हिंदुस्तान पर सबसे लंबा शासन करने वाले मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की 1707 में मौत के बाद भी मुगलों ने यहां डेढ़ सौ साल तक राज किया. अगर आप इतिहास के छात्र नहीं हैं, तो शायद ही कोई जानता हो कि औरंगजेब के बाद देश का शासक कौन रहा. यह सब जानते हैं कि आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र थे जिनका राज 1857 में ख़त्म हुआ. वह भी देश के योद्धाओं ने 1857 की क्रांति ना की होती और ज़बरन राजा घोषित न किया होता तो शायद देश के लोग आख़िरी मुग़ल शासक को भी नहीं जानते. तो क्या डेढ़ सौ सालों तक हिन्दुस्तान पर कोई राज़ नहीं कर रहा था या फिर ऐसे मुग़ल शासक राज कर रहे थे जिसके बारे में आम हिंदुस्तानी को पता ही नहीं है. यह बेहद आम कहावत है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है. पात्र और काल अलग होते हैं मगर घटनाओं में समानताएं काफ़ी होती हैं. तो क्या कांग्रेस उसी दौर से गुज़र रही है जिस दौर से मुग़ल शासक औरंगज़ेब के बाद हिंदुस्तान गुजरा था?
औरंगज़ेब के बाद हिंदुस्तान की गद्दी पर दर्जनों बादशाहों ने राज किया जिसमें सबसे लंबा राज किया रंगीला शाह ने. रंगीला शाह के मुग़लिया कार्यकाल को देखें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान कांग्रेस में आलाकमान कलेवर बदल कर रंगीला शाह बना हुआ है. रंगीला शाह का पूरा नाम मुहम्मद शाह था.मगर जिसे मोहम्मद रंगीला और रंगीला शाह के नाम से जाना जाता था.
रंगीला शाह ने दिल्ली की गद्दी पर 1719 से लेकर 1748 तक राज किया. राज किया या फिर राज को धीरे-धीरे हमेशा के लिए ख़त्म करता चला गया यह ऐतिहासिक विवेचना का प्रश्न है. इसे भी एतिहासिक समानता कहना चाहिए या फिर संयोग कि उस वक़्त रंगीला शाह के सबसे बड़ा सहयोगी और सलाहकार जयपुर को बसाने वाले जयसिंह...
हिंदुस्तान पर सबसे लंबा शासन करने वाले मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की 1707 में मौत के बाद भी मुगलों ने यहां डेढ़ सौ साल तक राज किया. अगर आप इतिहास के छात्र नहीं हैं, तो शायद ही कोई जानता हो कि औरंगजेब के बाद देश का शासक कौन रहा. यह सब जानते हैं कि आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र थे जिनका राज 1857 में ख़त्म हुआ. वह भी देश के योद्धाओं ने 1857 की क्रांति ना की होती और ज़बरन राजा घोषित न किया होता तो शायद देश के लोग आख़िरी मुग़ल शासक को भी नहीं जानते. तो क्या डेढ़ सौ सालों तक हिन्दुस्तान पर कोई राज़ नहीं कर रहा था या फिर ऐसे मुग़ल शासक राज कर रहे थे जिसके बारे में आम हिंदुस्तानी को पता ही नहीं है. यह बेहद आम कहावत है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है. पात्र और काल अलग होते हैं मगर घटनाओं में समानताएं काफ़ी होती हैं. तो क्या कांग्रेस उसी दौर से गुज़र रही है जिस दौर से मुग़ल शासक औरंगज़ेब के बाद हिंदुस्तान गुजरा था?
औरंगज़ेब के बाद हिंदुस्तान की गद्दी पर दर्जनों बादशाहों ने राज किया जिसमें सबसे लंबा राज किया रंगीला शाह ने. रंगीला शाह के मुग़लिया कार्यकाल को देखें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान कांग्रेस में आलाकमान कलेवर बदल कर रंगीला शाह बना हुआ है. रंगीला शाह का पूरा नाम मुहम्मद शाह था.मगर जिसे मोहम्मद रंगीला और रंगीला शाह के नाम से जाना जाता था.
