रेलवे के सारे कीर्तिमान एक ट्रेन के नीचे आकर क्षत-विक्षत
बस्ती स्टेशन पर एक वैगन का साढ़े तीन साल बाद आना खुद-ब-खुद हमें ये बताने के लिए काफी है कि हमारे सिस्टम में जंग लग चुका है जिसे रेलवे लगातार ढकने का काम कर रही है.
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ट्रेन कितनी लेट हो सकती है. 5 घंटे. 6 घंटे. 7 घंटे. 11 घंटे. 12 घंटे कुछ ज्यादा ही देर हुई तो निरस्त. तनाव से लबरेज बेशर्मी भरे जीवन में लेट से निरस्त तक का सफर हम भारतीयों के लिए आम है. मगर खबर तो भइया तब है जब मामला साढ़े तीन साल पुराना हो. भारतीय रेलवे चर्चा में है मगर शर्म है जो इनको आती नहीं. इस बात को यूपी के एक स्टेशन पर हुई घटना से समझिये. घटना ने पूरे सिस्टम के मुहं पर कालिख पोट दी है और उसे सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है. बात बस इतनी थी कि उत्तर मध्य रेलवे के बस्ती स्टेशन पर विशाखापट्टनम से बुक हुआ एक वैगन तो पहुंचा मगर उसे आते आते साढ़े तीन साल लग गए.
बस्ती स्टेशन पर एक वैगन का साढ़े तीन साल बाद आना हमें हमारे सिस्टम के बारे में बता देता है
जी हां, यूपी के बस्ती जिले के खाद व्यवसाई रामचंद्र गुप्ता ने इंडियन पोटास कम्पनी के जरिए 2014 में विशाखापट्टनम से खाद लाने के लिए मालगाड़ी का वैगन बुक करवाया था. जिसकी कीमत तकरीबन 10 लाख रुपये थी. जब एक जमाने बाद भी वैगन बस्ती नहीं आया तो व्यापारी ने रेलवे अधिकारियों के पास भागदौड़ शुरू की. उसने अपने जिले बस्ती से लेकर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और विशाखापट्टनम तक चिट्ठी पतरी भेजी. दुनिया जहान के चक्कर लगाए मगर नतीजा सिफर ही निकला. हर बार उसे कोरे आश्वासन मिलते और ये कहकर घर भेज दिया जाता कि "आ जाएगा"
अब जबकि साढ़े तीन साल बाद 107462 नंबर का वैगन बस्ती पहुंच चुका है और उसमें रखी खाद खराब हो चुकी हैं ये पूरा मामला बता देता है कि हमारा सिस्टम किस हद तक आराम तलबी का शिकार और निकम्मा है.
विशाखापट्टनम से बस्ती की दूरी 1400 किलोमीटर है. यानी अगर मालगाड़ी का ड्राइवर हर स्टेशन पर रुकते रुकाते चाय नाश्ता करते बस्ती पहुंचे तो भी उसे 3 दिन से ऊपर नहीं लगता. मगर ड्राइवर साहब ने साढ़े तीन साल लिए. ड्राइवर साहब ने इतना समय लिया. लाजमी है वजह हमारा सिस्टम है. वो सिस्टम जिसे दीमक तो बहुत पहले लग चुका था मगर इस खबर के बाद वो ढह गया है. सिस्टम के ढहने के बाद अधिकारी कुछ भी तर्क दे सकते हैं. हंस के सहना हमारी आदत है. भले ही कोसते हुए मगर हम उनकी बात मान लेंगे और ये खबर इतिहास में कहीं दब के रह जाएगी.
रेलवे ने साढ़े तीन साल पहले बुक किया था माल ये बताती रसीद
एक ऐसे वक़्त में जब रेलवे लगातार ये कह रहा हो कि अगर यात्री के पास 35 किलो से ऊपर सामान हो तो वो उसे बुक करा कर ले जाए. हमारे फौलादी इरादों को तोड़ के चकनाचूर कर देता है. दिल चाहता है कि हम रेलवे की बात पर यकीन करें मगर इस खबर के बाद दिमाग सुन्न पड़ गया है जो चींख-चींख के कह रहा है "न! बिल्कुल नहीं भले ही कुली को सौ पचास देकर समान पूरी बोगी में डलवा दो मगर ऐसी गलती बिल्कुल न करना पूरा चांस के कि अगर उस बुक हुए माल में बीवी का कुछ सामान हुआ तो तलाक हो जाएगा".
