कोविड महामारी के बीच जब अमेरिका और मित्र देशों की सेनाओं ने अफगानिस्तान से पूरी तरह बाहर जाने का मन बना लिया और उसके कुछ महीनों बाद रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हो गया था, लगभग तय था कि तीनों घटनाओं का असर दुनियाभर में निश्चित दिखेगा. भारतीय उपमहाद्वीप में जबरदस्त असर की आशंका थी. क्या हुआ? नेपाल में एक प्रधानमंत्री को जाना पड़ा. पाकिस्तान में इमरान खान की कुर्सी जिस तरह गई- समूचा एपिसोड ऐतिहासिक रहा. बुरी तरह से आर्थिक मंदी का शिकार बने श्रीलंका में तो ऊपर से नीचे तक चीजें बर्बाद नजर आईं और लगभग उथल-पुथल के बाद राजनीतिक बदलाव हुआ. तीनों लोकतांत्रिक देश हैं. भारत और बांग्लादेश जरूर बचे हैं. लेकिन ऐसा हो नहीं सकता कि बदले हालात में 'इंटरनेशनल डिप्लोमेसी' के जरिए संभावनाएं तलाश रही ताकतें भारत जैसे देश को छोड़ दें.
संभावना तलाश करने वाली औपनिवेशिक ताकतें सीधे सामने नहीं आतीं. उनकी नजर भूगोल में उठ रहे मुद्दों पर होती है और वे सिविल सोसायटी या ऐसे ही कुछ रास्तों के जरिए 'पीछे' से ताकत देती हैं. मकसद पूरा होने के बाद किसी देश में अपने लिए गुंजाइश बना ही लेती हैं. हो सकता है कि आंदोलनों के कर्ता-धर्ता भी 'पुश' करने वाली ताकतों से अंजान हों और मकसद से अपरिचित. यह भी हो सकता है कि राजनीतिक नफ़ा नुकसान के लिए ऐसे किसी पब्लिक कैम्पेन में उतर रहा या उसका समर्थन कर रहा कोई राजनीतिक दल भी- पुश करने वाली ताकतों के मंसूबे से वाकिफ हो. क्योंकि देखने पर हमेशा ऐसे तमाम आंदोलन स्वत: स्फूर्त और स्वाभाविक नजर आते हैं. मजेदार यह है कि तमाम चीजों में देसी-विदेशी कारोबारी घराने भी नफ़ा नुकसान को लेकर काम करते हैं.
खैर, भारत में भी कोशिशें हुईं और यह किसान आंदोलन के साथ चरम पर दिखा था. मगर शुरू से ही किसान आंदोलन, फिर बाद में अग्निपथ आंदोलन आदि में केंद्र सरकार के अति सुरक्षात्मक रवैये की वजह से वैसा माकूल असर नहीं दिखा जो पाकिस्तान में इमरान के खिलाफ नजर आया. किसान आंदोलन का चेहरा रहे योगेंद्र यादव ने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि किसान आंदोलन के जरिए...
कोविड महामारी के बीच जब अमेरिका और मित्र देशों की सेनाओं ने अफगानिस्तान से पूरी तरह बाहर जाने का मन बना लिया और उसके कुछ महीनों बाद रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हो गया था, लगभग तय था कि तीनों घटनाओं का असर दुनियाभर में निश्चित दिखेगा. भारतीय उपमहाद्वीप में जबरदस्त असर की आशंका थी. क्या हुआ? नेपाल में एक प्रधानमंत्री को जाना पड़ा. पाकिस्तान में इमरान खान की कुर्सी जिस तरह गई- समूचा एपिसोड ऐतिहासिक रहा. बुरी तरह से आर्थिक मंदी का शिकार बने श्रीलंका में तो ऊपर से नीचे तक चीजें बर्बाद नजर आईं और लगभग उथल-पुथल के बाद राजनीतिक बदलाव हुआ. तीनों लोकतांत्रिक देश हैं. भारत और बांग्लादेश जरूर बचे हैं. लेकिन ऐसा हो नहीं सकता कि बदले हालात में 'इंटरनेशनल डिप्लोमेसी' के जरिए संभावनाएं तलाश रही ताकतें भारत जैसे देश को छोड़ दें.
