जयराम ठाकुर की जिंदगी में 2017 जिस रूप में दर्ज हुआ, ऐसा कई नेताओं के साथ हुआ. जयराम ठाकुर की ही तरह इस साल बीजेपी ने सबको चौंकाते हुए योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम बनाया था - और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का भी नाम बतौर उम्मीदवार तकरीबन वैसे ही सामने आया. जिस तरह नीतीश कुमार ने बिहार में राजनीतिक पैंतरेबाजी दिखायी, तमिलनाडु में ओ पन्नीरसेल्वम वैसे ही उल्टे-पुल्टे हालात के शिकार हुए - जब किस्मत ने छकाया भी उतना ही जितना साथ दिया. ऐसे कई दिलचस्प वाकये हैं जिन्हें ये नेता ताउम्र यादों की अलमारी में सहेज कर जरूर रखेंगे -
जयराम ठाकुर
तय तो ये था कि प्रेम कुमार धूमल हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन लगता है छींका जयराम ठाकुर से भाग्य से टूट गया - धूमल चुनाव हार गये. वैसे चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने जब धूमल को बीजेपी का सीएम कैंडिडेट घोषित किया, लगे हाथ ये भी बता दिया था कि जयराम ठाकुर को भी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी. उसके बाद एक कार्यक्रम में ऐसा हुआ जिसमें अगर कोई राजनीति नहीं है तो महज संयोग ही कह सकते हैं. जब लोगों ने कहा कि वे उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, तो जयराम ठाकुर के मुहं से निकला - 'तो थोड़ा सा धक्का और दीजिए...'
जयराम ठाकुर को बस एक ही बात का अफसोस है - 'अगर पिता साथ होते तो बहुत खुशी होती.' साल भर पहले जयराम ठाकुर कि पिता का निधन हो गया था. उनकी मां हैं, लेकिन अस्वस्थ होने के चलते घर से ही आशीर्वाद दिया है.
योगी आदित्यनाथ
यूपी चुनावों से पहले और नतीजों के बाद तक छिटपुट चर्चाओं और अटकलों को छोड़कर योगी आदित्यनाथ का नाम कभी सीएम की रेस में नहीं रहा. अचानक फोन गया और उन्हें दिल्ली बुलाया गया. उन्हें लाने...
जयराम ठाकुर की जिंदगी में 2017 जिस रूप में दर्ज हुआ, ऐसा कई नेताओं के साथ हुआ. जयराम ठाकुर की ही तरह इस साल बीजेपी ने सबको चौंकाते हुए योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम बनाया था - और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का भी नाम बतौर उम्मीदवार तकरीबन वैसे ही सामने आया. जिस तरह नीतीश कुमार ने बिहार में राजनीतिक पैंतरेबाजी दिखायी, तमिलनाडु में ओ पन्नीरसेल्वम वैसे ही उल्टे-पुल्टे हालात के शिकार हुए - जब किस्मत ने छकाया भी उतना ही जितना साथ दिया. ऐसे कई दिलचस्प वाकये हैं जिन्हें ये नेता ताउम्र यादों की अलमारी में सहेज कर जरूर रखेंगे -
जयराम ठाकुर
तय तो ये था कि प्रेम कुमार धूमल हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन लगता है छींका जयराम ठाकुर से भाग्य से टूट गया - धूमल चुनाव हार गये. वैसे चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने जब धूमल को बीजेपी का सीएम कैंडिडेट घोषित किया, लगे हाथ ये भी बता दिया था कि जयराम ठाकुर को भी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी. उसके बाद एक कार्यक्रम में ऐसा हुआ जिसमें अगर कोई राजनीति नहीं है तो महज संयोग ही कह सकते हैं. जब लोगों ने कहा कि वे उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, तो जयराम ठाकुर के मुहं से निकला - 'तो थोड़ा सा धक्का और दीजिए...'
जयराम ठाकुर को बस एक ही बात का अफसोस है - 'अगर पिता साथ होते तो बहुत खुशी होती.' साल भर पहले जयराम ठाकुर कि पिता का निधन हो गया था. उनकी मां हैं, लेकिन अस्वस्थ होने के चलते घर से ही आशीर्वाद दिया है.
योगी आदित्यनाथ
यूपी चुनावों से पहले और नतीजों के बाद तक छिटपुट चर्चाओं और अटकलों को छोड़कर योगी आदित्यनाथ का नाम कभी सीएम की रेस में नहीं रहा. अचानक फोन गया और उन्हें दिल्ली बुलाया गया. उन्हें लाने के लिए भी स्पेशल इंतजाम किये गये और उन्होंने दो डिप्टी सीएम के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. मुख्यमंत्री बनने के छह महीने बाद ही योगी को चुनावी इम्तिहाम के लिए तैयार होना पड़ा. निकाय चुनाव में 16 में से 14 मेयर बीजेपी के जीते - जिसे योगी को विशेष योग्यता के साथ उतीर्ण माना गया. हो सकता है योगी के लिए आगे के साल और भी खास हों, लेकिन 2017 जरूर याद रहेगा.