रंगीला शाह ने दिल्ली की गद्दी पर 1719 से लेकर 1748 तक राज किया. राज किया या फिर राज को धीरे-धीरे हमेशा के लिए ख़त्म करता चला गया यह ऐतिहासिक विवेचना का प्रश्न है. इसे भी एतिहासिक समानता कहना चाहिए या फिर संयोग कि उस वक़्त रंगीला शाह के सबसे बड़ा सहयोगी और सलाहकार जयपुर को बसाने वाले जयसिंह द्वितीय थे.
रंगीला शाह को जयसिंह द्वितीय ने धीरे धीरे अपने ऊपर इतना निर्भर कर लिया कि आख़िर में जय सिंह उनसे ताक़तवर हो गए और फिर मुगलिया शासन हमेशा के लिए ख़ोखला हो गया. तो क्या जयसिंह द्वितीय की भूमिका में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत रंगीला शाह बने कांग्रेस आलाकमान के सलाहकार से लेकर पहले सहयोगी और फिर उपकार करने वाली भूमिका में आ चुके हैं?
यह सुनने में आपको हास्यास्पद और अविश्वसनीय लगे मगर रंगीला शाह और जय सिंह द्वितीय की जोड़ी मौजूदा कांग्रेस आलाकमान और अशोक गहलोत की जोड़ी की सामानताएं अद्भुत हैं. 1707 औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल शासकों में उत्तराधिकारी के लिए युद्ध चलता रहा और आखिरकार हसन और हुसैन जैसे योद्धाओं के ज़रिए रंगीला शाह की मां ने महज़ 13 साल के मुहम्मद शाह उर्फ़ रंगीला शाह को हिन्दुस्तान की गद्दी पर बैठा दिया.
सिंहासन की इस जंग में जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय मुहम्मद शाह के साथ नहीं थे. मगर जयसिंह चौबीसों घंटे राजनीति करते थे. अपने राजनीतिक चातुर्य और पैसे के बल पर किसी को भी अपना बना लेने की क़ाबिलीयत रखते थे. लिहाज़ा जयपुर के राजा जयसिंह देखते ही देखते रंगीला शाह के बेहद ख़ास हो गए. औरंगज़ेब, जयसिंह के पिता बिशन सिंह से बेहद नफ़रत करता था इसलिए उन्हें अफ़ग़ानिस्तान भेजे रखा था जहां ठंड लगने से उनकी मौत हो गई थी.
मगर 11 साल में जयपुर की गद्दी पर बैठने के बाद जयसिंह ने औरंगज़ेब को भी अपना मुरीद बना लिया था और पहली बार औरंगज़ेब ने हीं सवाई की उपाधि से जयसिंह को नवाज़ा था. अपनी मां और सरदार आसफ़ जहां की वजह से रंगीला शाह सफलतापूर्वक शासन करने लगा तभी मुग़ल शासन को हिन्दुस्तान में पहली चुनौती आगरा के जाटों ने दी.
ऐसा लगने लगा कि जाट राजा चुरामना मुग़ल शासन का ख़ात्मा कर देंगे। तो जयपुर के राजा जयसिंह ने चाल चली और चुरामन की मौत के बाद जाटों के थुन का क़िला ख़त्म कर चुरामन के भतीजे बदन सिंह के साथ मिलकर उसकी बेटे की हत्या करा दी और फिर बदन सिंह को राजा बनाकर भरतपुर के जाट राज घराने को हमेशा के लिए पैसे के बल पर मुग़ल शासन का दोस्त बना दिया.
बिना लड़ाई लड़े जाटों की चुनौती को ख़त्म करने की क़ाबिलीयत देखकर रंगीला शाह जयसिंह का मुरीद हो गया और फिर उन्हें सरमदे-राजा-ए-हिंद की उपाधी दी. अहमद शाह को दूसरी चुनौती मराठों से मिली. मराठा ताक़तवर होकर दिल्ली की तरफ़ बढ़ने लगे थे तब रंगीला शाह ने एक बार फिर से जयसिंह द्वितीय को कमान दी और पहली बार मालवा का सूबेदार कोई हिंदू राजा जयसिंह बना.
