उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों (ttar Pradesh Assembly Elections) में अभी अच्छा खासा वक्त बचा हुआ है. लेकिन राजनीति के सियासी खिलाड़ी अपनी अपनी पिच तैयार करने में जुट गए हैं. सत्ताधारी भाजपा अपनी रणनीतियों को और अमलीजामा पहना रही है तो विपक्षी दल भी अपने अपने समीकरण साधने में जुटे हुए हैं. मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) किसान आंदोलन (Farmer Protest) को समर्थन देते हुए सड़क पर उतर ही चुके हैं और ऐलान भी कर दिया है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा का गठबंधन किसी बड़े दल के साथ नहीं होगा बल्कि छोटे छोटे दलों के साथ होगा. राज्य की दूसरी बड़ी विपक्षी पार्टी बसपा भी तमाम मंडल और जिला के संगठन में बदलाव पर विशेष ध्यान दे रही है और अंदरूनी तौर पर पार्टी को एक नया विस्तार दिया जा रहा है. वहीं कांग्रेस पार्टी भी अपने संगठन को मजबूती देने पर ही काम कर रही है. हाथरस कांड के वक्त कांग्रेस पार्टी (Congress Party)ने व्यापक स्तर पर शोर-शराबा ज़रूर मचाया था लेकिन किसान आंदोलन पर उसकी प्रतिक्रिया कमज़ोर ही साबित हुयी है. किसानों के भारत बंद को समर्थन देने के बावजूद कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं में भारत बंद जैसी कोई बात नहीं नज़र आयी. यह तो हाल रहा राज्य के मुख्य विपक्षी दलों का लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में मज़बूती के साथ चुनावी मैदान में कूद रही दो पार्टीयों का कम दो सियासी चेहरों का नाम सबसे ज़्यादा है.
एक हैं दिल्ली के मुखिया अरंविद केजरीवाल और दूसरे असदउद्दीन ओवैसी. दोनों ही अपने गृह राज्य में अपना एक अलग सियासी समीकरण रखते हैं. अब दोनों ही उत्तर प्रदेश...
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों (ttar Pradesh Assembly Elections) में अभी अच्छा खासा वक्त बचा हुआ है. लेकिन राजनीति के सियासी खिलाड़ी अपनी अपनी पिच तैयार करने में जुट गए हैं. सत्ताधारी भाजपा अपनी रणनीतियों को और अमलीजामा पहना रही है तो विपक्षी दल भी अपने अपने समीकरण साधने में जुटे हुए हैं. मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) किसान आंदोलन (Farmer Protest) को समर्थन देते हुए सड़क पर उतर ही चुके हैं और ऐलान भी कर दिया है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा का गठबंधन किसी बड़े दल के साथ नहीं होगा बल्कि छोटे छोटे दलों के साथ होगा. राज्य की दूसरी बड़ी विपक्षी पार्टी बसपा भी तमाम मंडल और जिला के संगठन में बदलाव पर विशेष ध्यान दे रही है और अंदरूनी तौर पर पार्टी को एक नया विस्तार दिया जा रहा है. वहीं कांग्रेस पार्टी भी अपने संगठन को मजबूती देने पर ही काम कर रही है. हाथरस कांड के वक्त कांग्रेस पार्टी (Congress Party)ने व्यापक स्तर पर शोर-शराबा ज़रूर मचाया था लेकिन किसान आंदोलन पर उसकी प्रतिक्रिया कमज़ोर ही साबित हुयी है. किसानों के भारत बंद को समर्थन देने के बावजूद कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं में भारत बंद जैसी कोई बात नहीं नज़र आयी. यह तो हाल रहा राज्य के मुख्य विपक्षी दलों का लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में मज़बूती के साथ चुनावी मैदान में कूद रही दो पार्टीयों का कम दो सियासी चेहरों का नाम सबसे ज़्यादा है.