संभावना तलाश करने वाली औपनिवेशिक ताकतें सीधे सामने नहीं आतीं. उनकी नजर भूगोल में उठ रहे मुद्दों पर होती है और वे सिविल सोसायटी या ऐसे ही कुछ रास्तों के जरिए 'पीछे' से ताकत देती हैं. मकसद पूरा होने के बाद किसी देश में अपने लिए गुंजाइश बना ही लेती हैं. हो सकता है कि आंदोलनों के कर्ता-धर्ता भी 'पुश' करने वाली ताकतों से अंजान हों और मकसद से अपरिचित. यह भी हो सकता है कि राजनीतिक नफ़ा नुकसान के लिए ऐसे किसी पब्लिक कैम्पेन में उतर रहा या उसका समर्थन कर रहा कोई राजनीतिक दल भी- पुश करने वाली ताकतों के मंसूबे से वाकिफ हो. क्योंकि देखने पर हमेशा ऐसे तमाम आंदोलन स्वत: स्फूर्त और स्वाभाविक नजर आते हैं. मजेदार यह है कि तमाम चीजों में देसी-विदेशी कारोबारी घराने भी नफ़ा नुकसान को लेकर काम करते हैं.
खैर, भारत में भी कोशिशें हुईं और यह किसान आंदोलन के साथ चरम पर दिखा था. मगर शुरू से ही किसान आंदोलन, फिर बाद में अग्निपथ आंदोलन आदि में केंद्र सरकार के अति सुरक्षात्मक रवैये की वजह से वैसा माकूल असर नहीं दिखा जो पाकिस्तान में इमरान के खिलाफ नजर आया. किसान आंदोलन का चेहरा रहे योगेंद्र यादव ने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि किसान आंदोलन के जरिए विपक्ष के लिए बेहतरीन पिच तैयार कर दी गई थी मगर अखिलेश यादव समेत विपक्षी नेता उसे भुना ही नहीं पाए. इसमें हमारा क्या दोष. अब चुनाव कैसे लड़ना है यह भी हम थोड़े बताएंगे. योगेंद्र यादव का संबंधित वीडियो नीचे है. हालांकि भाजपा सरकार योगेंद्र के रहस्योद्घाटन से बहुत पहले किसान आंदोलन के पीछे लगी ताकतों को लेकर अपनी आशंकाएं जताती आ रही थी. हमारा इरादा उसमें जाने का नहीं है. वह भाजपा की राजनीतिक जरूरत हो सकती है. लेकिन उसमें वैचारिक कुछ भी नहीं, इसलिए हमारी जरूरत भी नहीं है जानना.
किसान आंदोलन का जब कोई नतीजा निकल नहीं पाया था, यह लगभग तभी साफ़ था कि दिल्ली सरकार को हिलाने के लिए कोई और मारक चीज तलाशी जाएगी. चूंकि कई विधानसभा चुनावों के नतीजे मोदी-शाह की भाजपा के खिलाफ नहीं गए तो इस बार लोकसभा चुनाव को लेकर बड़ा प्रयास और बड़ी डिजाइन दिख रही है. भारत जोड़ो यात्रा में उसी डिजाइन को मूर्त करने के प्रयास दिखते हैं. दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने का सामूहिक मैराथन प्रयास. यह राजनीतिक और अराजनीतिक दोनों तरह का है. इसमें सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि राजनीति के इर्द गिर्द अपने हितों पर काम करने वाले नाना प्रकार के संगठन हैं.
बेशक चेहरा राहुल गांधी हैं. लेकिन भारत जोड़ो यात्रा के पहले ही दिन कन्याकुमारी में विवेकानंद और महान तमिल कवि तिरुवल्लूर की प्रतिमा के सामने खड़े होकर किसान आंदोलन के 'बौद्धिक पोस्टरबॉय' योगेंद्र ने भारत जोड़ो की पटकथा समझाते हुए साफ कर दिया था कि यात्रा की कोई जवाबदारी राहुल गांधी या कांग्रेस की नहीं है. उन्होंने कहा था कि वो एक बड़ा चेहरा भर हैं. तो यात्रा के स्याह पक्ष को आप उनके साथ जोड़ भी नहीं सकते. सवाल है कि भारत जोड़ो यात्रा किसका है? यात्रा में तमाम संगठन, सिविल सोसायटी के तमाम दल और उसके नेता-कार्यकर्ता भी शामिल हैं. तो क्या इसे सिविल सोसायटी की यात्रा मानी जाए. यह दूसरी बात है कि यात्रा से पहले से अबतक जो ध्वनियां निकलकर आ रही हैं वह सीधे और बार-बार बता रही हैं कि नेतृत्व राहुल गांधी कर रहे हैं. फिर योगेंद्र यादव ने क्यों कहा राहुल चेहरा भर हैं? आर्टिकल के आख़िरी हिस्से में थोड़ी बात योगेंद्र के वीडियो पर भी होगी.
