से निकालकर पारदर्शी, स्थायी बनाया जो किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था की पहली शर्त है.
राजन आरबीआई के सिर्फ रॉक स्टार गवर्नर ही नहीं, बल्कि कई आर्थिक-मौद्रिक उपायों के अविष्कारक भी हैं. |
वित्तीय बाजारों में राजन की लोकप्रियता के कारणों को समझने के लिए रिजर्व बैंक के कामकाज एक संक्षिप्त परिचय जरुरी है. मोटे तौर पर रिजर्व बैंक चार काम करता है. पहला विदेशी मुद्रा बाजार का प्रबंधन ताकि रुपये की कीमत आयातकों और निर्यातकों दोनों के लिए लाभप्रद रहे. दूसरा बैंकों का चुस्त प्रबंधन क्योंकि बैंक ही बचत, कर्ज और निवेश का स्रोत हैं. तीसरा वह सरकार का मर्चेंट बैंकर है यानी सरकारी कर्ज कार्यक्रम को संचालित करता है और चौथा सबसे महत्वपूर्ण काम महंगाई को देखते हुए बाजार में मुद्रा का प्रवाह तय करना, जिसके जरिये कर्ज ब्याज दरों में घटबढ़ होती है.
इसी एक जून को बाजारों में अफवाह तैरी कि राजन दोबारा गवर्नर नहीं बनना चाहते. रुपया अचानक लडखड़ा गया. रुपये को झटका क्यों लगा? सितंबर 2013 में जब राजन गवर्नर बने तब डॉलर के मुकाबले रुपये में सबसे तेज गिरावट का दौर चल रहा था. लेकिन पिछले तीन वर्षों में डॉलर रुपये केवल औसत 4 फीसदी उतार चढ़ाव हुआ जो उनके पूववर्ती गवर्नरों की तुलना में सबसे कम है.
रुपये की विनिमय दर में निरंतरता भारत के वित्तीय बाजारों को बहुत बड़ी राहत है इसलिए राजन की विदाई के साथ रुपये को लेकर संवेदनशीलता बढ़ना स्वाभाविक है.
बैंकों में एनपीए को लेकर सरकार के सुधारों का इंतजार जारी है लेकिन रिजर्व बैंक ने बैंकों में फंसे हुए कर्ज साफ करने का अभियान संचालित किया जिसमें फंसे हुए कर्जों के बदले बैंक कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) कर रहे हैं. यह अभियान एक साहसी फैसला था जिसने बैंकों को उद्योगपतियों कि खिलाफ सख्ती करने पर बाध्य किया जो कर्ज लेकर बैठे थे. इससे उद्योगों पर दबाव बना और बैंकों को अपने मुनाफे गंवाने पड़े हैं. इस मुहिम के लेकिन असर दिख रहे हैं और एनपीए का संकट सुलझने की उम्मीद बन रही है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि राजन के जाने के बाद यह मुहिम बंद नहीं हो जाएगी. राजन से पहले तक भारत में महंगाई की दर करने का फार्मूला थोक महंगाई को देखकर तय होता था जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है. लोगों के जीवन स्तर की लागत खुदरा महंगाई तय करती है. राजन ने ब्याज दरें तय करने की नीति खुदरा महंगाई से जोड़ दिया, जो ज्यादा पारदर्शी और स्थायी है. यह भारतीय बैंकिंग के इतिहास का सबसे बड़ा सुधार है, जिसने निवेशकों के भरोसे में बढोत्तरी की और ब्याज दरों की प्रणाली को लेकर जोखिम कम कर दिये.
किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों को तय करने का पैमाना पारदर्शी और निरंतरता पूर्ण होना चाहिए क्योंकि वित्तीय दुनिया औचक फैसलों और बेसिर पैर उतार चढ़ाव से बहुत डरती है. राजन का सबसे बड़ा सुधार यही है कि उन्होंने ऐसी मौद्रिक नीति का आविष्कार किया जिसने मुद्रा और वित्तीय बाजार में स्थिरता बहाल की है. एम्बिट कैपिटल की रिपोर्ट के मुताबिक वाई वी रेड्डी (2003-08) दौर में शेयर बाजार में उतार चढ़ाव 61 फीसदी और सुब्बाराव (2008-13) के दौर में 240 फीसदी रहे लेकिन राजन के कार्यकाल में यह अस्थिरता घटकर 34 फीसदी रह गई है.
यह स्थिरता बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ग्लोअबल आर्थिक बदलावों के बीच भारत संवेदनशील बिंदु पर खड़ा है. एक तरफ भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती और भरोसेमंद अर्थव्यैवस्था जो निवेशकों को बुला रही है लेकिन दूसरी तरफ कुछ नाजुक संतुलन हैं जो अंतरराष्ट्रीय कारकों के बदलने से बिगड़ सकते हैं और भारत के आकर्षण को जोखिम में बदल सकते हैं.
अगले दो वर्षों में भारत के लिए चुनौतियों का जो मोर्चा खुलने वाला है उसमें पहली लड़ाई रिजर्व बैंक को लड़नी होगी. कच्चे तेल की बढ़ती कीमत आयात बिल बढ़ायेगी. सितंबर में करीब 20 अरब डालर अनिवासी भारतीय जमा चुकाने होंगे जो बैंकों ने 2013 में उठाये थे जब विदेशी मुद्रा की किल्लत थी. यदि ब्रिटेन यूरोपीय समुदाय से निकलता है तो यूरोपीय मंदी गहरायेगी. इनके बीच अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाने की तैयारी कर रहा है. इन चारों वजहों का असर भारत में वित्तीय निवेश पर होगा. रुपये की कमजोरी व वित्तीय बाजारों में अस्थिरता के तौर पर सामने आ सकता है. ध्यान रखना जरूरी है कि बदलते ग्लोबल माहौल के बीच भारत को निवेशकों का भरोसा बनाये रखने के लिए इसी स्थिरता और निरंतरता की आवश्यकता है. जिसे बनाने में वित्त मंत्रालय से ज्यादा बड़ी भूमिका रिजर्व बैंक की होने वाली है.
संस्थाएं व्यक्तियों से यकीनन, बड़ी होती हैं लेकिन हमने टीएन शेषन के जाने के बाद चुनाव आयोग की ताकत लौटते नहीं देखी और न ही वैसा सीएजी हमें मिला जो विनोद राय के नेतृत्व में था. फिर भी हमें यह भरोसा रखना चाहिए कि नए गवर्नर के नेतृत्व में रिजर्व बैंक पहले जैसा स्वायत्त और ताकतवर बना रहेगा.
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