महाराष्ट्र और बिहार बेशक देश के अलग अलग छोर पर हैं, लेकिन राजनीतिक बयार एक जैसी ही बहती हुई लगती है - और जब भी उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार का किसी न किसी बहाने जिक्र आता है, दोनों का ही पैंतरा मिलता जुलता नजर आता है.
बीजेपी की राजनीति दोनों राज्यों के बीच कनेक्टिंग लिंक बन जाती है और कभी नाव पर हाथी और कभी हाथी पर नाव वाली स्थिति पैदा हो जाती है. कभी कभी तो दोनों राज्यों की राजनीति जुडवां भाई-बहनों की तरह एक दूसरे से प्रभावित होती भी नजर आती है. ऐसा लगता है जैसे एक को कुछ होता है तो दूसरे पर स्वाभाविक असर पड़ जाता है, और एक अगर कोई रास्ता दिखाता है तो दूसरा अपनेआप उसी रास्ते पर चल पड़ता है.
दोनों ही राज्यों में परिवारवाद की राजनीति का भी गहरायी तक दखल है, लेकिन पॉलिटिकल लाइन अलग अलग है. परिवारवाद की राजनीति को लेकर बीजेपी उद्धव ठाकरे को तो निशाना बना सकती है, लेकिन नीतीश कुमार के सामने ऐसे आरोपों का कोई आधार ही नहीं बनता क्योंकि उनके बेटे राजनीति से काफी दूर रहते हैं.
उद्धव ठाकरे के लिए आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) का राजनीतिक कॅरियर जरूर चिंता की बात होती है - और ऐसा लगता है अब यही वो फैक्टर है जो महाराष्ट्र की राजनीति में अंदर ही अंदर समुद्र मंथन की तरह जारी है.
ऐसा लगने लगा है जैसे नीतीश कुमार की तरह उद्धव ठाकरे भी पाला बदल सकते हैं. नीतीश कुमार तो खैर, तीसरी बार पाला बदल चुके हैं. शुरू से ही वो एनडीए का हिस्सा रहे, लेकिन 2013 में बीजेपी से अलग हो गये और फिर लालू यादव से हाथ मिला कर महागठबंधन के नेता बन गये. जब लगा कि मामला चल नहीं पाएगा तो फिर से एनडीए में वापस पहुंच गये - और जब फिर से घिरने लगे तो एक बार फिर लालू यादव के महागठबंधन में शामिल हो गये.
बीजेपी की साथ छोड़ कर उद्धव ठाकरे के महाविकास आघाड़ी में...
महाराष्ट्र और बिहार बेशक देश के अलग अलग छोर पर हैं, लेकिन राजनीतिक बयार एक जैसी ही बहती हुई लगती है - और जब भी उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार का किसी न किसी बहाने जिक्र आता है, दोनों का ही पैंतरा मिलता जुलता नजर आता है.
बीजेपी की राजनीति दोनों राज्यों के बीच कनेक्टिंग लिंक बन जाती है और कभी नाव पर हाथी और कभी हाथी पर नाव वाली स्थिति पैदा हो जाती है. कभी कभी तो दोनों राज्यों की राजनीति जुडवां भाई-बहनों की तरह एक दूसरे से प्रभावित होती भी नजर आती है. ऐसा लगता है जैसे एक को कुछ होता है तो दूसरे पर स्वाभाविक असर पड़ जाता है, और एक अगर कोई रास्ता दिखाता है तो दूसरा अपनेआप उसी रास्ते पर चल पड़ता है.
दोनों ही राज्यों में परिवारवाद की राजनीति का भी गहरायी तक दखल है, लेकिन पॉलिटिकल लाइन अलग अलग है. परिवारवाद की राजनीति को लेकर बीजेपी उद्धव ठाकरे को तो निशाना बना सकती है, लेकिन नीतीश कुमार के सामने ऐसे आरोपों का कोई आधार ही नहीं बनता क्योंकि उनके बेटे राजनीति से काफी दूर रहते हैं.
उद्धव ठाकरे के लिए आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) का राजनीतिक कॅरियर जरूर चिंता की बात होती है - और ऐसा लगता है अब यही वो फैक्टर है जो महाराष्ट्र की राजनीति में अंदर ही अंदर समुद्र मंथन की तरह जारी है.
