दवा के बारे में हिदायतें गले क्यों नहीं उतरती हैं...
विशेषज्ञों ने हल्के बुखार के मामलों में बिना परामर्श के अत्यधिक दवा लेने वाले लोगों के बारे में अपनी चिंता साझा की है। अब इन एक्सपर्ट्स को कौन समझाए कि बात बेबात दवा लेना और उसे खाना हम मिडिल क्लास भारतीयों के संस्कारों में है.
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दवा को लेकर हिदायतें आखिर गले क्यों नहीं उतरती हैं? मतलब पता है कि वैक्सीन से कोरोना वायरस का खतरा टाला जा सकता है. लेकिन कहीं कुछ उल्टा सीधा सुन लिया. फिर नहीं लगवानी वैक्सीन तो नहीं लगवानी. अब कोई आए और कुछ कर ले. यही हाल दवा को लेकर है. भले ही नीम हकीम खतरा ए जान वाले टॉपिकों पर कक्षा 8 से बाहरवीं तक कॉपी पर कॉपी भरी हो लेकिन इंसान असली रंग तब दिखाता है जब वो खुद बीमार पड़ता है. पता चला कि सर्दी हुई, फिर खांसी आई और उसमें भी बलगम आया पहुंच गए मेडिकल स्टोर और ले ली दवा. अच्छा मजेदार ये कि कोई चाहे लाख इन दवाओं और मेडिकल स्टोर वाले भइया कीआलोचना हो जाए इनसे मिली दवा की एक खुराक रामबाण का काम करती है और बीमारी छू-मंतर...
हमें ये अपने संस्कारों में मिला है कि जैसे ही बुखार आए गोली खा लो आराम मिल जाएगा
सत्यानाश हो CMC लुधियाना के उन हेल्थ एक्सपर्ट्स का जिन्हें हमारी बात बेबात दवा लेने की आदत अखर गयी है. मुए कह रहे हैं कि बुखार हो तो जितना ही सके गोली खा लेने से दूर रहना चाहिए. बताइये भला! ये भी कोई बात हुई? अरे भइया कुछ हो और कुछ न भी हो तो दवा खा लेना हमारा मूलभूत अधिकार है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या राय के नाम पर हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन किया जा रहा है?
बाकी बता ये भी है कि कौन कम्बख्त शौक शौक में दवा लेने मेडिकल स्टोर जाता है. हम तो बस इसलिए जाते हैं कि जो काम दस या पांच रुपए में हो जाए उसके लिए कुर्सी पर आला लगाकर बैठे डॉक्टर को कौन 500 -1000 की फीस दे. क्या हमें दवाओं से दूर करने वाले CMC लुधियाना के हेल्थ एक्सपर्ट्स बरसों पुरानी उस बात को भूल गए जिसमें किसी संत महात्मा ने सवाल किया था कि, महंगाई के इस दौर में करना पड़ता है अपने खर्चों पर काबू. डॉक्टर की फीस, तमाम तरह के चेक-अप की कीमत तुम क्या जानों स्वघोषित हेल्थ एक्सपर्ट बाबू ?
देखो भइया मैटर ये है कि हम बखूबी इस बात को जानते और समझते हैं कि मौसम में बदलाव से फ्लू और बुखार जैसी मौसमी बीमारियों में वृद्धि देखी जा सकती है.ऐसे में सही बात तो यही है कि कुछ बड़ा हो उससे पहले हमें डॉक्टर के पास जाना चाहिए. फीस देने के बाद पर्चा बनवाना चाहिए और उसे अपना हाल बताते हुए सही इलाज करवाना चाहिए लेकिन एक तो महंगाई की मार ऊपर से समय की कमी हममें से चंद ही लोग होंगे जो इतना टाइम निकाल पाएं.
ऐसे में मेडिकल स्टोर जाना ही सबसे कारगर विकल्प है. मतलब क्या ही बुराई है कि कोई आदमी मेडिकल स्टोर वाले के पास जाए उसके हाथों में 10 का नॉट पकड़ाए, 20 रुपए पेटीएम या गूगल पे करे और मांग ले वो दवा जो पलक झपकते ही बुखार से निजात दे दे. आंखों का पानी सुखा दे. बंद नाक खोल दे. आप बताइये कि 10-20 रुपए देकर मेडिकल स्टोर वाले से हम जो डिमांड कर सकते हैं क्या वही डिमांड हम उस डॉक्टर से कर सकते हैं जिसे हमने इलाज के लिए 500 या 1000 रुपए फीस के नाम पर दिए हैं?
दवाओं के प्रति हमारा मोह कैसा है इसकी बहुत ज्यादा विवेचना करने की तो जरूरत है ही नहीं. किसी भी मिडिल क्लास के घर चले जाइये उसके घर के एक कोने में दवाई वाला डिब्बा जरूर होता है जिसमें वो तमाम दवाएं होती हैं जो काम की होती हैं. मतलब लोगों का तो दवाओं को लेकर रुख कुछ ऐसा है कि पेट में गैस हुई तो हरी वाली गोली (पुदीन हरा) सिर दर्द, बुखार हुआ तो बड़ी वाली सफ़ेद गोली (पैरासीटामॉल ) कहीं पर कट छिल गया तो छोटी वाली सफ़ेद गोली (सेप्टॉन) दस्त हुए तो भूरी गोली (इंटोक्यूनॉल ) खासी के लिए कोई और रंग की टिकिया.
ऐसे लोगों से जब किडनी का हवाला देकर हेल्थ एक्सपर्ट्स द्वारा ये कहा जाए कि गोली बीमारी भगाने का सही और कारगर तरीका नहीं है. तो यकीन जानिये दिल धक् से रह जाता है. एक टीस होती है और उस पीड़ा को शब्दों में न तो बांधा जा सकता है और न ही परिभाषित किया जा सकता है. दो चार दवाएं हर डैम अपने पास रखना हमारे मूल, स्वाभाव में है. दौर कोई भी हो किसी की कही सुनी से इंसान अपना मूल स्वाभाव ही बदल दे ये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
अंत में दवाओं और उनके प्रभाव पर शोध करने वाले सीएमसी लुधियाना के डॉक्टर एरिक विलियम्स को हम बस एक शेर सुनाएंगे और अपनी बता ख़त्म खत्म करेंगे. शेर कुछ यूं है कि
मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी, उसी रौशनी से है ज़िन्दगी
मुझे डर है अये मेरे चारागर, ये चराग़ तू ही बुझा न दें.
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दें..
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