जिन वजहों के चलते योगी को लोक सभा के लिए लगातार चुने जाने के बावजूद कभी केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया गया, उन्हीं खासियत की वजह से उन्हें यूपी से अहम सूबे के सीएम की कुर्सी मिली.
अमित शाह
2014 के लोक सभा चुनाव में जीत और फिर दिल्ली और बिहार की हार के बाद असम की जीत अमित शाह के लिए बस जख्मों पर मरहम जैसा रहा. 2017 में अमित शाह ने यूपी और उत्तराखंड विधानसभा का चुनाव तो जीता ही नितिन गडकरी की करिश्माई जोड़ तोड़ के चलते गोवा और मणिपुर में भी सरकार बनाने में कामयाब रहे. यहां तक कि बिहार में भी नीतीश सरकार में घुसपैठ कर हार का आधा हिसाब बराबर कर लिया - लेकिन गुजरात की चुनौती के चलते सब फीका नजर आ रहा था. अहमद पटेल के हाथों झटका खा चुके अमित शाह के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव ने करो या मरो वाली हालत बना दी थी. बहरहाल, अंत भला तो सब भला - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साथ लेकर शाह ने गुजरात में जैसे तैसे जीत कर इज्जत बचा ली जिसे शायद ही कभी वो भूल पायें.
अमित शाह के साथ एक और खास बात रही. सत्ताधारी बीजेपी के अध्यक्ष होकर भी वो अभी तक महज एक विधायक थे, लेकिन इसी साल वो चुनाव जीत कर राज्य सभा भी पहुंचे.
अहमद पटेल
अमित शाह के तीखे तेवर के चलते ही अहमद पटेल के लिए गुजरात राज्य सभा का चुनाव जीने मरने जैसा हो गया था. सोहराबुद्दीन केस में खुद को फंसाये जाने और जेल जाने के पीछे अहमद पटेल का ही हाथ समझने वाले अमित शाह ने उन्हें हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था. यहां तक कि जब एक विधायक के वोट पर आपत्ति दर्ज हुई तो शाह ने दबाव बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों की बड़ी सी टीम दो-दो बार चुनाव आयोग के दफ्तर भेजी. पुराने राजनीतिक कनेक्शन, सोनिया गांधी का डट कर पीछे मजबूती से खड़े रहना और आखिरकार किस्मत ने अहमद पटेल का साथ दिया और वो चुनाव जीतने में कामयाब रहे. वैसे तो बहुत सारी यादें होंगी लेकिन 2017 को अहमद पटेल शायद ही कभी भुला पायें - क्योंकि इसके लिए आखिरी गेंद पर भी उन्हें ही छक्का लगाना पड़ा.
राहुल गांधी
वैसे तो राहुल गांधी पैदा ही हुए थे कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए, लेकिन उसे हकीकत का रूप लेते लेते 47 की उम्र हो गयी. अध्यक्ष पद की ताजपोशी से पहले राहुल गांधी को अमेरिका का दौरा करना पड़ा जहां से उनकी बातें सुनी जाने लगीं और कई दिन लगातार गुजरात में भी गुजारने पड़े जिसके बाद लोग उनकी छवि में बदलाव महसूस किये.
राहुल गांधी अध्यक्ष की कुर्सी पर तो पहले भी बैठ गये होते लेकिन उन्हें खुद तैयार होते होते और कांग्रेस में ही अंदरूनी विरोध थमते थमते साल दर साल बीतते गये. आखिरकार 2017 ही इस मामले में राहुल गांधी के लिए लकी ईयर साबित हो सका.
कैप्टन अमरिंदर सिंह
पंजाब में कांग्रेस लगातार दो विधानसभा चुनाव हार चुकी थी. राहुल गांधी ने पंजाब कांग्रेस की कमान भी अपने पसंदीदा प्रताप सिंह बाजवा को सौंप दी थी - और पटियाला के राजा कैप्टन अमरिंदर सिंह अपने राजनीतिक जीवन की आखिरी पारी खेल रहे थे. सबसे पहले तो उन्हें सूबे में कांग्रेस की कमान संभालने के लिए ही तमाम पापड़ बेलने पड़े, बाद में मैदान में भी अकेले ही जूझना पड़ा. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार को चुनाव के रास्ते सत्ता तक पहुंचने में मददगार बने प्रशांत किशोर जरूर उनके सारथी बने थे, लेकिन दिल्ली से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब पहुंचे और खूंटा गाड़ कर बैठ गये थे. ऐसे हालात में कैप्टन का चुनाव जीतना बहुत बड़ी चुनौती थी. फिर भी साम, दाम, दंड और भेद के सहारे 2017 में कैप्टन सीएम की कुर्सी पर बैठने में कामयाब रहे, फिर ये साल उन्हें कैसे भूल सकता है.
