और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द...अरे! यह तो ईमानदार फिल्म का तड़प भरा प्रेम गीत है, सुरेश वाडकर का गाया हुआ... यह वृंदावन के किसी संत का रिंग बैक टोन? नहीं नहीं, एकाध नंबर कहीं गलत दब गया दिखता है...‘‘राधे-राधे’’ आंय! ये तो अनंत दास जी की ही आवाज है. ‘‘महाराज जी, आपके मोबाइल की रिंग बैक टोन... सिर्फ शब्दों पर मत जाइए, उसका भाव भी तो देखिए. संत-महात्माओं को इससे क्या लेना-देना कि गाना लैला के लिए लिखा गया है या रांझा के लिए. हमारे भाव के अनुकूल जो चीज जहां से मिल जाती है, हम ले लेते हैं.’’ अपनी किसी भी बात को पुख्ता करने के लिए वे उसके माकूल बैठते, किसी फिल्म के बोल नट-बोल्ट की तरह ठोक देते हैं. लता मंगेशकर, मो. रफी, मुकेश और रवींद्र जैन उनके पसंदीदा गायक हैं.
अनंत दास कभी कोई पूजा-पाठ नहीं करते, कोई मंत्र नहीं पढ़ते लेकिन उन्हें ठाकुर जी की एक स्तुति बहुत पसंद है: मैं जिस दिन भुला दूं तेरा प्यार दिल से, वो दिन आखिरी हो मेरी जिंदगी का...जी हां. पुलिस पब्लिक फिल्म के अमित कुमार और लता मंगेशकर के गाए इस गहरे रूमानी गाने को वे स्तुति के रूप में लेते हैं. यह उन्हें पूरा याद है. रामकथा गायक मोरारी बापू की संगत में बैठने पर वे खुद उन्हें गाकर सुनाते हैं: तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूं ही मस्त नगमे लुटाता रहूं. बापू की आंखों के लिए उनका गाना है: जीवन से भरी तेरी आंखें मजबूर करें जीने के लिए...
संत अनंत दास धर्म और अध्यात्म की दुनिया में एक पहेली की तरह हैं. उनकी उम्र होगी यही कोई 50 के आसपास. ‘आखिर कितनी?’ वे अपनी निजी जिंदगी से जुड़े किसी भी सवाल के जवाब में सिर्फ हंस देते हैं. दुस्साहस करके आप दोबारा पूछ बैठें तो वे साफ-साफ कह देते हैं कि छोडि़ए इन बातों को. कहां पैदा हुए, कैसे धर्म की ओर रुझान हुआ, वृंदावन कैसे पहुंच गए? ऐसे सवालों का कोई फायदा नहीं. और फिल्मी गानों का शौक? ‘‘ये तो बचपन से ई है.’’ अपनी कहानी बस वे अपने गुरु...
और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द...अरे! यह तो ईमानदार फिल्म का तड़प भरा प्रेम गीत है, सुरेश वाडकर का गाया हुआ... यह वृंदावन के किसी संत का रिंग बैक टोन? नहीं नहीं, एकाध नंबर कहीं गलत दब गया दिखता है...‘‘राधे-राधे’’ आंय! ये तो अनंत दास जी की ही आवाज है. ‘‘महाराज जी, आपके मोबाइल की रिंग बैक टोन... सिर्फ शब्दों पर मत जाइए, उसका भाव भी तो देखिए. संत-महात्माओं को इससे क्या लेना-देना कि गाना लैला के लिए लिखा गया है या रांझा के लिए. हमारे भाव के अनुकूल जो चीज जहां से मिल जाती है, हम ले लेते हैं.’’ अपनी किसी भी बात को पुख्ता करने के लिए वे उसके माकूल बैठते, किसी फिल्म के बोल नट-बोल्ट की तरह ठोक देते हैं. लता मंगेशकर, मो. रफी, मुकेश और रवींद्र जैन उनके पसंदीदा गायक हैं.
अनंत दास कभी कोई पूजा-पाठ नहीं करते, कोई मंत्र नहीं पढ़ते लेकिन उन्हें ठाकुर जी की एक स्तुति बहुत पसंद है: मैं जिस दिन भुला दूं तेरा प्यार दिल से, वो दिन आखिरी हो मेरी जिंदगी का...जी हां. पुलिस पब्लिक फिल्म के अमित कुमार और लता मंगेशकर के गाए इस गहरे रूमानी गाने को वे स्तुति के रूप में लेते हैं. यह उन्हें पूरा याद है. रामकथा गायक मोरारी बापू की संगत में बैठने पर वे खुद उन्हें गाकर सुनाते हैं: तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूं ही मस्त नगमे लुटाता रहूं. बापू की आंखों के लिए उनका गाना है: जीवन से भरी तेरी आंखें मजबूर करें जीने के लिए...
संत अनंत दास धर्म और अध्यात्म की दुनिया में एक पहेली की तरह हैं. उनकी उम्र होगी यही कोई 50 के आसपास. ‘आखिर कितनी?’ वे अपनी निजी जिंदगी से जुड़े किसी भी सवाल के जवाब में सिर्फ हंस देते हैं. दुस्साहस करके आप दोबारा पूछ बैठें तो वे साफ-साफ कह देते हैं कि छोडि़ए इन बातों को. कहां पैदा हुए, कैसे धर्म की ओर रुझान हुआ, वृंदावन कैसे पहुंच गए? ऐसे सवालों का कोई फायदा नहीं. और फिल्मी गानों का शौक? ‘‘ये तो बचपन से ई है.’’ अपनी कहानी बस वे अपने गुरु वैष्णव संत वैष्णव दास जी महाराज से शुरू करते हैं. वे उनकी सेवा में रहते थे. लेकिन तीसेक साल पहले गुरु का परलोकगमन हुआ तो अनंत दास का उस दुनिया से भी जैसे जी भर गया. वे याद करते हैं: ‘‘उन्हें (गुरु को) मैं भगवान मानता था. उसके बाद तो दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा, बरबादी की तरफ मुझे मोड़ा.’’ उसके बाद तो वे ऐसा बाहर निकले कि फिर कहीं रुकना नहीं हुआ. अब वे किसी भी शहर/स्थान पर 24 घंटे से ज्यादा नहीं रुकते.
