जान लीजिए, कौन से बैंक सबसे ज्यादा रिस्की हैं
PMC Bank घोटाले और HDFC Bank की पासबुक पर लगी मुहर से कई सवाल उठते हैं, जैसे- रिजर्व बैंक और सरकार ही जब सभी बैंकों की स्थिति पर नियंत्रण करते हैं तो ये बैंक फेल क्यों होते हैं? आखिर बैंकों में अचानक इतनी समस्याएं क्यों नजर आ रही हैं?
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महाराष्ट्र में हुए PMC Bank के घोटाले के बाद बैंकों में रखी हुई रकम की सुरक्षा के बारे में एक बार फिर से चर्चा छिड़ गयी है. क्या वास्तव में लोगों की रकम सुरक्षित है, या यह भी एक जुआ है जिसमें लोग जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हैं. इसी आग में घी का काम किया है HDFC Bank की पासबुक की वायरल तस्वीर ने जिसमें एक मुहर लगी हुई है कि आपके जमा रकम में से सिर्फ एक लाख ही बैंक में सुरक्षित हैं. इसी तस्वीर को लेकर कुछ तत्वों ने यह भी फैलाना शुरू कर दिया है लोगों की रकम प्राइवेट बैंकों में सुरक्षित नहीं है, सिर्फ सरकारी बैंकों में ही सुरक्षित है.
अब सबसे पहले कुछ बातों को स्पष्ट कर लेते हैं. HDFC Bank की पासबुक पर जो मुहर लगी दिख रही है वह सच्चाई है, और वह सभी बैंकों के लिए है. हर बैंक को अपने पासबुक पर वह लिखित में देना चाहिए, यह दीगर बात है कि अधिकांश बैंक यह नहीं लिखते. आपने अपना पैसा चाहे प्राइवेट बैंक में रखा हो या सरकारी बैंक में, आपकी जमा रकम में से सिर्फ एक लाख की रकम का ही इन्श्योरेंस बैंक के पास होता है. अर्थात आपने चाहे बैंक में एक करोड़ रुपया ही क्यों नहीं जमा किया हो, बैंक के फेल होने की स्थिति में बैंक को एक भिन्न संस्था, जिसे डिपॉज़िट इन्श्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन (DICGC) कहते हैं, हर जमाकर्ता को एक लाख रुपये देने को ही बाध्य है. मतलब आपका बाकी का पैसा वापस मिलने की कोई गारंटी नहीं है.
HDFC bank की पासबुक की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है
अब सवाल यह उठता है कि आखिर यह Deposit insurance and credit guarantee corporation क्या है और यह क्या काम करता है. यह भारतीय रिजर्व बैंक की पूर्ण स्वामित्व वाली एक सब्सिडियरी है और हर बैंक इसे हर साल डिपॉज़िट के इन्श्योरेंस के लिए प्रीमियम देता है. फर्ज कीजिये कि आपके एक ही बैंक में कई डिपॉज़िट खाते हैं और सबमें एक-एक लाख रुपया जमा है तो भी यह संस्था सिर्फ आपको एक लाख रुपये की ही भरपाई करेगी.
अब कई सवाल उठते हैं, जैसे कि अगर यह भारतीय रिजर्व बैंक की ही संस्था है तो यह सिर्फ एक लाख की ही भरपाई क्यों करती है, ज्यादा की क्यों नहीं? दूसरा सवाल यह उठता है कि आखिर रिजर्व बैंक और सरकार ही जब सभी बैंकों की स्थिति पर नियंत्रण करते हैं तो ये बैंक फेल क्यों होते हैं? और तीसरा सवाल यह है कि आखिर बैंकों में अचानक इतनी समस्याएं क्यों नजर आ रही हैं? अब इनको क्रमशः एक-एक करके समझते हैं.
DICGC सिर्फ एक लाख की ही भरपाई क्यों करती है?
डिपॉज़िट इन्श्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कार्पोरेशन की स्थापना लगभग 58 साल पहले हुई थी और उस समय के हिसाब से एक लाख की रकम काफी बड़ी रकम मानी जाती थी. समय के साथ इसमें बढ़ोत्तरी की जरूरत थी लेकिन आजतक इसमें कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है. अब इसमें न सिर्फ कई गुना बढ़ोत्तरी की जरूरत है बल्कि इसमें कोई भी लिमिट नहीं होनी चाहिए.
आखिर बैंक फेल क्यों होते हैं?
प्राइवेट बैंक-
सबको यह तो पता ही है कि बैंक लोगों के जमा पैसों को ही दूसरों को ऋण के रूप में बांटते हैं और उससे मिलने वाले मुनाफे से अपना खर्च चलाते हैं. प्राइवेट बैंक कुछ मामलों में अलग होते हैं, उनमें सरकार की पूंजी नहीं लगी होती है इसलिए उनमें सरकार की ज्यादा दखलंदाजी नहीं होती. लेकिन यह बैंक कभी-कभी बड़े कॉर्पोरेट या बड़े जोखिम वाले उद्योगों में ज्यादा दांव लगा देते हैं. और जब ऐसे खाते खराब होते हैं तो बैंक की स्थिति बदतर हो जाती है.