जय सिंह लड़ाई लड़ने के बजाए पैसे से समझौता कर मराठों को मनाते गए और मुग़ल शासन कमज़ोर पड़ता गया. मराठों की ताक़त को देखते हुए हैदराबाद के निज़ाम से लेकर अवध के नवाब और बंगाल के नवाबों ने विद्रोह कर दिया. संघर्ष करने के बजाय रंगीला शाह लगान लेने के समझौते करता रहा. रंगीला शाह के राज करने के उदासीनता से परेशान होकर उनका सबसे मज़बूत और भरोसेमंद सेनापति आसफ़ जहां दक्षिण की तरफ़ हैदराबाद चला गया.
उसने रंगीला शाह को बहुत समझाया कि हिन्दुस्तान पर शासन करने के लिए अकबर जैसी बुद्धि और औरंगज़ेब जैसे पराक्रम ज़रूरी है. मगर रंगीला शाह ऐसे दरबारियों से घिर चुका था जिन्हें शासन करने का कोई अनुभव नहीं था और वह उनके सलाह पर चलकर चुनौतियों को स्वीकार करने के बजाए ख़ुद का तख़्त बचाने में लगा रहा.
महान योद्धा आसफ़ जहां थककर दिल्ली छोड़ दिया पर रंगीला शाह ने उसे रोका नहीं. औरंगज़ेब के जाने के बाद 1707 लेकर 1719 तक जिस तरह से मुगलों के अंदर संघर्ष हुआ उसके बाद रंगीला सा इतना डरा हुआ रहता था कोई भी ताक़तवर या क़ाबिल को वह बर्दाश्त नहीं करता था. इस वजह से वह कुर्सी पर बैठा तो रहा मगर बेहद कमज़ोर होता चलागया.
मां रही नहीं. सत्ता को लेकर रंगीला शाह में शुरू से उदासीनता का भाव रहा. हालांकि वह बेहद नेक, दयालु और धर्मनिरपेक्ष बादशाह था. रंगीला शाह के सत्ता में बैठने के पांच साल बाद ही मुग़ल शासन का विघटन शुरू हो गया था पर रंगीला शाह को यह बात कभी समझ में नहीं आयी. जयसिंह ने भी उसकी चमचागीरी में जीजे-मुहम्मद शाही जैसे किताब लिख डाली. मगर सत्ता के प्रति उसकी निरसता से जयसिंह भी परेशान रहने लगे.
पर दिमाग़ का बेहद चतुर जयसिंह ने इसे मौक़े के रूप में देखा और जयसिंह द्वितीय ने जयपुर बसाना शुरू किय. धीरे धीरे भरतपुर से लेकर शेखावटी और गुजरात तक अपनी ताक़त बढाते चले गए. जयसिंह ने समझौते और लगान कमाने के नाम पर मुगलों और दूसरे नवाबों-निज़ामों और रजवाड़ों से खूब पैसे जुटा लिए.
उस पैसे को उन्होंने जयपुर बसाने में लगाया. उस दौर में मुगलिया सल्तनत दिल्ली में सिमट कर रह गई और रियासतों से शासन के बजाए लगान के गठबंधन का रिश्ता बनता चला गया. इस बीच रंगीला शाह ने जय सिंह को राज राजेश्वर, महराज शांतनु और महाराजा सवाई की उपाधि से नवाज़ा. 1727 आते-आते जयसिंह ने मुग़ल शासन को अपनी आंखें दिखानी शुरू कर दी थी और रंगीला शाह जयसिंह पर निर्भर होना शुरू हो गया था.