रामनाथ कोविंद
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद तब बिहार के राज्यपाल थे जब सत्ताधारी बीजेपी ने उन्हें चुनाव में एनडीए का उम्मीदवार बनाया. राजभवन में वक्त खुशी खुशी बीत रहा था, तभी राष्ट्रपति पद को लेकर सहमति के लिए उनकी राय पूछी गयी. वो राज भवन से राष्ट्रपति भवन पहुंच चुके हैं, लेकिन वो लम्हा उन्हें हमेशा याद रहेगा जब तय हुआ कि उन्हें चुनाव लड़ना है. सत्ताधारी पार्टी का उम्मीदवार बनना भी चुनाव जीतने जैसा ही अहसास होता है, क्योंकि गणित तो पहले से ही पक्ष में होता है लिहाजा नतीजा भी तय होता है. कोविंद का निर्विवाद होना, कानून और संविधान का जानकार होना और सबसे बड़ी बाद उनका दलित समुदाय से होना उनके पक्ष में रहा, लेकिन ये सब मुमकिन हुआ 2017 में ही.
वेंकैया नायडू
जुलाई से पहले राष्ट्रपति पद के लिए बीजेपी के उम्मीदवारों के नाम पर कयास लगाये जा रहे थे तो खुद वेकैया नायडू को भी कुछ कुछ उम्मीद, जैसे उनके साथियों और समर्थकों को रही. बहरहाल, वो तो इस साल कोविंद की किस्मत में लिखा था, इसलिए बीजेपी ने वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति बना दिया - और अब देश के संविधान के अच्छे टीचर की तरह राज्य सभा के सभापति का कामकाज पूरी शिद्दत से कर रहे हैं. वैसे मान कर चला जा सकता है कि 2017 के अधूरे ख्वाब 2022 में भी तो पूरे हो सकते हैं, बशर्ते सियासी शर्तें तब तक लागू रहें.
नीतीश कुमार
2014 के टूटे हुए ख्वाबों की भरपाई तो नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बदला लेकर 2015 में ही कर ली थी, लेकिन उन्हें अपने हिसाब से अपनी जीत सेलीब्रेट करना हर रोज मुश्किल हो रहा था. बिहार चुनाव जीतने वाले महागठबंधन के वो मुख्यमंत्री जरूर थे, लेकिन नेता तो लालू प्रसाद ही थे. लालू के बाद उनके दो दो बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच सैंडविच बने हुए थे. वैसे भी नीतीश बिहार के चाणक्य यूं ही तो माने नहीं जाते, लगता है लालू के जेल जाने का अहसास भी उन्हें वक्त से काफी पहले हो चुका था. तभी तो तेजी से पैंतरा बदलते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और कुछ ही घंटों में बीजेपी के सपोर्ट से फिर से कुर्सी पर काबिज हो गये. अपनी इस सियासी सूझ-बूझ और हुनर के लिए नीतीश कुमार 2017 को कभी भूल पाएंगे क्या?
ओ. पनीरसेल्वम
नीतीश कुमार की ही तरह तमिलनाडु में उलटफेर ओ. पन्नीरसेल्वम के साथ हुआ - हालांकि, उन्होंने खुद कोई करिश्मा नहीं दिखाया बल्कि हालात के साथ समझौता करते गये. जब जब जो जो हो रहा था तब तब उन्हें उसे उसे होने दिया - और, कर भी क्या सकते थे भला.
कभी अपने शहर का मेयर भर बन जाने का सपना देखने वाले पन्नीरसेल्वम अपनी मेंटोर जयललिता के जेल जाने पर दो-दो बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली लेकिन उनके बाहर आते ही - 'जस की तस धर दीनी चदरिया.' जयललिता के बीमार होने की हालत में संवैधानिक संकट को टालने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया - लेकिन लालच के चलते शशिकला ने एक दिन उनसे जबरन इस्तीफा ले लिया और अपने पसंदीदा ई पलानीसामी को कुर्सी पर बैठा दिया. वक्त ने फिर करवट बदली और शशिकला के जेल जाने के बाद हुए समझौते में उन्हें फिर से डिप्टी सीएम की कुर्सी मिल गयी है - और ये व्यवस्था को तब तक तो चालू माना ही जा सकता है जब तक आरके नगर से निर्दलीय चुनाव जीतने वाले टीटीवी दिनाकरन फिर कोई उलटफेर न कर दें. अपने जीवन में इतनी उथल-पुथल तो पन्नीरसेल्वम में शायद ही कभी देखी हो. तो क्या 2017 को वो पूरी जिंदगी कभी भूल पाएंग? मुश्किल लगता है.
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