व्यंग्य: "अपनी जिंदगी में मैंने बहुत रेप देखे हैं... "
"जो लिखा है वही तो पढ़ा मैंने," लड़के ने दबी जबान में सफाई दी. कोई ये मानने को तैयार ही नहीं था वो शब्द अध्यक्ष जी से ही छूट गया. खैर, बीच बचाव और डांट फटकार के बाद बचा हिस्सा पढ़ा जाने लगा.
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सीन - 1
ऑपरेटर ने सभी थानों को फोन लगाया और बोलता गया, "होल्ड करो, टेलीकॉन्फ्रेंसिंग है. सरजी सबसे बात करेंगे." फौरन बात कराने का फरमान था, इसलिए उसे इस बात की भी परवाह नहीं रही कि दूसरी ओर कोई सुन भी रहा है या नहीं. देखते ही देखते सूबे के सारे पुलिस स्टेशन के फोन उसके हिसाब से कनेक्ट थे.
"हेलो..."
"जी, साब..." एक साथ सैकड़ों आवाजें गूंजी.
"मेई बात सुनो. ध्यान से सुनना. ऐप से जुआ कोई भी केस हो तो हमसे पूछे बिना मुकद्दमा नईं होगा. समझ गए ना..." फोन लाइन में गड़बड़ी के चलते आवाज भी साफ नहीं आ रही थी.
"जी, साब..." फिर से एक साथ सैकड़ों आवाजें गूंजी.
"अच्छा... बैठ जाओ, काम करो." और फोन कट गया. सरजी को पक्का यकीन था कि पुलिसवाले कुर्सी से उठे बिना और बगैर सैल्युट की मुद्रा में रिस्पॉन्ड कर ही नहीं सकते.
एक थाने के मुंशी ने अभी फोन रखा था कि एसएचओ की एंट्री हुई. "सरजी का फोन था," उसने आगे बताया, "वो एंड्रॉयड ऐप से जुड़ी कोई बात है, ऐसा केस आने पर इत्तला करने को कहा है."
बड़े साहब मुस्कुराए तो नए रंगरूट को लगा कुछ गड़बड़ है. फिर बोले, "ऐप नहीं, रेप. कोई भी रेप केस आए तो फौरन इत्तला करना." साहब मुस्कुराते हुए हवालात की ओर बढ़ गए.
सीन - 2
उसने सुन रखा था कि पुलिस में रेप की शिकायत दर्ज कराना और फिर रेपिस्ट को सजा दिलवाना ऐसा संघर्ष है कि कदम कदम पर लगेगा कि उसके साथ बार बार रेप हो रहा है. मेडिकल मुआयना, जरूरी हुआ तो टू-फिंगर टेस्ट, शिनाख्त परेड और फिर कोर्ट में जिरह. पहले तो महिला थाने जाने को तैयार न थी, पर आस-पड़ोस वाले उसे जबरन ले गए. थाने से उसे सरजी के पास लाया गया था.
सरजी का दरबार लगा हुआ था. आगे आगे महिला पुलिस अफसर - और उसके पीछे एक और महिला दाखिल हुई.
सरजी ने पूछा, "कितने आदमी थे?"
कांपती आवाज में पीड़ित बोली, "तीन. तीन... सरजी."
"ठीक है, ठीक है... पूरा बताओ... कैसे..."
सरजी महिला को घूरे जा रहे थे. टॉप टू टो. साथ में दिमाग में लाई डिटेक्टर टेस्ट भी चल रहा था, "झूठ तो नहीं बोल रही. मामला सही लगता है." कार्यकर्ताओं पर क्रोध भी बढ़ा जा रहा था. "ये स्सा**... हमको प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे."
"तीन... तीन. नहीं, चार. चार... सरजी..." घबराहट में जो बन पड़ा महिला बोली.
बात सुनते ही सरजी गुस्से से आग बबूला हो गए. महिला का स्टेटमेंट उनके अन्वेषण से मैच कर ही नहीं रहा था.
"चोप्प... हम नहीं मानते... "
"जी." और वो खामोश हो गई. पुलिस अफसरनी भी चुपचाप. बोलती भी क्या?
सरजी का क्रोध बढ़ता जा रहा था. कार्यकर्ता और करीबी पुलिसवाले समझ गए. डॉक्टर ने क्रोध से बचने की सलाह दी है. अभी अभी तो अस्पताल से लौटे हैं. यही सब सोचकर कुछ पुलिसवाले आगे बढ़े, "चलो, चलो. निकलो. बाद में देखेंगे. अभी सरजी का मूड ठीक नहीं है."
दोनों धीरे से रुखसत हो लिए. और कोई चारा भी नहीं था.
