हम मंदी को बढ़ाने के रास्ते पर हैं
अब स्थिति यह है कि जो भी आदमी बैंकों से हजार-दो हजार रुपये निकाल पा रहा है, वह उन्हें खर्च करने के बजाय अपने पास रखने की कोशिश कर रहा है जिससे बाजार में खरीद-फरोख्त सामान्य की तरफ नहीं लौट रही है.
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कितने पुराने नोट बैंकों में जमा हो चुके हैं और कितने बाकी हैं, इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे. आदमी की लाचारगी, बेइज्जती और जीडीपी में हुए नुकसान के आंकड़े भी छोडिए. मौजूदा आर्थिक सामाजिक हालात में बार-बार उस अफवाह की कामयाबी पर ध्यान जाता है, जिसने कहीं-कहीं नमक 400 रु. किलो तक बिकवा दिया था. नमक जैसी चीज, जिसे पहले दुकानदार दुकान के बाहर रखते थे, जो आज भी परचून की दुकान पर सबसे सस्ती चीज है और जिसका कोई जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर ही नहीं सकता, आखिर उसको लेकर अफवाह कैसे फैल गई? नमक जैसी चीज की होर्डिंग हो गई तो इसका सीधा मतलब है कि सरकार और अर्थतंत्र पर लोगों का भरोसा डिगा हुआ है. इस घटना के बाद कोई भी सरकार ऐसे कदम उठाती जिससे निजाम में लोगों को भरोसा बहाल हो.
लेकिन हुआ उलटा. सरकार ने एक दिन खुद ही सोना रखने पर पाबंदी लगाने की खबर प्लांट करा दी. दो दिन इसको लेकर सुगबुगाहट रहने दी और फिर कहा कि ऐसा कुछ नहीं है. पिछले 20 दिन से दिन में कम से कम दो बार नोट निकालने के नियम सामने आते हैं और तकरीबन हर बार वे नियम बैंकों में या तो अमल में लाए नहीं जाते या अमल में लाने लायक नहीं होते. और अंत में अब सरकार कालाधन सफेद करने की एक और माफी योजना लेकर आ गई. अब यह समझ नहीं आ रहा कि कालेधन वालों को माफ ही करना था, तो नोटबंदी की क्या जरूरत थी? इन सारी चीजों का कोलाज बनाएं तो दिमाग का दही हो जाता है. आम आदमी को हर आर्थिक कदम से डर लग रहा है.
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खर्च करने से डर रहा है आम आदमी |
अर्थतंत्र की भाषा में कहें तो डरा हुआ आदमी खर्च कम करता है और छुपाता ज्यादा है. समाज में अपनी साख खोने और डर बनाने वाले ऐसे कदम उठाकर सरकार ने मंदी के अंदेशे को कई गुना बढ़ा दिया है. सवाल उठेगा कैसे...? तो जवाब है कि अगर आज तक वही बातें चलती रहतीं जो प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर के भाषण में कहीं थीं, तो लोगों की तकलीफें तो कम नहीं होतीं और बेमौत मरने वाले मर ही जाते, लेकिन जिंदा बचे लोगों को भरोसा रहता कि 30 दिसंबर के बाद हालात कैसे होंगे? लेकिन अब स्थिति यह है कि जो भी आदमी बैंकों से हजार-दो हजार रुपये निकाल पा रहा है, वह उन्हें खर्च करने के बजाय अपने पास रखने की कोशिश कर रहा है. इससे हो यह रहा है कि पहले से ही रिजर्व में चल रही नोटों की गाड़ी में जो नोट आ रहे हैं, वे भी अर्थव्यवस्था के नए ईंधन का काम नहीं कर पा रहे हैं. यानी बाजार में खरीद-फरोख्त सामान्य की तरफ नहीं लौट रही है.
दूसरी स्थिति यह बन रही है कि सरकार नोट खत्म करने के बावजूद कालेधन के नाम पर इंस्पेक्टर राज का डर दिखा रही है. इससे होगा यह कि जब चार-पांच महीने बाद बाजार में नोट उपलब्ध हो जाएंगे, तब भी लोग इन नोटों को कारोबार में लगाने से डरेंगे. बहुत से लोगों का पैसा मुकदमेबाजी में फंस जाएगा, जिसका उपयोग न सरकार कर पाएगी और न खाताधारक. उधर, जन-धन खातों या दूसरे बचत खातों में जमा पैसे को लेकर भी हल्ला मचा हुआ है. इससे बेईमान खाताधारक तो खाते से दूर रहेगा ही, ईमानदार खाताधारक भी सहमा रहेगा. इन हालात में असंगठित क्षेत्र से मजदूरों की छंटनियों की दर बढ़ जाएगी और देश की 80 फीसदी आबादी को सीधे गिरफ्त में लेगी. और इस संकट के बाकी 20 फीसदी तक पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. लोगों के इस डर से मंदी लंबी खिंचेगी.
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सरकार चाहे तो इन हालात से बच सकती है. नोटबंदी से जो तात्कालिक मंदी आनी है वह तो आएगी ही, लेकिन दूरगामी तकलीफें कम की जा सकती हैं. सरकार हर आदमी को डराने के बजाय कालेधन के बड़े आसामियों पर हाथ डालने की बात एकदम साफ कर दे और रोज-रोज फैलने वाली अफवाहों को दबा दे. सरकार को अगले छह महीने के लिए अपने मौद्रिक कदमों को साफ कर देना चाहिए और उनमें कोई हेर-फेर नहीं करना चाहिए. यह सब करने का एक ही तरीका है कि प्रधानमंत्री किसी आधिकारिक प्लेटफार्म से अगले छह महीने की नीति की घोषणा करें. यह काम अब वित्त मंत्री और सचिवों के स्तर से नहीं हो सकता. ये लोग इतनी घोषणाएं कर चुके हैं कि लोग उन पर भरोसा न करने की आदल डाल चुके हैं. बेहतर होगा प्रधानमंत्री संसद में यह काम करें और सबसे अच्छा होगा कि भाषण के बजाय किसी लिखित दस्तावेज से यह काम करें, ताकि भावनाओं की जगह नीतिगत पहलू सामने आएं. अगर ये काम जल्दी नहीं हुए तो देश मंदी और बेरोजगारी की महामारी के मुहाने पर खड़ा ही है.
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