असल में भारत जोड़ो यात्रा या उससे पहले की सिलसिलेवार घटनाएं जिनका जिक्र शुरू-शुरू में ऊपर भी किया गया , कुछ-कुछ पाकिस्तान में इमरान के खिलाफ हुईं यात्राओं की बुरी तरह से याद दिलाती हैं. वहां भी विपक्ष बड़ी-बड़ी रैलियां लेकर इस्लामाबाद जाते हुए सरकार को घेरने का असफल प्रयास करता दिखता है और आखिरकार मुहिम सफल भी हुई.सत्ता पाने के लिए जो विपक्षी दल इकट्ठा हुए उनमें जमीन आसमान का अंतर है. जबकि हिजाब को लेकर, पैगम्बर पर नुपुर शर्मा की टिप्पणी से पहले और बाद में देशभर में जो छिटपुट साम्प्रदायिक झड़पें हुईं उसमें भी पाकिस्तान जैसा ही पैटर्न नजर आया. पाकिस्तान में तहरीक-ए-लब्बैक नेता की गिरफ्तारी से पहले और बाद की तरह. पाकिस्तान की तरह ही हिंसा आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं लगभग एक जैसे पैटर्न पर दिखती हैं. अगर याददाश्त बेहतर ना हो तो पिछले डेढ़ दो साल में पाकिस्तान में उथलपुथल मचाने वाली राजनीतिक घटनाओं को एक बार 'गूगल' जरूर करें.
मेरा निष्कर्ष है कि राहुल गांधी की यात्रा कुछ भी हो भारत जोड़ो नहीं है. हो सकता है कि राहुल गांधी और उनके तमाम राजनीतिक शुभचिंतक इसे भारत जोड़ो ही समझ रहे हों. यात्रा के जरिए भविष्य के लिहाज से जिस तरह आर्थिक-सामजिक-राजनीतिक और धार्मिक मुद्दे तैयार किए जा रहे और नए ब्लॉक बनाने की कोशिशें दिखती हैं उनमें भारत जोड़ो जैसा लक्ष्य तो नहीं दिख रहा. भाजपा के खिलाफ ध्रुवीकरण की राजनीति और सत्ता की अकुलाहट में परेशान तमाम अलग-अलग ताकतों को जोड़ने का प्रयास जरूर नजर आता है. इसे महज राहुल की यात्रा से निकली तीन तस्वीरों और यात्रा से पहले योगेंद्र के वीडियो से साफ समझा जा सकता है. वीडियो देखें, थोड़ा लंबा है.
#1. पहली तस्वीर
तो पहली तस्वीर उन लोगों के निष्कर्ष को झूठा साबित करने के लिए पर्याप्त है जो केरल में राहुल की यात्रा के लंबे वक्त तक रुकने के पीछे कांग्रेस और वाम के बीच मलयाली राजनीति में वर्चस्व के बिंदु तलाश रहे हैं. और इसे क्षेत्रीय ताकतों को ख़त्म कर भाजपा के खिलाफ कांग्रेस की कथित दो ध्रुवीय मोर्चा बनाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं. केरल जैसे छोटे राज्य में वर्चस्व बनाकर राहुल गांधी भला राष्ट्रीय राजनीति में कौन सा तीर मार देंगे? यह कोई भी समझ सकता है कि अगर राहुल को दक्षिण के किसी राज्य में वर्चस्व ही बनाना ही था तो तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य को कैसे छोड़ देते जहां कभी कांग्रेस का दबदबा रहा है? पहली तस्वीर तमाम विश्लेषकों के लिए आइने की तरह है. मलयाली राज्य में केरल के कई वामपंथी संगठनों को भारत जोड़ो यात्रा के पक्ष में राहुल को 'लाल सलाम' कहते सुना जा सकता है. केरल में अब तक ऐसी तस्वीरें खूब दिख चुकी हैं.