ऐसा लगने लगा है जैसे नीतीश कुमार की तरह उद्धव ठाकरे भी पाला बदल सकते हैं. नीतीश कुमार तो खैर, तीसरी बार पाला बदल चुके हैं. शुरू से ही वो एनडीए का हिस्सा रहे, लेकिन 2013 में बीजेपी से अलग हो गये और फिर लालू यादव से हाथ मिला कर महागठबंधन के नेता बन गये. जब लगा कि मामला चल नहीं पाएगा तो फिर से एनडीए में वापस पहुंच गये - और जब फिर से घिरने लगे तो एक बार फिर लालू यादव के महागठबंधन में शामिल हो गये.
बीजेपी की साथ छोड़ कर उद्धव ठाकरे के महाविकास आघाड़ी में शामिल होना भी नीतीश कुमार की राजनीति जैसा ही रहा - और अब कुछ ऐसे संकेत मिल रहे हैं जिनसे लगता है कि उद्धव ठाकरे भविष्य की राजनीति को देखते हुए नीतीश कुमार की ही तरह फिर से पाला बदलने की मन ही मन तैयारी कर रहे हैं. उद्धव ठाकरे के सामने आदित्य की चिंता स्वाभाविक भी है.
महाराष्ट्र के राजनीति की एक तस्वीर क्रिकेट एसोसिएशन की मीटिंग में देखी गयी थी - और दूसरी तस्वीर भारत जोड़ो यात्रा के राज्य में दाखिल होने पर नजर आयी है. ये तस्वीर दो दिनों में तैयार हुई है. एक दिन जब एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले (Supriya Sule) यात्रा में पहुंचती हैं और राहुल गांधी के साथ मार्च में हिस्सा लेती हैं - और दूसरे दिन आदित्य ठाकरे भी राहुल गांधी के साथ यात्रा करते देखे जाते हैं.
निश्चित तौर पर सुप्रिया सुले और आदित्य ठाकरे का राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ भारत जोड़ो यात्रा में मार्च करना एक राजनीतिक बयान तो है, लेकिन राजनीतिक तौर पर ये पूरी तरह दुरूस्त नहीं लगता. ऐसा समझे जाने के कुछ खास कारण हैं - ये सारे कारण शिवसेना सांसद संजय राउत के जेल से छूटने और उनके बदले हुए बयानों के के इर्द गिर्द पाये गये हैं.
बाहर से कुछ और, अंदर से कुछ और क्यों लगता है?
उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना के नेता आदित्य ठाकरे और एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी को बहुत बड़ी राहत दी है. तमिलनाडु के बाद ये महाराष्ट्र ही है जहां कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के अलावा कोई और राजनीतिक चेहरा नजर आया हो.
भारत जोड़ो यात्रा को लेकर शुरू से ही कांग्रेस की तरफ से ऐसी हर गलती से बचने की कोशिश हुई थी ताकि विपक्षी खेमे के नेताओं को दूरी बनाने का बहाना न मिल जाये. एक रणनीति के तहत ही हाथ के पंजे के निशान पर कांग्रेस का झंडा इस्तेमाल करने की जगह राहुल गांधी तिरंगा लेकर निकले थे. कहने को तो नाम भी भारत जोड़ो इसीलिए रखा गया था ताकि किसी भी राजनीतिक दल को किसी तरह का परहेज न हो. ये बात अलग है कि जब जब भी कांग्रेस और गांधी परिवार पर संकट आता है, रैली और प्रदर्शनों को भारत या लोकतंत्र के नाम से जोड़ दिया जाता रहा है.
शरद पवार डबल गेम खेल रहे हैं: क्रिकेट की राजनीति करते करते शरद पवार कब बीजेपी के करीब पहुंच जाते हैं, लोग बस देखते रह जाते हैं. क्रिकेट एसोसिएशन के चुनाव में शरद पवार बीजेपी नेता के साथ गठबंधन कर लेते है. ऐसा लगता है जैसे वो बीजेपी के करीब जा रहे हों, लेकिन तभी भारत जोड़ो यात्रा को लेकर कांग्रेस से न्योता मिलने पर कहते हैं कि हमारा सपोर्ट जारी रहेगा - और हम में से कुछ लोग यात्रा में शामिल भी होंगे.