बाबा अनंत दास फोटो: राजवंत रावत |
अब यहीं उनकी जिंदगी का एक दूसरा अजूबा बल्कि कहें कि रहस्यमय पहलू आकर जुड़ता है. नए संकल्प के बाद वे 4-5 साधुओं के साथ ट्रेन से मथुरा से भोपाल जा रहे थे. रास्ते में किसी ने महात्माओं को डांटना शुरू कर दिया: ‘बिना टिकट चल देते हो, कहीं भी बैठ लेते हो. हटो उधर!’ साथ चल रहे अनंत दास ने उसी समय तय कर लिया कि अब ट्रेन से यात्रा नहीं करेंगे. उसके बाद तो उन्होंने जो गगन मार्ग का रुख किया कि आज तक करीब-करीब हर दूसरे दिन हवाई अड्डे पर ही नजर आते हैं. आज कोलकाता, कल बेंगलूरू, परसों दिल्ली. जहां जहाज नहीं जाते, वहां किसी ‘स्नेही, प्रियजन’ की उपलब्ध कराई कार से आगे बढ़ते हैं. और हवाई सफर में देश की नहीं, दुनिया का कोई महाद्वीप नहीं छोड़ा. उनके पासपोर्ट पर अब तक दुनिया भर के हवाई अड्डों से करीब 600 बार आने-जाने की मोहर लग चुकी है. पिछले अप्रैल में उन्होंने अकेले लंदन की यही कोई सौवीं यात्रा की. वहां तो एक बार हीथ्रो हवाई अड्डे पर आव्रजन वालों ने पूछ ही लिया कि वे किसी खुफिया महकमे के तो नहीं हैं? लेकिन उन्हें कभी कहीं पर रोका नहीं गया. अभी वे म्यांमार से लौटे हैं और अगले हफ्ते थाइलैंड जाना है. ज्यादातर यात्राएं उनकी जेट एअरवेज से होती हैं. दूसरे देशों में जाकर वे करते क्या हैं? ‘‘किसी स्नेही के यहां जाता हूं, रोटी खाकर फिर दूसरे सहर को चल देता हूं.’’
स्नेही जनों के यहां रोटी खाने के लिए दुनिया का कोना-कोना छान मारा है अनंत दास ने. पर उसके लिए इतना घूमना क्यों? वे कहते हैं, ‘‘ऊपर वाला यह सब मुझसे क्यों करवा रहा है? जब तक यह सिलसिला चल रहा है, बस चल रहा है.’’ धर्म क्षेत्र के कुछ लोगों ने उन्हें जेट बाबा, उड़ता हुआ बाबा और स्मालिंग बाबा जैसे खिताब भी दे रखे हैं. लेकिन हवाई जहाज का किराया? यह फिर वैसा ही सवाल है, जिसका जवाब वे इतना ही देते हैं कि बस चल रहा है. ‘‘प्रेम रखने वाले कुछ लोग हैं.’’ इससे ज्यादा कुछ नहीं.
अनंत दास की आंतरिक साधना मजबूत दिखती है. उनके ऊपर किसी मौसम का कोई असर नहीं पड़ता. कपड़े के नाम पर उनके पास बिना सिला हुआ सिर्फ एक मोटा-सा सफेद अंगवस्त्र है. जहां भी जाते हैं, रात को धोकर उसे सुखा देते हैं. साथ में रखा गमछा, जिसे संतों की भाषा में कोपिन कहा जाता है, उसे धारण कर लेते हैं. सुबह फिर पहनकर प्रस्थान. धन-संपत्ति की तो बात ही नहीं, उनके पास सामान के नाम पर बस एक सफेद झोला है, जिसमें वे गमछा, वृंदावन का बना एक आधार कार्ड, मंजन, जहाज में खाने के बाद मिलने मिसरी-सौंफ के पैकेट, कुछ चॉकलेट और हां पासपोर्ट और वीजा. पासपोर्ट की भर चुकी छह बुकलेट उन्होंने एक साथ नत्थी करवा रखी हैं. ज्ञान वे न तो किसी से लेते हैं और न ही किसी को देते हैं. दूध रोटी उनका पसंदीदा भोजन है. कोई पैसे देने लगे तो कह देते हैं कि रहने दीजिए, बेकार जाएगा.
तो आखिर कब रुकेगी उनकी यह अनवरत हवाई यात्रा. अनंत दास थोड़ा रुकते हैं, मुस्कराते हैं, फिर कहते हैं, ‘‘मुझे खुद पता नहीं. ऊपरवाला ई जानै.’’ इसके बाद एक बार फिर वे दिल्ली हवाई अड्डे की ओर रुख कर लेते हैं. कई बार तो वे हवाई अड्डे पहुंचने के बाद तय करते हैं कि आज जाना कहां है. अनंत दास क्यों न पैदा करें जिज्ञासाएं अनंत!!!
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