विधानसभा के चुनाव पांच राज्यों में हुए हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्व मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को ही मिल रहा है. गौर करें तो मिजोरम और तेलंगाना के नतीजे भी अलग अलग खासियत लिये हुए हैं.
इन चुनावों के नतीजों ने कई तरह के भ्रम तोड़े हैं तो कुछ मान्यताएं भी समीक्षा के दायरे में आ चुकी हैं. जिस तरह राहुल गांधी की नेतृत्व कुशलता ध्यान खींचने लगी है, उसी तरह किसानों ने भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा दिया है - इन चुनाव नतीजों में हर किसी के लिए कुछ न कुछ सबक जरूर हैं.
भारत में लोकतंत्र की उम्र बहुत लंबी है
बीजेपी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना, फिलहाल सपना ही रह गया है. हाल फिलहाल बीजेपी नेतृत्व ने सपने में भी शायद ही सोचा हो कि देश में 25 और 50 साल तक शासन करने का उनका ख्वाब अचानक चकनाचूर भी हो सकता है. अमित शाह की नजर में बीजेपी का स्वर्णकाल तब कहा जाएगा जब पंचायत से पार्लियामेंट तक सिर्फ उसी का शासन हो. अभी तो ये एक तरह से असंभव हो गया है.
लगता है बीजेपी एक परिवार की राजनीति, अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण और अपने स्पेशल बूथ लेवल मैनेजमेंट पर हद से ज्यादा भरोसा करने लगी थी - और इस चक्कर में ये भी भूल गयी कि लोग सिर्फ वोट देने की मशीन नहीं हैं, उनकी भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं. कोई भी सरकार लोगों को ज्यादा वक्त तक गुमराह नहीं कर सकती. अपने वादों के सवाल पर दूसरे के 'पापों' की याद दिलाकर ज्यादा दिन तक झांसा नहीं दिया जा सकता.
ऐसा नहीं कि पांच राज्यों में हुए चुनाव के नतीजे सिर्फ केंद्र में सत्ता संभाल रही बीजेपी के लिए आईना हैं. ये नतीजे कांग्रेस को भी आगाह कर रहे हैं. 2014 में जड़ से उखाड़ कर फेंक देने के बाद नये सिरे से मौका दे रहे हैं जिससे हर राजनीतिक दल...
विधानसभा के चुनाव पांच राज्यों में हुए हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्व मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को ही मिल रहा है. गौर करें तो मिजोरम और तेलंगाना के नतीजे भी अलग अलग खासियत लिये हुए हैं.
इन चुनावों के नतीजों ने कई तरह के भ्रम तोड़े हैं तो कुछ मान्यताएं भी समीक्षा के दायरे में आ चुकी हैं. जिस तरह राहुल गांधी की नेतृत्व कुशलता ध्यान खींचने लगी है, उसी तरह किसानों ने भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा दिया है - इन चुनाव नतीजों में हर किसी के लिए कुछ न कुछ सबक जरूर हैं.
भारत में लोकतंत्र की उम्र बहुत लंबी है
बीजेपी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना, फिलहाल सपना ही रह गया है. हाल फिलहाल बीजेपी नेतृत्व ने सपने में भी शायद ही सोचा हो कि देश में 25 और 50 साल तक शासन करने का उनका ख्वाब अचानक चकनाचूर भी हो सकता है. अमित शाह की नजर में बीजेपी का स्वर्णकाल तब कहा जाएगा जब पंचायत से पार्लियामेंट तक सिर्फ उसी का शासन हो. अभी तो ये एक तरह से असंभव हो गया है.
लगता है बीजेपी एक परिवार की राजनीति, अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण और अपने स्पेशल बूथ लेवल मैनेजमेंट पर हद से ज्यादा भरोसा करने लगी थी - और इस चक्कर में ये भी भूल गयी कि लोग सिर्फ वोट देने की मशीन नहीं हैं, उनकी भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं. कोई भी सरकार लोगों को ज्यादा वक्त तक गुमराह नहीं कर सकती. अपने वादों के सवाल पर दूसरे के 'पापों' की याद दिलाकर ज्यादा दिन तक झांसा नहीं दिया जा सकता.
ऐसा नहीं कि पांच राज्यों में हुए चुनाव के नतीजे सिर्फ केंद्र में सत्ता संभाल रही बीजेपी के लिए आईना हैं. ये नतीजे कांग्रेस को भी आगाह कर रहे हैं. 2014 में जड़ से उखाड़ कर फेंक देने के बाद नये सिरे से मौका दे रहे हैं जिससे हर राजनीतिक दल और नेता को सबक लेने की जरूरत है. भारत में लोकतंत्र की उम्र बहुत लंबी है - ताजा चुनावी नतीजों ने हर किसी को एहसास करा दिया है. अगर कोई मुगालते में है तो ये उसके लिए अलर्ट है.
नरेंद्र मोदी अब मैदान में अकेले नेता नहीं है
बीजेपी ने 2013 में ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. 2013 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के लिए हुए चुनावों में ही नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में मौजूदगी दर्ज हो चुकी थी - इसीलिए तीनों राज्यों के पिछले नजीते भी मोदी लहर का हिस्सा माने जाते हैं. 2014 के आम चुनाव के बाद दिल्ली और बिहार को छोड़ कर मोदी लहर को यूपी से लेकर नॉर्थ ईस्ट में त्रिपुरा तक देखा गया - लेकिन अब उसकी धार धीमी पड़ रही है.
