14 अप्रैल यूं तो एक साधारण दिन है मगर जब इसे भारतीय राजनीति और विशेषकर दलितों को ध्यान में रखकर देखें तो मिलता है कि ये एक ऐतिहासिक दिन है. 14 अप्रैल को अंबेडकर पैदा हुए थे. अंबेडकर का जन्मदिन आने में कुछ दिन शेष हैं मगर अंबेडकर के नाम पर जो उत्तर प्रदेश में हो रहा है वो खासा दिलचस्प है. खबर है कि उत्तर प्रदेश के सभी राजकीय अभिलेखों में अब बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर का नाम डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर लिखा जाएगा. बताया ये भी जा रहा है कि सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से इस संबंध में शासनादेश जारी कर दिया गया.
ऐसा क्यों किया गया इसके पीछे की वजह उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव (सामान्य प्रशासन) जीतेंद्र कुमार ने इतिहास का हवाला देकर स्पष्ट कर दी है. कुमार के अनुसार अंबेडकर ने संविधान की अष्टम अनुसूचि (आठवां शेड्यूल) पर इसी नाम के साथ दस्तखत किए थे. इसलिए अब और आगे उत्तर प्रदेश सरकार अंबेडकर के इसी सही नाम का पालन करेगी.
62 साल बाद किसी को अंबेडकर की दस्तखत याद आई, उनके सही नाम को लेकर काम हुआ और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर हो गए. अब हो सकता है कि पहली नजर में देश का कोई आम नागरिक जब इस बात को सुने तो उसे शेक्सपियर की वो बात "नाम में क्या रखा है" याद आ जाए और वो इसे एक साधारण सी बात मानकर नकार दे. जो लोग इस बात को नकार रहे हैं वो जान लें ये यूं ही बैठे बिठाए नहीं किया गया है. इस खबर के राजनीतिक मायने अपने आप में महत्वपूर्ण हैं.
एक ऐसे दौर में जब हम अपने इर्द गिर्द सपा-बसपा गठबंधन का शोर सुन रहे हैं. मायावती को दलित पिछड़ों की बातें करते हुए अंबेडकर और काशीराम का उदाहरण देते देख रहे हैं. वहां...
14 अप्रैल यूं तो एक साधारण दिन है मगर जब इसे भारतीय राजनीति और विशेषकर दलितों को ध्यान में रखकर देखें तो मिलता है कि ये एक ऐतिहासिक दिन है. 14 अप्रैल को अंबेडकर पैदा हुए थे. अंबेडकर का जन्मदिन आने में कुछ दिन शेष हैं मगर अंबेडकर के नाम पर जो उत्तर प्रदेश में हो रहा है वो खासा दिलचस्प है. खबर है कि उत्तर प्रदेश के सभी राजकीय अभिलेखों में अब बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर का नाम डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर लिखा जाएगा. बताया ये भी जा रहा है कि सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से इस संबंध में शासनादेश जारी कर दिया गया.
ऐसा क्यों किया गया इसके पीछे की वजह उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव (सामान्य प्रशासन) जीतेंद्र कुमार ने इतिहास का हवाला देकर स्पष्ट कर दी है. कुमार के अनुसार अंबेडकर ने संविधान की अष्टम अनुसूचि (आठवां शेड्यूल) पर इसी नाम के साथ दस्तखत किए थे. इसलिए अब और आगे उत्तर प्रदेश सरकार अंबेडकर के इसी सही नाम का पालन करेगी.
62 साल बाद किसी को अंबेडकर की दस्तखत याद आई, उनके सही नाम को लेकर काम हुआ और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर हो गए. अब हो सकता है कि पहली नजर में देश का कोई आम नागरिक जब इस बात को सुने तो उसे शेक्सपियर की वो बात "नाम में क्या रखा है" याद आ जाए और वो इसे एक साधारण सी बात मानकर नकार दे. जो लोग इस बात को नकार रहे हैं वो जान लें ये यूं ही बैठे बिठाए नहीं किया गया है. इस खबर के राजनीतिक मायने अपने आप में महत्वपूर्ण हैं.
