बिकाऊ विधायकों को मिले IPLनीलामी जैसा मौका, तय हो बेस प्राइस
कर्नाटक के सियासी घमासान को देखकर लग रहा है कि राजनीति में, विशेषकर भारत की राजनीति में, नैतिकता की बात करना अपने आप में एक मूर्खता भरा कृत्य है.
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कर्नाटक में आखिर ऐसा क्या हो गया जो आसमां सिर पर उठा रखा है? हंगामा क्यूं है बरपा जो थोड़े से विधायक ही तो टूटने हैं. टूट भी पाएंगे या नहीं ये तो ऊपर वाला जाने. अब राजनीति तो की ही सत्ता पाने के लिए जाती है. जनसेवा, नैतिकता जैसी मोटी मोटी बातें अब किताबों तक ही सीमित रखनी चाहिए, व्यावहारिक राजनीति में ऐसे शब्द बोलने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए. कोई नैतिकता का हवाला देना चाहे तो झट से विपक्षी खेमे के अतीत से जुड़े उदाहरण देकर उसका मुंह बंद करा देना ही श्रेयस्कर है.
कहने को ही ये अच्छा लगता है कि देश में कोई भी चुनाव लड़ सकता है. ये भी सुनने को मिल जाता है कि ईमानदार लोग राजनीति में आना पसंद नहीं करते. वे आएं भी तो आएं कैसे?चुनाव पर खर्च होने वाला पैसा जुटाना क्या बाबाजी का खेल है? एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक के हालिया विधानसभा चुनाव में चुनकर आए 221 विधायकों में से 97% करोड़पति हैं.
कर्नाटक में जिस तरह सत्ता का मखौल उड़ाया गया वो लोकतंत्र के लिहाज से गहरी चिंता का विषय है
ये रिपोर्ट विधायकों की ओर से नामांकन के वक्त दिए हलफनामों में दी गई जानकारी के आधार पर ही तैयार की गई है. यानी चुनाव जीतने का माद्दा उसी में है जिसकी अंटी में माल है. अब कोई मोटा इंवेस्ट करके माननीय विधायक बना है तो चोखे रिटर्न की उम्मीद तो रखेगा ही. इसका सबूत भी एडीआर की रिपोर्ट से ही मिलता है. इसके मुताबिक कर्नाटक में बीते एक दशक में हुए तीन विधानसभा चुनावों में चुनकर आए विधायकों की संपत्ति में औसतन 25.33 करोड़ का इजाफा हुआ है.
अब चुनाव और सत्ता विशुद्ध अंकगणित बन कर ही रह गए हैं. 'जो मारे वो मीर' की तर्ज पर जो नंबर जुटा ले वही सिकंदर. क्या हुआ अगर जनादेश में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. जन की भागीदारी उसी दिन खत्म हो जाती है जिस दिन नतीजे आ जाते हैं. जनादेश किसी भी पार्टी के पक्ष में साफ ना आए तो असली खेल नतीजों के बाद शुरू होता है. विधायकों की खरीद-फरोख्त रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून है.
किसी पार्टी में दो तिहाई विधायकों के अलग होने पर ही उस पार्टी में विभाजन को मान्यता मिल सकती है. लेकिन अब दलबदल विरोधी कानून को ही ठेंगा दिखाते हुए दूसरे पक्ष के विधायकों को अपने साथ मिलाने के लिए तरह तरह के जुगाड़ ढूंढ लिए गए हैं. जैसे कि सदन में बहुमत साबित करते वक्त अनुपस्थित रहना या अपनी पार्टी व्ह्पि के विरोध में जाकर दूसरे पक्ष को वोट देना.
जैसे जैसे समय बीत रहा है कर्नाटक का महासंग्राम दिलचस्प होता जा रहा है
ऐसा करने पर विधायकी जाने का खतरा होता है. लेकिन उसकी परवाह कौन करता है. नकद पैसा, मंत्री पद समेत तमाम तरह के लालच दिए जाते है कि किसी ना किसी नए चुनकर आए विधायक या विधायकों की जीभ लपक ही जाती है. फिर क्या किया जाए दल बदल पर काबू पाने के लिए, विधायकों की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए. देश के हालिया चुनावी इतिहास में कई चुनावों में ऐसी स्थिति बनी कि सांसदों या विधायकों की खरीदफरोख्त के आरोप लगे. अब ऐसी स्थिति को नहीं रोका जा सक रहा तो क्यों नहीं इसे ही मान्यता दे दी जाए. वैसे ही क्रिकेट पर सट्टा लगाना हमारे देश में अपराध है लेकिन कई देशों में इसे सरकार की ओर से ही मान्यता प्राप्त है.
चुनाव आयोग को चाहिए कि जिस तरह उसने चुनाव में उम्मीदवारों के लिए अधिकतम चुनावी खर्च की सीमा बांध रखी है उसी तरह चुनाव उपरांत त्रिशंकु सदन आने की स्थिति में चुन कर आए जन प्रतिनिधियों में से जो बिकना चाहते हैं, उनकी अधिकतम खरीद राशि भी तय कर दे. इसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का भी नाम दिया जा सकता है. जैसे हर साल फसलों का MSP किसान की लागत में आई बढ़ोतरी के मद्देनजर बढाया जाता है, ऐसे ही हर चुनाव में बिकाऊ जनप्रतिनिधियों का भी MSP बढ़ाया जाए. आखिर उनकी भी तो हर चुनाव में खर्च पर लागत बढ़ जाती है.
कह स्सकते हैं कि कर्नाटक में सत्ता का संघर्ष रोचक होने वाला है
इसके लिए एक और तरीका भी अपनाया जा सकता है, जिस तरह इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) के लिए क्रिकेट खिलाड़ियों का ऑक्शन होता है वैसे ही चुनाव के बाद ‘बिकाऊ जनप्रतिनिधियों’ को भी ऑक्शन में तय बेस प्राइस के साथ हिस्सा लेने की अनुमति दी जाए. सब कुछ साफ सुथरे और पारदर्शी ढंग से, किसी को फाउल चिल्लाने का मौका ही ना मिले.
जिस तरह देश में हर चुनाव के बाद रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का बोलबाला बढ़ता दिख रहा है, ऐसे में प्राइवेट सिक्योरिटी मुहैया कराने वाले कारोबार के फलने फूलने की भी बड़ी संभावनाएं हैं. अभी पार्टियों को अपने विधायकों के कुनबे को जोड़े रखने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है कि कहीं विरोधी खेमे की गिद्ध दृष्टि उनके किसी विधायक को ना ले उड़े. ऐसे में हर पार्टी अपने विधायकों को संभाले रखने के लिए देसी-विदेशी सिक्योरिटी कंपनियों की सेवाएं ले सकती हैं.
इसके बावजूद कोई विधायक पार्टी से गद्दारी करने में कामयाब हो जाता है तो फिर वो पार्टी संबंधित सिक्योरिटी कंपनी से कॉन्ट्रेक्ट की पूर्व निर्धारित शर्तों के मुताबिक मोटा हर्जाना वसूल सके. विधायकों को पार्टी के साथ सुरक्षित रखने में बीमा कंपनियों के लिए भी बड़ी संभावनाएं हो सकती हैं. नैतिकता को ताक पर रख कर हर उलटे सुलटे काम को ही राजनीति की नीति माना जाने लगा है तो फिर Amy Tan ने क्या खूब कहा है... ”If you can’t change your fate, change your attitude.” (अगर आप अपना भाग्य नहीं बदल सकते, अपना रवैया बदल दो).
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