दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) शानदार प्रदर्शन करते हुए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संयुक्तसचिव के पद पर कब्जा जमाने में कामयाब रही. तो वहीं सचिव पद पर नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ़ इंडिया (NSI) ने जीत दर्ज की है. ABVP के अंकिव बैसोया अध्यक्ष, शक्ति सिंह उपाध्यक्ष, ज्योति चौधरी संयुक्त सचिव और NSI के आकाश चौधरी सचिव का चुनाव जीतने में सफल रहे. दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों की अहमियत के हिसाब से यह नतीजे भारतीय जनता पार्टी को सुकुन देने वाले हो सकते हैं. यह नतीजे भाजपा के नजरिये से इसलिए भी खास कहे जा सकते हैं क्योंकि दिल्ली छात्र संघ के चुनावों के नतीजों को राष्ट्रीय राजनीति की एक झलकी भी माना जाता है.
अब इसे महज संयोग कहें या देश के मिजाज की एक झलक, मगर तकरीबन 38 कॉलेजों के 1 लाख 35 हजार के करीब छात्रों का यह चुनाव पिछले दो दशकों से आम चुनावों के नतीजों से पहले ही देश में चल रही बयार की एक झलकी दे जाता है. मसलन 1999 के डूसू चुनावों में अध्यक्षपद ABVP के खाते में जाने के बाद 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा गठबंधन की जीत हुयी थी. तो वहीं 2003 और 2004 में कांग्रेस की छात्र इकाई NSI ने डूसू में शानदार प्रदर्शन करते हुए सभी 4 और 3 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था. इसके बाद हुए 2004 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब रही थी. इसके बाद अगले दो तीन सालों तक NSI डूसू चुनावों में अच्छा करती रही.
हालांकि 2009 के बाद से इन चुनावों में आरएसएस समर्थित ABVP के उम्मीदवारों का बोलबाला रहा और इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी केंद्र में जीत दर्ज करने में सफल रही. और अगर डूसू चुनावों को पैमाना मान कर 2019...
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) शानदार प्रदर्शन करते हुए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संयुक्तसचिव के पद पर कब्जा जमाने में कामयाब रही. तो वहीं सचिव पद पर नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ़ इंडिया (NSI) ने जीत दर्ज की है. ABVP के अंकिव बैसोया अध्यक्ष, शक्ति सिंह उपाध्यक्ष, ज्योति चौधरी संयुक्त सचिव और NSI के आकाश चौधरी सचिव का चुनाव जीतने में सफल रहे. दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों की अहमियत के हिसाब से यह नतीजे भारतीय जनता पार्टी को सुकुन देने वाले हो सकते हैं. यह नतीजे भाजपा के नजरिये से इसलिए भी खास कहे जा सकते हैं क्योंकि दिल्ली छात्र संघ के चुनावों के नतीजों को राष्ट्रीय राजनीति की एक झलकी भी माना जाता है.
अब इसे महज संयोग कहें या देश के मिजाज की एक झलक, मगर तकरीबन 38 कॉलेजों के 1 लाख 35 हजार के करीब छात्रों का यह चुनाव पिछले दो दशकों से आम चुनावों के नतीजों से पहले ही देश में चल रही बयार की एक झलकी दे जाता है. मसलन 1999 के डूसू चुनावों में अध्यक्षपद ABVP के खाते में जाने के बाद 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा गठबंधन की जीत हुयी थी. तो वहीं 2003 और 2004 में कांग्रेस की छात्र इकाई NSI ने डूसू में शानदार प्रदर्शन करते हुए सभी 4 और 3 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था. इसके बाद हुए 2004 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब रही थी. इसके बाद अगले दो तीन सालों तक NSI डूसू चुनावों में अच्छा करती रही.
हालांकि 2009 के बाद से इन चुनावों में आरएसएस समर्थित ABVP के उम्मीदवारों का बोलबाला रहा और इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी केंद्र में जीत दर्ज करने में सफल रही. और अगर डूसू चुनावों को पैमाना मान कर 2019 के आम चुनावों की भविष्यवाणी की जाए तो यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बेहतर प्रदर्शन करती दिखाई दे रही है.
अगर इन ट्रेंड्स को मात्र एक संयोग भी मानें तो भी दिल्ली छात्रसंघ के चुनावों की अहमियत को कम नहीं आंका जा सकता. दिल्ली विश्वविद्यालय की गिनती देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्विद्यालयों में होती और यहां दाखिला पाने का सपना देश भर के विद्यार्थी देखा करते हैं. हर साल देश के कोने कोने से छात्र यहां अपने सपनों को उड़ान देने आते हैं, ऐसे में दिल्ली विश्विद्यालय के छात्रों के समूह को मिनी इंडिया कहना भी गलत नहीं होगा क्योंकि कमोबेश देश के हर भाग से छात्र यहां होते हैं. और इन युवाओं का वोट करने का पैटर्न वर्तमान सरकार के कामकाज के प्रति युवाओं की राय की भी एक झलकी दे जाती है. हालांकि यह जरूर है कि वोट करने वालों का कुछ प्रतिशत पार्टी के इत्तर उम्मीदवार को देख कर भी वोट करते हैं. मगर मोटे तौर पर पार्टी और उसकी विचारधारा ही वोट करने का कारण होती है.
ऐसे में वर्तमान नतीजे इस बात के संकेत देते हैं कि देश के युवा अभी भी वर्तमान सरकार की नीतियों से प्रभावित लगते हैं. रोजगार के मुद्दे पर घिरी केंद्र सरकार को यह नतीजे कुछ साहस दे सकते हैं. कम से कम कुछ हद तक ही सही मगर यह बताते हैं कि युवाओं का मोहभंग अभी भी वर्तमान सरकार से नहीं हुआ है.
हालांकि दूसरी तरफ इन नतीजों के बाद कांग्रेस अपनी ईवीएम वाली डफली लेकर फिर से राग लगा रही है. कांग्रेस का कहना है कि NSI की हार के पीछे ईवीएम का हाथ है. मगर यह तर्क या कहें कुतर्क कांग्रेस के लिए मुश्किलें ही बढ़ाएगा क्योंकि पार्टी अभी भी युवाओं के बीच अलोकप्रिय होने के कारणों का मंथन ना कर झूठ के भ्रमजाल में फंसी है. यह स्थित कांग्रेस को नुकसान जबकि भाजपा के लिए लाभदायक हो सकती है.
ये भी पढ़ें -
अमित शाह भाजपा के लिए जरूरी क्यों हैं...
क्या NOTA वाले वोट भी बीजेपी के खाते में जाएंगे!
क्या बीजेपी सवर्णों को अचल संपत्ति मान कर चल रही है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.