केरल संख्याबल के लिहाज से भले एक छोटा राज्य दिखता हो, मगर भारतीय राजनीति में अभी भी इकलौता ऐसा राज्य है जहां से भाजपा की राजनीति को उसी की भाषा में काउंटर करने वाली वैचारिक चुनौती दिखती है. PFI का और तमाम आक्रामक इस्लामिक संगठनों का सबसे मजबूत आधार वहां दिख चुका है. अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क भी सालों से मौजूद रहा है वहां. जबकि आधुनिक भारत की राजनीतिक वैचारिकी तय हो गई है. लालू, नीतीश, अखिलेश, ममता और स्टालिन जैसे नेता चाहे जितना खारिज करें. राजनीति में बहुजन सवाल अब वैसा बड़ा नहीं रहा जैसा कभी था. तो राजनीति में सामजिक न्याय के मुद्दे तलाशना ज्यादा श्रमसाध्य और नुकसानदेह कार्य है. क्योंकि फिर जवाबदारी तय हो जाती है- आपने क्या किया? सामजिक न्याय में बिहार अगुआ था, नई राजनीति में केरल ने यह स्टेटस हासिल कर लिया है.
केरल वह ताकतवर राज्य है जो फिलहाल देश में 'मुस्लिम सियासत' की धार्मिक, राजनीतिक पहलुओं पर वैचारिकी तय कर रही है. ओवैसी को भूल जाइए. केरल के रास्ते ही भारत में प्रसारित हो रही वैचारिक मुस्लिम सियासत को बाहरी ताकतें पुश करती हैं और मानवाधिकार के दायरे में सिविल सोसायटी के जरिए दूसरी अन्य ताकतों के जरिए समान मुद्दों पर एक व्यापक सामंजस्य और गठजोड़ का रास्ता तैयार करती हैं. मुस्लिम बहुल राज्य होने के बावजूद कभी भी भारतीय राजनीति में कश्मीर की यह स्थिति नहीं रही. आर्टिकल 370 के खात्मे से पहले तक कश्मीर दूसरे तरह से भारत की राजनीति को प्रभावित करता रहा. कथित 'इंटरनेशनल डिप्लोमेसी' कश्मीर की स्थिति का इस्तेमाल देश के दूसरे हिस्सों में आतंकी वारदातों के लिए करता रहा है. जिसका एकमात्र मकसद आतंक के रास्तों से भय और अस्थिरता का माहौल बनाना और फिर कारोबारी हित सिद्ध करवाना रहा है.
#2. दूसरी तस्वीर
खैर, यह तस्वीर ऐसे समय में वायरल हो रही है जब कट्टरपंथी इस्लामिक देश 'ईरान' में हिजाब और बुरके के खिलाफ जबरदस्त क्रांति दिख रही है. भारत में बहुतायत लोग हिजाब के पक्ष में नहीं हैं. और ऐसा भी नहीं है कि हिजाब या बुरके से तकलीफ सिर्फ भाजपा के कोरवोटर को ही है. उत्तर से दक्षिण तक भाजपा से मुकाबले में खड़ी क्षेत्रीय ताकतों के कोरवोटर को भी इससे परेशानी है. यहां तक कि कांग्रेस के भी. जिन्हें लग रहा कि राहुल गांधी केरल में ज्यादा समय क्यों बिता रहे हैं और कश्मीर में ही यात्रा का समापन क्यों कर रहे हैं- उन्हें ध्यान देना चाहिए कि इस तस्वीर के जरिए केरल में कोई राहुल को नुकसान नहीं पहुंचा सकता है. क्या वहां या कहीं भी लेफ्ट से ऐसे सवाल की उम्मीद बची है? वैसे भी कांग्रेस राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गुजरात आदि तमाम राज्यों में एक वोटिंग ब्लॉक को जबरदस्त वैचारिक संदेश देने में सफल दिख रही है. फायदे में कांग्रेस. अब भी सवाल करना है कि यात्रा गुजरात क्यों नहीं जा रही? गुजरात में यात्रा गए बिना भी भाजपा के सामने कांग्रेस को ही फायदा मिल रहा है. बावजूद कि उसे पता है वह सरकार बनाने के आसपास भी नहीं. उन राज्यों में भी जहां राहुल की यात्रा नहीं जा रही है कांग्रेस का संदेश ज्यादा स्मूद तरीके से सीधे टारगेट वोटर तक पहुंच रहा है.