एनसीपी प्रमुख शरद पवार खुद तो भारत जोड़ो यात्रा में शामिल नहीं होते, लेकिन उनकी बेटी सुप्रिया सुले यात्रा में राहुल गांधी को ज्वाइन जरूर करती हैं - और सुप्रिया सुले का यात्रा में शामिल होने का मतलब तो शरद पवार की नुमाइंदगी ही समझी जाएगी. मतलब, शरद पवार ने भारत जोड़ो यात्रा में अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है. महाराष्ट्र की राजनीति में जारी हलचल की कुछ और कड़ियों को जोड़ कर देखें तो ये रस्मअदायगी से ज्यादा भी नहीं लगती.
आदित्य ठाकरे के बयान को कैसे समझें: ठीक वैसे ही आदित्य ठाकरे भी राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होते हैं. कुछ दूर साथ साथ चलते भी हैं - और ट्विटर पर तस्वीर शेयर कर आगे भी साथ बने रहने की बात करते हैं. ऐसा दावा तो आदित्य ठाकरे इंडिया टुडे कॉनक्लेव में भी करते हैं. आदित्य ठाकरे के शब्द तो नकारने वाले ही होते हैं, लेकिन जिस माहौल में ये सब होता है - वो अलग ही इशारे कर रहा है.
आदित्य ठाकरे से पूछा गया था कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से घर वापसी जैसा कोई प्रस्ताव मिले तो उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना का क्या रुख होगा? लेकिन ऐसा प्रस्ताव तभी संभव है जब ठाकरे परिवार गांधी परिवार से नाता तोड़ ले - और पहले की तरह पहले की तरह बीजेपी के साथ हो जाये.
आदित्य ठाकरे के लिए ये बड़ा ही अटपटा और परेशान करने वाला सवाल था और यही वजह रही कि वो पॉलिटिकल स्टाइल में ही टाल गये. ये सवाल भी ऐसे वक्त पूछा गया था जब ठाकरे परिवार कांग्रेस नेतृत्व को भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने की हामी भर चुका था.
मुंबई में हुए इंडिया टुडे कॉनक्लेव में आदित्य ठाकरे का कहना रहा, 'मैं इस सवाल का जवाब नहीं देने वाला... ऐसी काल्पनिक परिस्थितियों का मतलब ही क्या है?'
अब जरा हाल ही में जेल से रिहा हुए संजय राउत के बयान और महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले के बयानों को देखते हुए आदित्य ठाकरे के सवाल टालने के प्रसंग के साथ जोड़ कर समझने की कोशिश कीजिये - ध्यान देने पर क्रोनोलॉजी उद्धव ठाकरे की घर वापसी की तरफ ही इशारा कर रही है.
क्या उद्धव ठाकरे पलटी मारेंगे?
आदित्य ठाकरे भले ही सवाल टाल गये हों, लेकिन नाना पटोले और संजय राउत जिस तरह की बातें कर रहे हैं - लगता नहीं कि उद्धव ठाकरे और राहुल गांधी के रिश्ते की उम्र ज्यादा बची है. और इसके लिए उद्धव ठाकरे को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उनकी और सोनिया गांधी की पीड़ा एक जैसी ही है. फर्क सिर्फ ये है कि उद्धव ठाकरे पिता हैं, और सोनिया गांधी एक मां हैं.
क्या उद्धव ठाकरे और कांग्रेस में दूरी बढ़ने लगी है: जिस तरह से जेल से रिहा होने के बाद संजय राउत के स्वर बदल गये हैं, नाना पटोले की तरफ से भी बयान आ चुका है कि उद्धव ठाकरे के साथ कांग्रेस गठबंधन न तो स्वाभाविक है, न ही स्थायी है. नाना पटोले की दलील है कि जिस वक्त दोनों राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन हुआ उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितियां बिलकुल अलग थीं.
नाना पटोले की नाराजगी अंबादास दानवे को महाराष्ट्र विधान परिषद में विपक्ष का नेता बनाये जाने के बाद सामने आयी है. कांग्रेस नेता का आरोप है कि ये पद एनसीपी और उद्धव ठाकरे ने मिल कर आपस में बांट लिया है. नाना पटोले कह रहे हैं कि जो पद कांग्रेस को मिलना चाहिये था उस पर फैसला लेते वक्त पार्टी को विश्वास में भी नहीं लिया गया.
