गंगा-जमनी तहजीब तो तब लगे जब मुसलमान भी काली पोस्टर से आहत हों!
रसूल कंट्रोवर्सी पर आहत मुसलमान याद रखें कि वो फिल्म वाले जो आज मां काली को सिगरेट पीते और LGBTQ का झंडा पकड़े दिखा रहे हैं, कल को वही रसूल की शान में भी गुस्ताखी कर सकते हैं. हो सकता है कल कोई फिल्म डायरेक्टर आए जो रसूल या फिर सहाबा को सिगरेट पीते और LGBTQ का झंडा पकड़े दिखा दे.
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कवि की उस कल्पना, जिसमें कहा गया है कि, ऐ शेख़ तू तेरा देख. उसका ये मतलब हरगिज नहीं है कि रसूल की शान बचाने के लिए पत्थरबाजी करने और गला काटने को आमादा मुसलमान फिल्ममेकर लीना मनिमेकलाई और काली पोस्टर विवाद पर चुप रहें. या फिर इतने गंभीर मसले को सिरे से नजरअंदाज कर दे. हमें इस बात को समझना होगा कि, आज के जटिल माहौल में, ईमानदारी का तकाज़ा यही है कि, रसूल को लेकर नूपुर शर्मा के बयान से बहुत आहत मुसलमान काली पोस्टर कंट्रोवर्सी और इस विवाद की जनक लीना मनिमेकलाई को मुद्दा बनाए. और उतनी ही शिद्दत से प्रदर्शन करें.
काली पोस्टर विवाद में देश के मुसलमानों को भी प्रदर्शन के लिए सड़कों पर आना और विरोध करना चाहिए
इस मैटर के लिए मुसलमानों को सड़कों पर निकल आना चाहिए. हिंसा का मार्ग न अपनाते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन और अगर जरूरत पड़ जाए तो आमरण अनशन करना चाहिए. हो सकता है इन बातों को पढ़ने के बाद पीएफआई जैसे इस्लाम के ठेकेदार अपनी भौं चढ़ा लें और सवाल करें कि मुसलमान ऐसा क्यों करें?
तो भइया बात बस इतनी है कि आराध्य किसी का भी हो, धर्मं कोई भी हो, किसी को कोई अधिकार नहीं है कि धर्म, धार्मिक प्रतीकों या देवी देवताओं का मजाक उड़ाए. रसूल कंट्रोवर्सी पर आहत मुसलमान याद रखें कि वो फिल्म वाले जो आज मां काली को सिगरेट पीते और LGBTQ का झंडा पकड़े दिखा रहे हैं कल की डेट में वही फ़िल्म वाले रसूल की शान में भी गुस्ताखी कर सकते हैं.
हो सकता है कल कोई फिल्म डायरेक्टर आए जो रसूल या फिर सहाबा को सिगरेट पीते और LGBTQ का झंडा पकड़े दिखा दे. खुद सोचिये यदि किसी ने ऐसा कर दिया तो क्या होगा? कल्पना कीजिये उस लम्हें की? क्या तब इतना ही सन्नाटा रहेगा? क्या तब भी मुसलमान आज की ही तरह चुप्पी साधे रहेंगे? जवाब है नहीं. तब जो मंजर होगा उसकी कल्पना मात्र ही रौंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है.
मित्रों, मेरे प्यारे नबी के दुलारे मुसलमानों. काली विवाद बहुत सीरियस मैटर है. हिंदू हो या मुस्लिम, सब को खुल कर इसका विरोध करना ही चाहिए. बाकी हमें पूरा यकीन इस बात का है कि जो चिरांद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हवाले से आजकल चल रही है वो दिन दूर नहीं जब कोई वामपंथी फिल्म डायरेक्टर आएगा और रसूल या किसी सहाबा पर अपनी समझ के हिसाब से फिल्म बना देगा.
चूंकि जागरूकता ही बचाव है इसलिए जिस तरह देश की हिंदू आबादी मां काली के लिए सड़कों पर है, ठीक उसी तरह मुसलमानों को भी सड़क पर आना चाहिए. यदि मुसलमान ऐसा कर ले गया तो ही गंगा-जमुनी तहजीब वाली बात सही साबित होगी. वरना उसे बेमतलब के प्रोपोगेंडा से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जाएगा.
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