फ़िल्में किचन में नहीं बनतीं. अगर बनाई जातीं तो शायद उनकी तय रेसिपी होती. मुगल-ए-आजम एक बार बनी. शोले भी एक ही बार बनी. या ऐसी और भी उल्लेखनीय फ़िल्में. हालांकि फिल्मों की सफलता से प्रेरित होकर ना जाने कितने निर्माताओं ने पैसा कमाने के लिए वैसी ही फिल्मों को बनाने के असफल जतन किए. यहां तक कि वे निर्माता-निर्देशक भी कामयाब फिल्मों को दोहराने में विफल रहे जिन्होंने पूर्व में करिश्मे से हैरान कर दिया था. अभिषेक बच्चन की बॉब बिस्वास एक फ़ॉर्मूले पर पुरानी सफलता दोहराने के क्रम में हुई बड़ी दुर्घटना भर है. वैसे तो फिल्म 2012 में आई "कहानी" की स्पिन ऑफ़ ड्रामा है, पर दुर्भाग्य से इसमें रत्तीभर भी कहानी जैसी बात नहीं.
सुजॉय घोष एंड टीम ने दूसरी बार कहानी को दोहराने का प्रयास किया. 2016 में भी विद्या बालन के साथ कहानी 2 बनाई गई जो नाकाम रही. फ़ॉर्मूला कहीं और थोड़ा बहुत चल भी सकता है. मगर थ्रिलर में उसकी गुंजाइश नहीं. सुजॉय अब कहानी जैसी फिल्म नहीं दे सकते. अन्नपूर्णा घोष के निर्देशन में बनी बॉब बिस्वास की सबसे बड़ी खामी भी यही है कि इसकी पटकथा पर काम "कहानी" की जमीन पर खड़े होकर किया गया. ठीक है- आपने एक दिलचस्प कैरेक्टर को विस्तार दिया. ज्यादा बेहतर होता कि बॉब बिस्वास को नए नजरिए से लिखते. अगर फिल्म किसी पर केंद्रित है तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि किरदार को परंपरागत अच्छाई के चादर में लपेट दिया जाए. सुजॉय ने बॉब बिस्वास पर नैतिकता का जामा डालकर उसकी हत्या की है.
बॉब बुरा है तो है. अब अगर डर और बाजीगर में भी शाहरुख खान के किरदार को नैतिकता के जामे में लपेटकर हृदयपरिवर्तन करा दिया गया होता तो तय मानिए- किंग खान आज की तारीख में बॉलीवुड के बादशाह नहीं होते. रमन राघव...
फ़िल्में किचन में नहीं बनतीं. अगर बनाई जातीं तो शायद उनकी तय रेसिपी होती. मुगल-ए-आजम एक बार बनी. शोले भी एक ही बार बनी. या ऐसी और भी उल्लेखनीय फ़िल्में. हालांकि फिल्मों की सफलता से प्रेरित होकर ना जाने कितने निर्माताओं ने पैसा कमाने के लिए वैसी ही फिल्मों को बनाने के असफल जतन किए. यहां तक कि वे निर्माता-निर्देशक भी कामयाब फिल्मों को दोहराने में विफल रहे जिन्होंने पूर्व में करिश्मे से हैरान कर दिया था. अभिषेक बच्चन की बॉब बिस्वास एक फ़ॉर्मूले पर पुरानी सफलता दोहराने के क्रम में हुई बड़ी दुर्घटना भर है. वैसे तो फिल्म 2012 में आई "कहानी" की स्पिन ऑफ़ ड्रामा है, पर दुर्भाग्य से इसमें रत्तीभर भी कहानी जैसी बात नहीं.
सुजॉय घोष एंड टीम ने दूसरी बार कहानी को दोहराने का प्रयास किया. 2016 में भी विद्या बालन के साथ कहानी 2 बनाई गई जो नाकाम रही. फ़ॉर्मूला कहीं और थोड़ा बहुत चल भी सकता है. मगर थ्रिलर में उसकी गुंजाइश नहीं. सुजॉय अब कहानी जैसी फिल्म नहीं दे सकते. अन्नपूर्णा घोष के निर्देशन में बनी बॉब बिस्वास की सबसे बड़ी खामी भी यही है कि इसकी पटकथा पर काम "कहानी" की जमीन पर खड़े होकर किया गया. ठीक है- आपने एक दिलचस्प कैरेक्टर को विस्तार दिया. ज्यादा बेहतर होता कि बॉब बिस्वास को नए नजरिए से लिखते. अगर फिल्म किसी पर केंद्रित है तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि किरदार को परंपरागत अच्छाई के चादर में लपेट दिया जाए. सुजॉय ने बॉब बिस्वास पर नैतिकता का जामा डालकर उसकी हत्या की है.