वैसे नाना पटोले भी महाराष्ट्र में वैसे ही पेश आते हैं जैसे पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी की ममता बनर्जी से ठनी रहती है. राहुल गांधी के बेहद करीबी समझे जाने वाले नाना पटोले बीजेपी से ही कांग्रेस में आये हैं और विधानसभा के स्पीकर भी रह चुके हैं.
संजय राउत के बयान के क्या मायने हैं: संजय राउत की जमानत मंजूर किये जाते वक्त स्पेशल कोर्ट की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है. कोर्ट का अपना नजरिया रहा कि संजय राउत को गिरफ्तार करने की कोई जरूरत ही नहीं थी.
कोर्ट की टिप्पणी से तो यही लगता है कि उद्धव ठाकरे और संजय राउत की तरफ से प्रवर्तन निदेशालय के एक्शन को लेकर जिस राजनीतिक दबाव के आरोप लगाये जा रहे थे वे अनायास नहीं थे - लेकिन हैरानी की बात है कि जिस ईडी को लेकर गिरफ्तारी से पहले संजय राउत तीखे बयान दिया करते थे. बीजेपी के खिलाफ भी आक्रामक रुख रखते है, अब तो जैसे सुर ही बदल गये हैं.
अब संजय राउत कह रहे हैं, जिन लोगों ने ये साजिश रची थी... अगर उनको आनंद मिला होगा तो मैं इसमें उनका सहभागी हूं... मेरे मन में किसी के लिए कोई शिकायत नहीं है... मैं पूरी व्यवस्था को या फिर किसी केंद्रीय एजेंसी को दोष नहीं दूंगा.
आखिर क्यों? क्या संजय राउत के ये बयान किसी तरह के राजनीति एहसानों की वापसी है? क्या संजय राउत मानते हैं कि उनके जेल से छूटने की वजह भी महज तकनीकी या कानूनी नहीं है, बल्कि गिरफ्तारी की ही तरह पूरी तरह राजनीतिक है?
संजय राउत के मुंह से उद्धव ठाकरे और शरद पवार की तारीफें सुनना तो स्वाभाविक है, लेकिन देवेंद्र फडणवीस की प्रशंसा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से जाकर मिलने की बातें करना सुन कर ताज्जुब होना भी तो स्वाभाविक है - आखिर रातों रात ऐसा क्या हो गया कि 100 से ज्यादा दिन सलाखों के पीछे गुजारने के बाद संजय राउत का अचानक हृदय परिवर्तन हो गया है?
राजनीति में किसी का भी जिक्र यूं ही नहीं होता. राजनीति में किसी की भी तारीफ बगैर स्वार्थ के नहीं सुनने को मिलती. वो भी तब जब कोई जेल से छूट कर बस बाहर आया ही हो.
फडणवीस पर ठाकरे का दिल कैसे उमड़ आया: और तो और सामना के एक आर्टिकिल में भी देवेंद्र फडणवीस की जम कर तारीफ हुई है. सामना ने महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस के दिवाली पर दिये गये बयान को समझदारी भरा बताया है.
असल में देवेंद्र फडणवीस ने दिवाली के मौके पर मीडिया से बात करते हुए महाराष्ट्र की राजनीति में नफसर समा जाने का जिक्र किया था. राहुल गांधी तो बीजेपी पर लोगों के बीच नफरत फैलाने का आरोप लगाते हैं, लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने नेताओं के बीच ऐसे व्यवहार और संबंधन को लेकर चिंता जाहिर की थी.
देवेंद्र फडणवीस के बयान को लेकर सामना में लिखा गया था कि उनकी बातों को लेकर उनका जितना अभिनंदन किया जाये, उतना कम है... देवेंद्र फडणवीस का मूल स्वभाव मिल-जुलकर रहने वाला था, लेकिन सत्ता जाने के बाद वो बिगड़ गया... देवेंद्र फडणवीस में नये सत्ता परिवर्तन के बाद परिपक्वता आ गई है, ऐसा प्रतीत होने लगा है.
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