केरल से निकलने के बाद राहुल के एजेंडा में निश्चित ही दलित और पिछड़े प्रमुखता से होंगे.
राहुल बिना कुछ बोले साफ़ कह रहे हैं कि 'बुरका' एक धार्मिक लिबास ही है और इसे पहनने से रोकना सीधे किसी के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है. हम ऐसा नहीं होने देंगे. इसीलिए उन्होंने बुरका पहने एक 10 साल से भी कम उम्र की बच्ची का हाथ पकड़े चलना पसंद किया. राहुल इस तस्वीर के जरिए दो टूक कह रहे कि बुरका इस्लाम में अनिवार्य है. लिबास को अनिवार्यता बताने की जरूरत नहीं होती तो राहुल किसी बुजुर्ग बुरकेवाली के साथ भी दिख सकते थे. मगर तब बुरका पहनना किसी के 'इच्छा' का विषय ज्यादा नजर आता. जब दुनियादारी से नासमझ एक कम उम्र की लड़की बुरका पहनती है तब हिजाब के इच्छा से पहनने के तर्क नेपथ्य में चले जाते हैं. राहुल अन्य राज्यों में भी ऐसा कर सकते थे. मगर तब इसका सीधा और जबरदस्त फायदा भाजपा को मिलता. वैसे भाजपा को अभी भी केरल की तस्वीर फायदा ही देते दिख रही है. शायद राहुल देशभर के मुसलमानों को संदेश देने का प्रयास कर रहे कि इस्लाम भारत में अपनी स्वतंत्र व्यवस्था के साथ चल सकता है. जैसे वह चलना चाहे.
#3. तीसरी तस्वीर
तीसरी तस्वीर और ज्यादा मजेदार है. असल में यह एक स्वागतद्वार का फोटो है. मलयाली में काफी कुछ लिखा नजर आ रहा है. पंक्तियों के लेखक का दुर्भाग्य है कि वह इसे पढ़ने में सक्षम नहीं है. मगर इसपर जिन दो व्यक्तियों की तस्वीरें हैं वह काफी कुछ कह जाती हैं. एक सिरे पर महात्मा गांधी और दूसरे सिरे पर जो व्यक्ति दिख रहा है वह अल्लामा इकबाल हैं. अल्लामा मशहूर शायर और इस्लामिक बुद्धिजीवी हैं. वह कश्मीरी सप्रू ब्राह्मण परिवार से थे. उनके दादा ने धर्म परिवर्तन किया था. पाकिस्तान के निर्माण में अल्लामा का वही योगदान है जो भारत की स्वतंत्रता में 1857 के विद्रोह का है. भारत पाकिस्तान बंटवारे में मारे गए लाखों लोगों की मौतों का जिम्मेवार अल्लामा भी हैं एक तरह से. अल्लामा, गांधी जी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे से भी ज्यादा बड़े गुनहगार हैं. अब समझ नहीं आता कि गांधी के साथ अल्लामा की तस्वीर क्यों लगाईं गई और इसके जरिए आखिर क्या संदेश देने की कोशिश की गई. दो दिन पहले कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तस्वीर लगाई थी मगर बाद में उसे हटा लिया.
जैसा कि योगेंद्र यादव ने पहले ही कहा था कि भारत यात्रा में तमाम संगठन शामिल हैं- हो सकता है कि यह कांग्रेस की नहीं उनकी शरारत हो. कांग्रेस तो इस तरह की गलती से बचने की ही कोशिश करेगी. तस्वीर के बाद भारत जोड़ो यात्रा में सावरकर का भी एंगल आया है. शायद सावरकर जैसी गलती के जरिए अल्लामा वाली गलती का भूल सुधार किया गया हो. या दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी ताकतें भी यात्रा का हिस्सा हों. वैसे भी यह यात्रा तो सबकी है. अब तक केरल में यात्रा की मौजूदगी और वहां से बाहर सिर्फ यह तीन तस्वीरें भारत जोड़ो यात्रा पर तीखे और संगीन सवाल सवाल खड़े करती हैं.