2013 में इन तीनों राज्यों में बीजेपी का औसत सीट शेयर 72.5 फीसदी रहा - 2018 में ये 37 फीसदी पर सिमट चुका है. पांच साल में बीजेपी को इसमें 36 फीसदी का घाटा हुआ है. दूसरी तरफ कांग्रेस के सीट शेयर में 32 फीसदी का इजाफा हुआ है.
चुनावों में लगातार जीत के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अजेय लगने लगी थी - लेकिन अब ये भ्रम टूट चुका है.
राहुल गांधी भी अब प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं
जरूरी नहीं की एक जीत, एक हार की भी भरपायी कर दे - और कोई हार किसी जीत को धूमिल कर दे. यूपी चुनावों के साथ ही पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव हुए थे. कांग्रेस के पंजाब जीत जाने के बावजूद यूपी की हार और गोवा-मणिपुर में सरकार बनाने में नाकाम होना ही ज्यादा प्रचारित हुआ. फिर गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए. हिमाचल प्रदेश में तो कांग्रेस की वापसी के कम ही आसार थे, लेकिन गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन मजबूती से दर्ज किया गया. राहुल गांधी की बदली छवि भी ध्यान खींचने लगी.
गुजरात चुनाव के बाद ही राहुल गांधी की ताजपोशी हुई थी - और उसके बाद वो कर्नाटक चुनाव की तैयारियों में जुट गये. कर्नाटक में राहुल गांधी सिद्धारमैया की सरकार तो नहीं बचा पाये, लेकिन इतनी अलग जरूर जगाये रखी कि बीजेपी को सत्ता में आने से रोका जा सके.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों ने राहुल गांधी को उस तख्त पर तो पहुंचा ही दिया है जहां से वो दिल्ली के ताज पर दावेदारी जता सकें. कम से कम अब ममता बनर्जी और मायावती जैसी नेता प्रधानमंत्री पद की रेस में राहुल गांधी को दरकिनार तो नहीं कर पाएंगी. अगर एनडीए छोड़ कर नीतीश भी फिर से महागठबंधन में साथ आते हैं तो राहुल को आगे बढ़ कर चुनौती तो नहीं ही देंगे. तेजस्वी यादव जैसे नेता भी 2019 में राहुल गांधी के नेतृत्व को अस्वीकार करने लगे थे - लगता नहीं कि अब वो ऐसा कर पाएंगे.
अगली बार पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा भी कांग्रेस से सौदेबाजी के लिए सोनिया से ही बात करने की जिद नहीं कर पाएंगे - और अब तो एनडीए के वाजपेयी काल के नेता चंद्रबाबू नायडू भी राहुल गांधी के साथ मंच शेयर करने लगे हैं.
चुनावों में कोई एक फॉर्मूला नहीं चलता
एक तरफ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजे हैं, दूसरी तरफ मिजोरम और तेलंगाना के रिजल्ट भी. तीन राज्यों में परचम लहराने वाली कांग्रेस को मिजोरम में खुद भी सत्ता गंवानी पड़ी है. कारण जो भी बताये जाएं जीत अगर जीत होती है तो हार भी हार ही होती है. कल तक कांग्रेस मुक्त भारत में मिजोरम की सरकार भी मुकाबले में दीवार की तरह डट कर खड़ी हो जाती थी.
तेलंगाना ने तो अलग ही मिसाल पेश की है. तेलंगाना में न बीजेपी की दाल गली और न ही कांग्रेस गठबंधन कोई चमत्कार दिखा सका.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों की उम्मीदों पर पूरी तरह पानी फेरते हुए तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव न सिर्फ सत्ता बचाने में कामयाब रहे, बल्कि बंपर जीत भी हासिल की है.
आत्महत्या नहीं, किसान अब सरकार बदल देंगे
किसानों की आत्महत्या की खबरें तो बरसों से आती रही हैं. राहुल गांधी ने भी जब राजनीति शुरू की तो संसद में उनके भाषण का कीवर्ड कलावती रहा. यूपीए के बाद किसानों की आमदनी डबल करने के वादे के साथ मोदी सरकार सत्ता में आयी. योजना आयोग की तरह कृषि मंत्रालय का भी नाम बदल डाला - लेकिन बदलाव की बात इससे आगे नहीं बढ़ सकी.
बदले हालात में राहुल गांधी किसानों की समस्याएं लगातार उठाते रहे. यूपी में खाट सभा और किसान यात्रा से लेकर देश के कई हिस्सों में वो किसानों से मिले. यूपी चुनाव में भी राहुल गांधी ने किसानों को कर्जमाफी का भरोसा दिलाते हुए एक फॉर्म भी भरवाया था. बाद के दिनों में भी राहुल गांधी किसानों के बीच लगातार बने रहे. गुजरात और कर्नाटक चुनाव से लेकर छत्तीसगढ़ तक. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं ने गंगाजल लेकर शपथ भी ले डाली.
तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली में प्रदर्शन का जो तरीका अपनाया वो कौन भूल सकता है - सिर मुड़ाने से लेकर खोपड़ी का माला पहनने तक. हाल में किसानों का एक बड़ा जत्था दिल्ली पहुंचा - और जंतर मंतर पर पूरे विपक्ष को एक मंच पर लाने में कामयाब रहा.
बीजेपी को तीन राज्यों से बेदखल कर किसानों ने साफ तौर पर संदेश दे दिया है कि वे सिर्फ खुदकुशी ही नहीं करते - जरूरत पड़ने पर सरकार भी बदल डालते हैं. सभी राजनीतिक दलों को ये सबक हर हाल में याद रखना होगा.
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