वैगन साढ़े तीन साल बाद आया है. मैं ही नहीं पूरा देश इस खबर से विचलित हो सकता है. कहना गलत नहीं है ये खबर ऐसी है जिसके बाद हम सब का न सिर्फ रेलवे से बल्कि इंसानियत नाम की चीज से भरोसा उठ चुका है. इस खबर के बाद कुछ बातें खुद ब खुद हमारे सामने आ गयीं हैं. हमें एहसास हो गया है कि आखिर क्यों कैग की रिपोर्ट में रेलवे ने अपने निकम्मेपन को छुपाया है और अपने आपको बड़े से बड़े न्यूज चैनल से भी तेज दिखाया है.
जिनको माजरा पता है अच्छी बात है जो नहीं जानते वो सुन लें. कैग को उत्तर प्रदेश में पहले से चल रहीं चार बुलेट ट्रेनों का पता चला है. ये असली बुलेट ट्रेनें नहीं हैं, बल्कि भारतीय रेलवे द्वारा दस्तावेजों में की गई गलतियों का नतीजा हैं. कैग ने जब रेलवे के दस्तावेजों की ऑडिटिंग की तो पता चला कि तीन ट्रेनों-प्रयाग राज एक्सप्रेस, जयपुर-इलाहाबाद एक्सप्रेस और नई दिल्ली-इलाहाबाद दुरंतो एक्सप्रेस- से जुड़ीं जानकारियों में बड़ी गड़बड़ है. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक इससे रेलवे के डेटा की देखरेख करने की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं.
सवाल ये है कि दुरंतो के विषय में रेलवे ने झूठ क्यों बोला
पूरी खबर अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से है. वेबसाइट के मुताबिक ये गलत एंट्री इंटीग्रेटिड कोचिंग मैनेजमेंट सिस्टम (आईसीएमएस) में डाल दी गईं. आपको बताते चलें कि आईसीएमएस ट्रेनों की आवाजाही केएक्चुअल टाइम के डेटा पर नजर रखने के लिए जिम्मेदार है साथ ही यही डेटा नेशनल ट्रेन इंक्वायरी सिस्टम पर भी दिखाई देता है. जाहिर है जब एंट्री ऐसी होगी तो यात्रियों का कष्ट उठाना लाजमी है. पूरे मामले पर कैग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि, '2016-17 के दौरान तीन ट्रेनें क्रमशः 354, 343 और 144 दिन चलीं. इस दौरान (25, 29 और 31 दिनों के लिए) उन्होंने फतेहपुर से इलाहाबाद के बीच 116 किलोमीटर का रास्ता तय करने में 53 मिनट से कम समय लिया.'
गड़बड़ी कहां हुई इसे ऐसे समझिये. किसी भी ट्रेन को फतेहपुर और इलाहाबाद की दूरी तय करने में 53 मिनट का समय लगता है और इस दौरान 130 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से ट्रेन चलाने की इजाजत होती है. लेकिन कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि, '9 जुलाई, 2016 को इलाहाबाद दुरंतो एक्सप्रेस सुबह 5.53 बजे फतेहपुर पहुंची और 6.10 बजे इलाहाबाद पहुंच गई. इससे पता चलता है कि 409 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से 116 किलोमीटर की दूरी 17 मिनट में पूरी हो गई.'
ऐसे ही 10 अप्रैल, 2017 को जयपुर-इलाहाबाद एक्सप्रेस सुबह 5.31 बजे इलाहाबाद पहुंची और 5.56 बजे फतेहपुर पहुंच गई. इस मामले में सबसे मजेदार बात ये है कि उसी दिन ट्रेनों के अराइवल और डिपारचर के लिए बनाए गए टेबल में इस ट्रेन का आगमन 36 मिनट देर से बताया गया था. 7 मार्च, 2017 को प्रयाग राज एक्सप्रेस के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ. उस दिन ट्रेन सुबह 6.50 पर इलाहाबाद पहुंची थी, जबकि रिकॉर्ड के मुताबिक ट्रेन सुबेदारगंज स्टेशन से 7.45 बजे निकली थी जो इलाहाबाद से पहले पड़ता है.
दोनों ही मामलों को देखकर हमारे लिए ये कहना गलत नहीं है कि जो वैगन साढ़े तीन साल बाद विशाखापट्टनम से चलकर बस्ती पहुंचा वो हकीकत है और भारतीय ट्रेनों का समय पर चलना, निर्धारित स्पीड से दोगुनी स्पीड पर चलना, बुलेट ट्रेन बनना फसाना है. हमारी और हमारी सरकार कि बेहतरी इसी में है कि हम फसाने के मुकाबले हकीकत पर फोकस करें और ये मान लें जब निजाम लचर हो तो ऐसी छोटी मोटी भूल होना एक बेहद साधारण सी बात है.
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