सरकारी बैंक-
सरकारी बैंक की स्थिति कुछ अलग होती है. इनमें सरकार का पैसा लगा होता है इसलिए इनमें सरकार की दखलंदाजी ज्यादा होती है. इन बैंकों के जिम्मे सरकार की सभी योजनाओं को लागू करने का कार्य होता है और बहुत से अनुत्पादक क्षेत्रों में इनको ऋण देना पड़ता है, जो वापस नहीं मिलते. एक उदाहरण आजकल सबके सामने है, सरकार एक आउटरीच कार्यक्रम चला रही है जिसमें सभी सरकारी बैंकों को मेला लगाकर अधिक से अधिक ऋण बांटना पड़ रहा है. अब इस तरह से मेला लगाकर अगर ऋण बांटें जाएंगे जिसमें हर बैंक को अधिक से अधिक संख्या में ऋण बांटने का जबरदस्त दबाव रहता है तो ऐसी स्थिति में इन ऋण खातों की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं होती. ऊपर से राजनेताओं के दबाव में बैंक प्रबंधन ऐसे उद्योगों को बड़ी मात्र में ऋण दे देते हैं जिनकी वापसी के बारे में कोई गारंटी नहीं होती. कोढ़ में खाज यह भी है कि हर चुनाव में पार्टियां ऋण माफी का वादा ऐसे करती हैं कि लोगों के मन में यह बैठ जाता है कि उनको ऋण वापस नहीं करना है. यह सारी परिस्थितियां बैंकों को दिन पर दिन जर्जर करती जा रही हैं और कभी न कभी वह फेल हो जाती हैं.
कोऑपरेटिव बैंक
इसी क्रम में हम कोऑपरेटिव बैंक की बात करें तो यहां पर खतरा सरकारी बैंकों और प्राइवेट बैंकों की तुलना में ज्यादा बढ़ जाता है. दरअसल यह रिजर्व बैंक और कोऑपरेटिव कानून दोनों के द्वारा गवर्न होते हैं. हिन्दुस्तान के ग्रामीण क्षेत्रों के लिहाज़ से सबसे ज्यादा जरूरी यही बैंक हैं. लेकिन इनके मैनेजमेंट में न तो ज्यादा पारदर्शिता है और न ही समस्याओं से निबटने के सही तरीके. ये ज्यादातर छोटे किसानों और मजदूरों की जरूरत पूरी करने के लिए ही उपर्युक्त हैं और इनमें स्थानीय राजनीति का बहुत ज्यादा दखल रहता है. आज की तारीख में बैंकिंग के सामने सबसे बड़े खतरों में एक खतरा “कनसंट्रेशन रिस्क” का है जिसका अर्थ है कि एक ही तरह के उद्योगों को ढेर सारा ऋण दे देना. समझदार बैंकर हमेशा अपने रिस्क को बांटकर चलता है ताकि अगर एक सैक्टर खराब करे तो उसकी भरपाई दूसरे सैक्टर से की जा सके. लेकिन कोऑपरेटिव बैंकों के पास अभी ऐसा मैनेजमेंट नहीं है जो इसे समझ सके और वह किसी एक सैक्टर में ही ज्यादा ऋण देकर फंस जाते हैं. पीएमसी बैंक की समस्या कुछ यही है जिसके चलते आजकल हाहाकार मचा हुआ है.
पीएमसी बैंक कोऑपरेटिव बैंक जो RBI और कोऑपरेटिव कानून दोनों के द्वारा गवर्न है
NBFC(Non-Banking Financial Company)
NBFC की अगर बात करें तो यहां खतरा सबसे ज्यादा बढ़ जाता है. दरअसल यह ऐसी कंपनी होती है जो पूरी तरह बैंकिंग नहीं करती है. यह कंपनी एक्ट में बनती है और यह रिजर्व बैंक द्वारा नियंत्रित भी नहीं होती. जब रिजर्व बैंक द्वारा नियंत्रित बैंकों की स्थिति इतनी बढ़िया नहीं है तो जिनपर उनका नियंत्रण नहीं रहता उसका हाल तो बदतर होगा ही. खैर यहां भी बात वही आती है कि “कनसंट्रेशन रिस्क” यहां भी बहुत ज्यादा होता है और जैसे ही उस सैक्टर में, जिसमें इन कंपनियों ने ज्यादा एक्सपोजर लिया होता है, दिक्कत आती है, इनकी हालत खराब हो जाती है. इनके यहां एक और समस्या होती है और वह है “एसेट और लाईबिलिटी” का मिसमैच. इसे हम ऐसे समझ सकते हैं, एक एनबीएफसी किसी से 1 साल के लिए फंड लेती है लेकिन उससे वह 5 साल का ऋण दे देती है. ऐसे में भुगतान और वसूली का मिसमैच पैदा हो जाता है और इसके चलते यह कंपनियां डिफॉल्ट करने लगती हैं.
बैंकों में अचानक इतनी समस्याएं क्यों नजर आ रही हैं?
बैंकों में बढ़ती समस्याएं अचानक नहीं आई हैं, यह समय के साथ-साथ बढ़ती गयी हैं. सरकार को पैसे चाहिए और उसका सबसे बड़ा तरीका विनिवेश ही नजर आ रहा है. आजकल रोज ही कुछ सरकारी या अर्धसरकारी संस्थाओं को प्राइवेट सैक्टर में देने की बात चल रही है और इसके दो फायदे हैं. एक तो सरकार को तुरंत पैसा मिल जा रहा है और दूसरा वह अपनी चहेती प्राइवेट कंपनी को मौका दे दे रही है कि वह एक बढ़िया सरकारी कंपनी को खरीद ले और अगले चुनाव में उसको भरपूर चंदा दे. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नेता और नौकरशाह मिलकर आम आदमियों की गाढ़ी कमाई से खेल रहे हैं और लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है.
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