#परेशान तो चीन को होना चाहिए था, योगेंद्र यादव और कांग्रेस के पेट में दर्द क्या कहता है?
जहां तक बात योगेंद्र यादव के वीडियो की है- इसमें कई सवाल उठाए गए हैं. उन्हें ध्यान से सुनना चाहिए. सरकार के खिलाफ. कॉरपोरेट के खिलाफ. सरकारी कॉरपोरेट गठजोड़ के खिलाफ. उन्होंने एक दो कारोबारियों का नाम भी लिया. मोटे तौर पर योगेंद्र ने तमिलनाडु और दक्षिण के दूसरे इलाकों की दो बड़ी परियोजनाओं का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि परमाणु संयत्र का कचरा समुद्र में जाएगा और इससे स्थानीय मछुआरों को तमाम तरह की दिक्कत होगी. यह भी कहा कि परियोजनाएं जरूर कांग्रेस ने बनाई थी, लेकिन राहुल अब तमाम आशंकाओं पर राजी हैं. उन्होंने उस हाइवे के औचित्य पर भी सवाल उठाए जो केरल और तमिलनाडु को जोड़ने वाली हैं. उनका आरोप है कि हाइवे की जरूरत नहीं थी, जब पहले से ही पर्याप्त सड़कें और राजमार्ग हैं. लेकिन सिर्फ अडानी को फायदा पहुंचाने के लिए इसे बनाया जा रहा है. वे और भी तमाम बातें वीडियो में कहते नजर आ रहे हैं. अब सवाल है कि जो परियोजना कल तक सही थी वह अचानक आज गलत कैसे हो गई?
देशभर में जितने हाइवे बने हैं क्या उन्होंने अपना असर नहीं दिखाया. और क्या वे अडानियों के लिए बनाई गई थीं. सबसे बड़ा सवाल कि समूची दुनिया यहां तक कि चीन भी तो कॉरपोरेट रास्ते पर ही आगे बढ़ रहा है. क्या इसके अलावा दुनिया में कोई और विकल्प दिख रहा है. उदारवाद तो आप ही लेकर आए थे. कोई विकल्प था क्या? एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर कोई संयत्र चीन और दूसरे विदेशी घरानों को दिया जा सकता है फिर कोई भारतीय कारोबारी ऐसा करता है तो उसमें क्या बुराई है? एडरसन को जैक मा को लाने में दिक्कत नहीं है फिर अपने जैक माओ से इतना परहेज क्यों? हां, कोई नीरव मोदी या विजय माल्या ना निकल जाए इतना ख्याल रखें. चीन, अमेरिका या किसी भी दूसरे देश की संपन्नता भी तो उसके कारोबारियों के जरिए ही आई. क्या 20 प्रतिशत युवाओं को आज की तारीख में सरकारी नौकरी दी जा सकती है. क्या देश के विकास में उसके अपने कारोबारियों के योगदान को कमतर आँका जा सकता है. फिर उन्हें अपने ही कारोबारियों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है वह भी उस स्थिति में जब सिविल सोसायटी और राहुल गांधी देश के सामने कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं रख पा रहे हैं? आप क्यों भूल जाते हैं हकीकत में इसी कॉरपोरेट ने सामाजिक न्याय की दिशा में तमाम कोशिशों से ज्यादा बेहतर नतीजे दिए.
योगेंद्र यादव यह बात शायद बताना भूल गए कि दक्षिण पूर्वी समुद्री चैनल को भारत क्यों सक्रिय करना चाहता था, जिसके लिए दक्षिण पूर्वी तट पर दुनिया के कई बड़े देसी विदेशी प्रोजेक्ट शुरू किए गए. अगर चीन परेशान होता तो समझा जा सकता था. इसमें योगेंद्र यादव, राहुल गांधी और कांग्रेस के परेशान होने की क्या बात है. जबकि कई प्रोजेक्ट तो कांग्रेस के ही राज में शुरू हुए थे और उनसे तमिलनाडु-ओडिशा-आंध्रप्रदेश को जबरदस्त फायदा भी मिला. कॉरपोरेट को लेकर जनता के तमाम और सवाल भी हैं लेकिन उन्हें उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती. अन्ना लोगों को चेन्नई भागना पड़ता था आज दक्षिण में हिंदी पट्टी को भी रोजगार देने की क्षमता है. दे रहा है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.