बालाकोट पर हुई एयर स्ट्राइक कौन भूल सकता है. भारतीय सेना ने पाकिस्तान के अंदर घुसकर बालाकोट में चल रही आतंकी ठिकाने को तबाह किया था. करीब 300 आतंकी मारे जाने की खबर थी. इस कार्रवाई में बस एक ही दिक्कत हुई थी कि भारतीय वायुसेना का एफ-16 विमान उड़ा रहे पायलट अभिनंदन वर्धमान पर पाकिस्तानी सेना ने निशाना लगाकर हमला कर दिया था. इसकी वजह से उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वह पाकिस्तानी सेना की गिरफ्त में आ गए थे. हालांकि, कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तान को भारत के कूटनीतिक दबाव के चलते अभिनंदन को सुरक्षित वापस भारत भेजना पड़ा. उस वक्त हर तरफ अभिनंदन की वीरता के किस्से चलने लगे थे. यहां तक कि लोगों ने उनकी मूंछों के स्टाइल को भी अपना लिया था.
उनकी इस वीरता के जज्बे को देखते हुए ही स्वतंत्रता दिवस पर अभिनंदन को वीर चक्र से सम्मानित करने का फैसला किया गया. अभिनंदन ने जो वीरता दिखाई और दुश्मन के खेमे तक घुसकर उन्हें खदेड़ा, वैसा करने वाले ही वीरता के पुरस्कार पाते हैं. इतिहास इस बात का गवाह रहा है. इसी बीच हिंदुस्तान टाइम्स ने एक खबर की है, जिसमें दावा किया गया है कि उनके विमान का कम्युनिकेशन सिस्टम पुराना था. इसलिए दुश्मन की सीमा में जाते ही जैमर्स की वजह से भारत की ओर से भेजे जा रहे सिग्नल जाम हो गए थे. अगर ऐसा नहीं होता तो वह वापस लौटने की सूचना पाते ही वापस आ जाते. क्या आपको वाकई ऐसा लगता है कि जब एक जवान दुश्मन को खदेड़ रहा होता है तो उसे अपनी जान की परवाह होती है? नहीं. उसके दिल में सिर्फ देश की रक्षा के अलावा उसे और कुछ नहीं सूझता. ऐसे मौकों पर एक जवान आदेशों तक को मानने से मना कर देता है, भले ही इसके लिए उसे सजा क्यों ना मिलने का डर हो. यानी भले ही अभिनंदन के विमान का कम्युनकेशन सिस्टम लेटेस्ट टेक्नोलॉजी वाला होता और वह वापस लौटने का संदेश सुन भी लेते, तब भी दुश्मन को खदेड़े बगैर वापस नहीं लौटते.
अभिनंदन में भी वो बात है, जो परमवीर चक्र पाए सेना के जवानों में थी.
अभिनंदन को जो वीरता पुरस्कार मिल रहा है, वैसे और उससे बड़े-बड़े वीरता पुरस्कार पाने वालों ने भी आदेशों की नाफरमानी की है, लेकिन उसी के बदले उन्हें पुरस्कार भी मिले हैं. जंग के दौरान एक ऐसा दौर आता है, जब आगे बढ़ते हुए जान दे देना और जीत जाना, पीछे हटकर हार जाने से कहीं बेहतर लगता है. सेना के हर जवान में ये जज्बा होता ही है. आइए एक नजर डालते हैं ऐसे ही वीर जवानों पर-
अरुण खेत्रपाल: टैंक में आग लगने के बावजूद लड़ते रहे
अरुण खेत्रपाल ने पूरे समय एक भी पाकिस्तानी टैंक को वहां से गुजरने नहीं दिया.
ये बात है 16 दिसंबर 1971 की. लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने टैंक से लगातार दुश्मन के दांत खट्टे कर रहे थे. हालात काबू से बाहर होने लगे तो उनके कमांडर ने उन्हें आदेश दिया कि वापस लौटो. अरुण के सामने दुश्मन के कई टैंक बिखरे पड़े थे, जिन्हें उन्होंने ही निशाना बनाया था. खुद अरुण के टैंक में भी आग लगी हुई थी, लेकिन वह पीछे हटने को तैयार नहीं थे. इसी बीच दुश्मन का एक गोला उनके टैंक को निशाना बना देता है और वह शहीद हो जाते हैं. महज 21 साल की उम्र में वह देश की सेवा करते हुए चले गए. दिल्ली के रहने वाले खेत्रपाल के परिवार में उनके दादा पहले विश्व युद्ध और पिता दूसरे और 1965 के युद्ध लड़ चुके हैं. सीमा पर अगर अरुण खेत्रपाल और अन्य जवान टैंक लेकर नहीं जाते, तो पाकिस्तानी टैंकों को रोकना मुश्किल हो जाता, क्योंकि वहा पाकिस्तानी टैंक जमा होने लगे थे. वह जब तक जिंदा रहे, एक भी टैंक उनके टैंक को पार नहीं कर पाया. खेत्रपाल को उनकी इसी वीरता के लिए भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया.