एक हैं दिल्ली के मुखिया अरंविद केजरीवाल और दूसरे असदउद्दीन ओवैसी. दोनों ही अपने गृह राज्य में अपना एक अलग सियासी समीकरण रखते हैं. अब दोनों ही उत्तर प्रदेश की चुनावी मैदान पर हाथपैर आज़माना चाह रहे हैं. असदउद्दीन ओवैसी ने लखनऊ पधार कर ओमप्रकाश राजभर से मुलाकात की और पीस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने ओवैसी की पार्टी का दामन थाम लिया और ऐलान कर दिया कि ओवैसी की पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव छोटे दलों के साथ मिलकर लड़ने जा रही है.
उधर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने भी उत्तर प्रदेश के चुनाव में अपनी दावेदारी ठोक दी है. हालांकि आम आदमी पार्टी का संगठन तो पहले से ही चुनावी मैदान में सक्रिय है लेकिन अब पार्टी के आधिकारिक ऐलान के बाद हलचल और तेज़ हो गयी है. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया तो लखनऊ का दौरा भी करने वाले हैं औऱ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा को अपना प्रमुख मुद्दा बनाकर जाने वाले हैं ये साफ है.
अब सवाल उठता है कि आखिर दोनों ही पार्टीयों का भविष्य क्या है. क्या इन दोनों ही पार्टीयों की उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कोई दाल गलने वाली है और फिर उत्तर प्रदेश में ये पार्टियां पैर क्यों जमाना चाहती है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटे हैं कोई भी पार्टी हो जो केंद्र की सत्ता तक पहुंचना चाहती है तो उसे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपना पैर पसारना ही होता है. उत्तर प्रदेश की सत्ता में शामिल होकर उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर अपनी पकड़ बनाना थोड़ा सा आसान हो जाता है.
अब आम आदमी पार्टी हो या फिर एआईएमआईएम दोनों ही पार्टी खुद को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर देखना चाहती हैं. दोनों का ही ख्वाब है कि कांग्रेस और भाजपा से हटकर तीसरी पार्टी के रूप में वह सबसे बड़ी ताकत हो. यही वजह है कि दोनों ही पार्टियां हरेक राज्यों में अपना फैलाव चाहते हैं. उत्तर प्रदेश में ओवैसी ने कई साल पहले ही इंट्री मार ली थी लेकिन उनका प्रदर्शन कमजोर ही रहा है.
हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने से ओवैसी गदगद नज़र आ रहे हैं और इसी सोच के साथ उत्तर प्रदेश में भी वह पधार रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014 को लोकसभा चुनाव लड़ा था लेकिन पार्टी दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दी पार्टी के सिपहसालार खुद अरविंद केजरीवाल तक चुनाव हार गए थे. वर्ष 2017 तक आम आदमी पार्टी का उत्तर प्रदेश में संगठन नया नया बना था लेकिन ज़मीन पर कुछ खास असर नहीं था. इसीलिए उत्तर प्रदेश के वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से आम आदमी पार्टी दूर ही रही.
अब चूंकि पार्टी का संगठन उत्तर प्रदेश के हर जिले में सक्रिय है और प्रदेश अध्यक्ष संजय सिंह खुद भी हर एक मुद्दे पर बोलते नज़र आ रहे हैं तो आम आदमी पार्टी को एक उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है. हालांकि आम आदमी पार्टी की राह आसान तो कतई नहीं है. उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण के आगे केजरीवाल या ओवैसी का फार्मूला कितना टिक पाता है इसका तो अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है.
फिलहाल उत्तर प्रदेश में इन दोनों पार्टी की कोई खास संभावनाएं बनती नहीं दिखाई दे रही हैं लेकिन इनके गठबंधन किस पार्टी से होंगें यह देखना भी दिलचस्प होगा. इतना तो तय है कि दोनों ही पार्टी गठबंधन का सहारा लेकर ही मैदान में कूदेंगी लेकिन इनका साथ कौन सी पार्टी लेती है इस पर अलग अलग तरह की चर्चाएं हैं.
राजनीति की समझ रखने वालों को ओवैसी का बसपा से गठबंधन की उम्मीद दिखायी पड़ रही है तो आप का सपा से नाता जोड़ते हुए देखा जा रहा है. हालांकि इस गठबंधन का माहौल उत्तर प्रदेश का पंचायत चुनाव भी तय करेगा जहां भाजपा, सपा और आप बड़े ही जोश के साथ चुनावी रोटी सेंकती हुयी नज़र आ रही है.
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