बॉब बुरा है तो है. अब अगर डर और बाजीगर में भी शाहरुख खान के किरदार को नैतिकता के जामे में लपेटकर हृदयपरिवर्तन करा दिया गया होता तो तय मानिए- किंग खान आज की तारीख में बॉलीवुड के बादशाह नहीं होते. रमन राघव 2.0 का रमन्ना अपनी खामियों की वजह से ही हमें अच्छा लगता है. बॉब अच्छा आदमी है या बुरा आदमी- सुजॉय को चाहिए था कि उनके लिखे में यह तय करने का अधिकार दर्शकों पर छोड़ा जाता ना कि खुद बॉब पर. बॉब क्या कर रहा है- अच्छा आदमी बनने की कोशिश. और उसे अच्छा बनाने के लिए स्टोरी में ना जाने पंचर हो गए. दर्शक ग्रे शेड किरदारों को भी प्यार करते हैं. पता नहीं क्यों सुजॉय यह बात याद रखना भूल गए.
चूंकि बॉब बिस्वास लिखते वक्त सुजॉय के दिमाग में "कहानी" की गहरी पैठ थी तो जो चीजें बॉब बिस्वास की स्टोरी-स्क्रीनप्ले में जुड़ती गईं वो जबरदस्ती का स्टेब्लिशमेंट साबित हुईं. नतीजे में फिल्म शुरुआती मिनटों में ही पटरी से उतर जाती है. अब जब मामला बेपटरी है तो तमाम कोशिशों का रिटर्न क्या ही निकलेगा? आप टीवी पर फिल्म तो देख रहे हैं मगर वाट्सऐप, इन्स्टाग्राम और फेसबुक पर भी बने हुए हैं. फिल्म चल रही है- आप लिविंग रूम, किचन और बाथरूम हर जगह घूम रहे हैं. फोन पर भी बात कर ले रहे हैं. मगर फिल्म देखते हुए पॉज बटन दबाने की जरूरत महसूस नहीं होती. अगर कोई दर्शक बॉब बिस्वास देखते हुए ये सब चीजें कर रहा है तो फिल्म की कमजोर ग्रिप के बारे में और कहने को बचा ही क्या. अच्छा लगने ना लगने का सवाल तो बाद में आता है.
फ़िल्म देखने को लेकर हर दर्शक का अपना अपना माइंडसेट होता है. किसी को फिल्म अच्छी लगती है, बहुत अच्छी लगती है और खराब लगती है. अगर आप यह पढ़ते हुए मेरी राय से बॉब बिस्वास देखने का मन बना रहे तो मैं किस तरह का दर्शक हूं- बताता चलूं. मुझे कोई फिल्म खराब नहीं लगती. हो सकता है मुझे अक्सर देखने के लिए फ़िल्में चाहिए तो मैं अपना काम चला लेता हूं उनसे. मुझे आज तक एक भी फिल्म इतनी खराब नहीं लगी कि बीच में छोड़ने का मन हुआ हुआ हो. सालों पहले मैंने जीवन में सिर्फ एक फिल्म अधूरी छोड़ी थी. सलमान खान की वीर. मुझे नहीं मालूम कि इंटरवल के बाद वीर में आखिर क्या हुआ था? बेशक कोई बताना चाहे तो यहां कमेन्ट इंटरवल के बाद वीर की कहानी साझा कर दे.
जहां तक बात बॉब बिस्वास की है- यह फिल्म मुझे वीर से कई सौ गुना बेहतर फिल्म लगी. लगातार देखते हुए ख़त्म किया. लेकिन देखा तो वाट्सऐप-फेसबुक के साथ. वैसे भी मामला जब पटकथा में तगड़ी खामी का हो तो बाकी चीजों का मतलब नहीं रह जाता. फिर भी बॉब बिस्वास में कास्टिंग और कलाकारों का काम बढ़िया है. चूंकि बॉब बिस्वास, कहानी है ही नहीं तो शाश्वत चटर्जी के किरदार से अभिषेक की तुलना करना ठीक नहीं. अभिषेक ने पूरी इमानदारी से अपना काम किया है.
अगर दूसरी चीजें बेहतर होती तो शायद बॉब बिस्वास के लिए उन्हें सालों याद किया जाता. जैसे वे गुरु और युवा के लिए याद किए जाते हैं. चित्रांगदा सिंह, धोनू के रूप में पवित्र राबा, काली दा के रूप में परन बंदोपाध्याय और मिनी के रूप में समारा तिजोरी सभी का काम बढ़िया है. अन्य कलाकारों का भी, जिनका यहां जिक्र नहीं किया जा रहा. कैमरा की नजर ठीक है. बॉब बिस्वास के लिहाज से कोलकाता जिस तरह दिखाना था करीब-करीब वैसा ही है. नकली बुनावट नहीं है. लाइट भी बेहतर है हालांकि यहां उसका यहां बहुत काम नहीं था.
अगर कोई ओटीटी दर्शक है, खासकर जी5 का- तो निश्चित ही बॉब बिस्वास उसके लिए अच्छी फिल्म है. जी5 पर हाल फिलहाल बॉब बिस्वास से कोई बेहतर कंटेंट नहीं दिखा है. सब्सक्रिप्शन है तो देखने में बुराई नहीं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.