होशियार सिंह दहिया: खुद बुरी तरह से घायल थे, लेकिन सेना का मनोबल बढ़ाते रहे
बुरी तरह से घायल होने के बावजूद उन्होंने अपनी सेना के जवानों का मनोबल नहीं गिरने दिया.
हरियाणा के सोनीपत में जन्मे होशियार सिंह दहिया ने 1971 के जंग में अहम भूमिका निभाई थी. उन्हें शकगढ़ सेक्टर में बसंतर नदी पर एक पुल बनाने का काम दिया गया था. नदी दोनों ओर से गहरी लैंडमाइन से ढकी थी और पाकिस्तानी सेना द्वारा अच्छी तरह से संरक्षित थी. उन्हें आदेश मिला कि पाकिस्तानी पोस्ट पर कब्जा करना है. जैसे ही वह आगे बढ़े, पाकिस्तानी सेना ने ताबड़तोड़ हमले करने शुरू कर दिए. भारतीय सेना जवाब दे रही थी. इसी बीच होशियार सिंह एक खाई से दूसरी खाई में भाग-भाग कर अपनी सेना के जवानों का मनोबल बढ़ा रहे थे. पाकिस्तानी सेना हावी हो रही थी, लेकिन गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद उन्होंने पीछे हटने से मना कर दिया और युद्ध विराम तक लड़ते रहे. 1972 में उन्हें सर्वेच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. 6 दिसंबर 1998 में उनकी मौत हो गई, लेकिन उनकी विजय गाथा आज भी लोगों का जज्बा बढ़ा रही हैं.
मेजर सोमनाथ शर्मा: प्लास्टर चढ़े हाथ लेकर जंग के मैदान में कूद पड़े
संसाधन और संख्या कम होने के बावजूद खुले मैदान में शेर की तरह लड़े थे मेजर सोमनाथ शर्मा.
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर 1947 में हुए युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा ने दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया था. उनकी वीरता के लिए मरणोपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. शहीद मेजर सोमनाथ के छोटे भाई लेफ्टिनेंट जनरल सुरेंद्रनाथ शर्मा बताते हैं कि उन्होंने कम संख्या और सीमित संसाधन होने के बावजूद शेर की तरह खुले मैदान में दुश्मनों का सामना किया. उस दौरान उनके हाथ में चोट लगी हुई थी और प्लास्टर चढ़ा था, लेकिन फिर भी वह जंग के मैदान में कूद पड़े. जब दुश्मन उन पर हावी होने लगे तो उन्हें पीछे हटने का आदेश दिया गया, लेकिन उन्होने पीछे हटने से ये कहकर इनकार कर दिया कि 'दुश्मन हमसे 50 गज की दूरी पर है. हम संख्या में बहुत कम हैं. हम पर बहुत बुरी तरह से हमला हो रहा है, पर मैं एक कदम भी पीछे नहीं हटूंगा और आखिरी राउंड खत्म होने और आखिरी सिपाही के मारे जाने तक लडूंगा.'
कैप्टन विक्रम बत्रा: करगिल का शेर कहा जाता है इन्हें
सूबेदार को पीछे धकेलकर बोले थे- 'तू तो बाल बच्चेदार है, हट जा पीछे.'
‘या तो मैं जीत का भारतीय तिरंगा लहराकर लौटूंगा या उसमें लिपटा हुआ आऊंगा, पर इतना तय है कि आऊंगा जरूर.’
यही कहकर करगिल युद्ध में गए थे कैप्टन विक्रम बत्रा. विक्रम बत्रा लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में शामिल हुए थे. हम्प व राकी नाब स्थानों को जैसे ही उन्होंने जीता था, उन्हें कैप्टन बना दिया गया. इसके बाद उन्हें श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे अहम 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवानी कि जिम्मेदारी मिली. 20 जून 1999 को उन्होंने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ते हुए चोटी पर कब्जा कर लिया. रेडियो से उन्होंने जीत की घोषणा करते हुए कहा 'ये दिल मांगे मोर'. उनकी इस बात को पूरा देश आज भी याद करता है. उनके कर्नल ने उन्हें शेरशाह का नाम दिया था और 7 जुलाई 1999 को 16000 फुट की ऊंचाई पर दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा को 'करगिल का शेर' की संज्ञा दे दी गई. सूबेदार ने विक्रम बत्रा से आगे नहीं जाने के लिए कहा था, लेकिन विक्रम बत्रा ने सूबेदार को पीछे धकेलते हुए कहा- 'तू तो बाल बच्चेदार है, हट जा पीछे.' इसी दौरान एक गोली उनके सीने में जा धंसी और वह शहीद हो गए.
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