एक ऐसे दौर में जब हम अपने इर्द गिर्द सपा-बसपा गठबंधन का शोर सुन रहे हैं. मायावती को दलित पिछड़ों की बातें करते हुए अंबेडकर और काशीराम का उदाहरण देते देख रहे हैं. वहां अंबेडकर के नाम में "राम जी" को लाने से ये अपने आप साफ है हो गया है कि, भाजपा भी सपा और बसपा की तरह दलितों को एक बड़े वोट बैंक में देख रही है और इनको रिझाने की दिशा में प्रयत्नशील है. मौजूदा परिदृश्य में भाजपा को ये उम्मीद लगातार बनी हुई है कि यदि उसने किसी भी तरह दलित वर्ग को आकर्षित कर लिया तो इनके बल पर 2019 की पथरीली राहें फूलों भरी और सुगम होंगी. कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में घटित हुई इस घटना के बाद भाजपा ने दलितों के बीच से अंबेडकर को पूरी तरह हाई जैक कर लिया है और साफ सन्देश दे दिया है कि अंबेडकर केवल दलितों के नहीं बल्कि पूरे देश के हैं.
आज भले ही भाजपा ने अंबेडकर के नाम में राम जी लगाकर उन्हें अपना बना लिया हो मगर अंबेडकर राम और दक्षिणपंथ के प्रति कितने निष्ठावान थे ये हमें उनके बौद्ध-दलित आंदोलन से पता चल जाता है. ज्ञात हो कि 1956 में डॉक्टर अंबेडकर की अगुवाई में देश एक बड़े आंदोलन का साक्षी बना जिसे बौद्ध-दलित आंदोलन कहा गया. आपको बता चलें कि बीसवीं सदी में चले इस आंदोलन में हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रखे लोगों द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन की बात कही गयी थी.
तब इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे अंबेडकर ने अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा था कि दलितों का हिंदू धर्म के भीतर रहकर सामाजिक उत्थान संभव नहीं हो सकता. और शायद यही वो विचारधारा थी जिसने अंबेडकर को अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया. बताया जाता है कि तब अंबेडकर के अलावा 5 लाख लोगों ने महाराष्ट्र के नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया था.
बहरहाल, जो हुआ उसके बाद शायद ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि अंबेडकर की ये घरवापसी कोई एक दिन का प्रोसेस नहीं था इस पूरी प्रक्रिया में एक लम्बा वक़्त लगा है. वैसे तो ये क्रम धीरे-धीरे बदस्तूर जारी था मगर इसमें हलचल तब तेज हुई जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने. 2013 में छत्तीसगढ़ चुनावों के दौरान बौद्ध याजकों को जमा करना उनसे वोट की बात करना, छह महीने की लंबी धम्म चेतना यात्रा फिर चालीस से पचास लाख दलितों से मिलने की बात कहना अपने आप में बहुत कुछ बता रहा है.
इसके बाद मई 2016 में सिंहस्थ कुंभ मेले के दौरान पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का दलित साधुओं के साथ शिप्रा नदी में डुबकी लगाना ये बता देता है कि राजनीतिक मंशा के मद्देनजर भाजपा ने कभी भी दलितों को हल्के में नहीं लिया है. 2016 में ही अंबेडकर के जन्मस्थल महू में प्रधानमंत्री का रैली करना उसे प्रमुख पर्यटक आकर्षण बनाने की बात कहना फिर चैतन्य भूमि जाना ये बता देता है कि मोदी और भाजपा दोनों ही इस बात को जानते हैं कि यदि वक़्त रहते हुए उन्होंने राजनीति में दलितों के महत्त्व को नकार दिया तो उनका विजय रथ काफी हद तक बड़ी बाधा का शिकार होगा.
अंत में हम ये कहते हुए अपनी बात खत्म करेंगे कि यदि अब भी किसी को ये लग रहा है कि इस खबर का कोई राजनीतिक महत्त्व नहीं है तो उसे थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि 2019 के चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं और भाजपा द्वारा फेंका गया ये पासा उसी जीत की तरफ बढ़ाया गया एक कदम है.
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