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Updated: 20 सितम्बर, 2022 08:20 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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बताओ भला महारानी के अंतिम संस्कार में इत्ते दिन लग गए. हमारे में होता तो सब निपटकर चूल्‍हा चढ़ गया होता. मतलब ऐसे समझिये कि अगर महारानी मुसलमान होतीं तो मौलाना साहब तीजा करवा चुके होते और वहां परोसे गए खाने को लेकर जनता जनार्दन के ओपिनियन आने शुरू हो जाते.

...भीगी आंखों और रुंधे गले से मिसेज अंसारी मिसेज सिद्दीकी से कहतीं - बाजी बाकी सब तो ठीक था. इंतेजाम भी अच्छा है. लेकिन इतनी बड़ी महारानी थीं और कोरमा चिकेन का...? अल्लाह मियां! मैं तो मटन का सोच के आई थी.

वहीं मिसेज सिद्दीकी कहती - हां सही कह रही हो बहन... लेकिन कुछ कहो सही किया चार्ल्स भाईजान ने. माहौल देख रही हो आजकल का. अभी प्रोग्राम में चार लोग आते फिर मटन को बीफ़ बनते देर न लगती. थाना, पुलिस, कोर्ट कचहरी, लैब टेस्टिंग और फिर मीडिया का नंगा नाच. है कि नहीं. अच्छा हां... रोटी देखी थी तुमने? इतनी चिमड़ी. मुझे लग रहा पैसे बचाने के लिए आटे की जगह मैदा का इस्तेमाल हुआ.

Queen Elizabeth, England, Death, Mortuary, Conversation, Muslim, Society, Hinduअगर महारानी मुसलमान होतीं तो उनके मृत्युभोज में जो बातें होतीं वो किसी भी समझदार इंसान को हैरत में डाल देतीं

उधर मर्दों में अलग ही ड्रामा चल रहा होता. खान साहब अल्वी साहब से बिरयानी की एक्सपर्टीज बता रहे होते और कहते - देखिए भाईसाहब ... पहले तो ये कि बोटियां कच्ची थीं, ऊपर से चावल टूटे हुए थे.... मुझे तो शक तभी हो गया था जब बावर्ची ने बिरयानी की देग को दम देने के लिए कोयले पर रखा था.

मैंने पूछा था उससे - कहने लगा अरे चार्ल्स सर को सब पता है. बाद बाकी ये है कि बिरयानी में बासमती की जगह जब काला नमक चावल डलवाएंगे तो क्या ख़ाक बिरयानी खिली खिली होगी?

वहीं अल्वी साहब की सुई रायते पर अटकी होती. कहते - खान साहब चाहे बोटियां थोड़ी बहुत कच्ची हों. बिरयानी के चावल टूटे हों लेकिन अगर रायता अच्छा बना हो तो कमियां छिपाई जा सकती थीं. अब आप ही बताइए क्या ही फायदा हुआ इनका रॉयल फैमिली का होने से? मुए रायता तो अच्छा बनवा न पाए!

मौके पर आब्दी साहब को पकड़े रिज़वी साहब की गुफ्तगू कुछ अलग होती. वहां ज़ेर ए बहस मुद्दा मीठा और आइस क्रीम रहते.

शायद आब्दी साहब नफ़रत भरी निगाह से पंजीरी को देखते हुए रिज़वी साहब से कहते कि - भाईसाहब माना देश के हर दूसरे आदमी को डायबिटीज है. आदमी शक्कर से छिप रहा है लेकिन इसका मतलब ये थोड़ी है कि मीठे के नाम पर पंजीरी थमा दी जाए. अरे हम ये थोड़े ही कह रहे हैं कि मरने के खाने में रसमलाई, जलेबी या रसगुल्ला करो लेकिन जब मीठा बन ही रहा था तो कम मीठी खीर ही करवा देते.

हो ये भी सकता था कि रिज़वी साहब अपने आब्दी साहब की आंखों में आंखें डालकर लहजे में सहमति भर, सहमत दद्दा कहते और बच्चों का हवाला देकर ये तक कह देते कि - अरे साहब सितम्बर की ये उमस भरी गर्मी! मौके पर बच्चे भी हैं क्या ही खजाना कम हो जाता तो बच्चों के लिए वनीला या स्ट्रॉबेरी में आइस क्रीम करवा दी जाती? क्या बच्चे इसके लिए महारानी को दुआ न देते? हो सकता है आइस क्रीम खाते बच्चों की दुआ से ही महारानी को जन्नत में जगह मिल जाती.

बहरहाल, ये बातें हैं बातों का क्या? बातें हर बार होती हैं. हर जगह होती हैं. बर्थडे में होती हैं. शादी-ब्याह-बारातों में होती हैं और मरने पर भी होती हैं. आज आदमी कुछ भी हो संतोषी नहीं है. काश आज का आदमी संतोषी होता. ख़ुद सोचिये एक तो आदमी किसी अपने को खोने के बाद यूं ही टूट जाता है ऊपर से मृत्युभोज का खर्च! कह सकते हैं कि मृत्युभोज चाहे वो मुसलमानों में हो या हिन्दुओं में , ये प्रथा आर्थिक रूप से इंसान को तोड़ कर रख देती है.

उपरोक्त जो लफ्फाजी आपने अलग अलग पात्रों के जरिये सुनी वो हमारे समाज की तल्ख़ हकीकत है. वाक़ई ये बात समझ से परे है कि ये क्या ही समाज है जो मृत्युभोज के बाद इंसान की हैसियत का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाता है कि जिस जगह वो मृत्युभोज खाने गया है वहां उसे क्या क्या आइटम और उसकी कितनी वेराइटी परोसी गयी. 

हम फिर इस बात को कहेंगे कि चाहे वो क्वीन एलिज़ाबेथ का मृत्युभोज हो या हमारे आपके घर का  अगर इतना सब करने के बावजूद लोगों को शिकायत रहे तो कहा यही जाएगा कि - बेचारा मुर्गा तो अपनी जान से गया और खाने वाले को मजा भी नहीं आया! 

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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