सीन - 3
सूबे में बढ़ते रेप के मामलों को लेकर कुछ प्रो-सरकार स्वयंसेवी संगठनों ने एक सेमिनार का आयोजन किया. सेमिनार में कई एक्सपर्ट, पुलिस अफसर और पॉलिटिशियन बुलाए गए थे. सेमिनार में एक मंत्री चीफ गेस्ट थे जबकि सरजी अध्यक्षता कर रहे थे.
मनोवैज्ञनिकों, मनोचिकित्सकों, मानवविज्ञानियों और समाजशास्त्रियों ने अपने अपने तरीके से रेप के कारणों और निवारण के उपायों पर प्रकाश डाला. फिर मुख्य अतिथि महोदय को बुलाया गया.
मुख्य अतिथि ने रेप से जुड़े अपने कई संस्मरण सुनाए. कुछ देशी कुछ विदेशी. फिर बोले, "ये रेप कभी कभी गलत होता है, कभी कभी सही होता है." इस बात पर ज्यादातर लोग हैरान थे, लेकिन उनके समर्थकों ने खूब ताली बजाई.
फिर एक महिला नेता को बुलाया गया. उन्होंने लड़कियों को जींस न पहनने से लेकर ज्यादा एडवेंचरस न होने जैसी तमाम नसीहतें दीं. "अब वो मुंबई का केस ही लीजिए... उन लड़कों ने..."
अध्यक्ष जी से रहा न गया. बीच में ही उनकी बात काट दी, "अब इसमें लड़के कहां से आ गए. लड़कों का क्या बात है. लड़के हैं, कभी कभी गलती हो जाती है... तो क्या फांसी पर... " इतना बोलते बोलते अध्यक्ष जी को खूब जोर से खांसी आने लगी.
अध्यक्ष जी के इस व्यवहार पर महिला नेता को गुस्सा आ गया और वो मंच छोड़ कर चली गईं. वो आखिरी वक्ता थीं. अब अध्यक्ष जी की बारी थी.
खांसी थमने का नाम नहीं ले रही थी. फिर उन्होंने एक कागज पर नोट लिख कर दे दिया. मंच पर एक शख्स अध्यक्ष जी के नोट के साथ खड़ा हुआ और पढ़ने लगा.
"मैं सबकी बात गौर से सुन रहा था. किसी ने कोई काम की बात नहीं बताई. सब वही पुरानी बातें कर रहे थे. सभी के विचार एकतरफा थे. सब के सब सिर्फ महिलाओं की बात कर रहे थे. मर्दों की बात कौन करेगा? बताओ? बताओ भला?"
इस पर अध्यक्ष जी के समर्थकों ने उनके नाम पर और शायद मर्दों वाली बात पर ताली बजा दी. ताली थमी तो भाषण फिर से शुरू हुआ.
"अभी मेरे सामने एक केस आया. एक महिला थी. उसका कहना था कि चार लोगों ने उसके साथ रेप किया. उसकी बात सुन कर मेरा माथा ठनका. बल्कि, सुन कर, कुछ देर के लिए तो मेरी तबीयत भी खराब हो गई."
फिर ताली बजी. कुछ देर के लिए फिर भाषण रोकना पड़ा.
"अपनी जिंदगी में मैने बहुत रेप देखे हैं... " लगा, भाषण पढ़ते वक्त एक शब्द 'केसेज' छूट गया. अर्थ का अनर्थ. हंसी फूट पड़ी. कुछ लोगों ने किसी तरह रोक ली. असर ये हुआ कि अध्यक्षजी की खांसी भी रुक गई. गुस्से से अध्यक्ष जी फिर से आग बबूला हो चुके थे.
"जो लिखा है वही तो पढ़ा मैंने," लड़के ने दबी जबान में सफाई दी. कोई ये मानने को तैयार ही नहीं था वो शब्द अध्यक्ष जी से ही छूट गया. खैर, बीच बचाव और डांट फटकार के बाद बचा हिस्सा पढ़ा जाने लगा.
"अब बताओ, एक महिला के साथ चार लोग रेप कैसे कर सकते है, भला? समझनेवाली बात है. अरे, पहले तो, पहला इतना टाइम लेगा कि दूसरे की बारी आते आते काफी देर हो जाएगी. दूसरे को पहले का इंतजार करना पड़ेगा. तब तक क्या उसके अंदर कोई हरकत नहीं होगी क्या? फिर? फिर, तीसरे और चौथे का नंबर आते आते वे किसी लायक बचेंगे क्या? बताओ भला?"
भाषण खत्म होते ही एक बार फिर पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. नई शोध के लिए कई लोग अध्यक्ष जी को बधाई देने लगे, "क्या मार्के की बात कही है, आपने!" वाकई, मानना पड़ेगा. अनुभव बोलता है. कई बार गलतियों पर भी शक की गुंजाइश कम ही बचती है.
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