पेशवा बाजीराव ने मुग़ल शासन को पूरी तरह से घेर लिया था तब 1729 और 1732 में एक बार फिर से जयसिंह को मालवा का सूबेदार बनाया गया. जय सिंह दक्षिण के एकमात्र हिंदू सूबेदार बनाए गए. इसलिए नहीं कि वह मान सिंह जैसे योद्धा थे बल्कि जोड़-तोड़ के जुगाड़ में माहिर थे. पर तब तक जयसिंह समझ चुके थे ये रंगीला शाह खोखला हो चुका है. उसे बस हिन्दुस्तान का शासक बने रहने की ललक बची है मगर क़ाबिलीयत नहीं है.
मराठों ने अपनी राजधानी पूना बनाकर दक्षिण पश्चिम तक अपना शासन स्थापित कर लिया. मालवा के सूबेदार के रूप में जयसिंह ने रंगीला शाह को समझाया कि स्थानीय शासकों से समझौता कर लिया जाए मगर अपने शासन को बचाने के ख़ातिर रंगीला शाह युद्ध करने पर उतारू हुआ और 1737 में हर जगह मात खाता गया.
इस बीच पर्शिया के शासक नादिर शाह को पता लग चुका था कि रंगीला शाह बेहद कमजोर हो चुका है. मगर संपत्ति उसने बहुत बटोर रखी है. लिहाज़ा 1743 में उसने हिन्दुस्तान पर आक्रमण कर दिया. हालात को भांपते हुए जयसिंह ख़ुद को जयपुर में अलग थलग कर पूरे राजस्थान पर राज करने लगे. करनाल के युद्ध में नादिर शाह ने रंगीला शाह को बुरी तरह से हराया.
पराजित शहंशाह को जंजीरों में पूरी दिल्ली में घुमाया. पूरी दिल्ली को बुरी तरह से लूटा खसोटा और सारी संपत्ति लेकर चला गया. अपमानित रंगीला शाह जंग में जान देने के बजाए अपनी कुर्सी बचाने के लिए सारी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त करता रहा पर उसी दिन से सल्तनत के क्षत्रपों ने अपमानित शाहंशाह का साथ छोड़ और उन्होंने आज़ाद रियासत बनाने की शुरुआत कर दी.
मगर रंगीला फिर भी नहीं समझा कि उसका सब कुछ ख़त्म हो गया है.1748 में जब अफगानों के सरदार अहमद शाह अब्दाली ने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया तब मुग़ल शासन के ताबूत में वह आख़िरी कील साबित हुई. रंगीला का शासन हमेशा हमेशा के लिए मुग़लिया सल्तनत को ताबूत में बंद कर गया जिसके अंदर का रखा शव अगले सौ सालों तक हिन्दुस्तान की गद्दी पर शाहंशाह बनकर नामदार के रूप में बैठा रहा.
ठीक उसी तरह कहते हैं कि राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत संजय गांधी की सरपरस्ती में की थी. नरसिम्हा राव ने उन्हें दूसरी बार राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था और तीसरी बार सीता राम केसरी ने बनाया. कहते हैं तब अहमद पटेल सोनिया गांधी के लिए नेताओं की मीटिंग लिया करते थे तो उसमें अशोक गहलोत को बुलाया करते थे. मगर अशोक गहलोत किसी न किसी बहाने आने से इंकार कर देते थे.
मगर सोनिया गांधी जब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी तब अशोक गहलोत मुख्यमंत्री के रूप में सोनिया गांधी की ढाल बने और सबसे मज़बूत सिपेहसलार बने. कहा तो यह भी जाता है कि आर्थिक तंगी झेल रहे कांग्रेस के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भामाशाह की भूमिका भी निभाते हैं. इस दौरान गांधी परिवार कमज़ोर होता चला गया.
अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस आलाकमान को किसी भी तरह की चुनौती देने की अवस्था में हैं और कांग्रेस आलाकमान किसी भी तरह की चुनौती पाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तरफ़ देखने की अवस्था में है. 2014 के मोदी के दिल्ली मार्च के बाद तो कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर निर्भर हो गया है.
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जानते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान की हालत क्या है लिहाज़ा वह अपनी भूमिका राजस्थान में देखने में ही भलाई समझते हैं. अलबत्ता कांग्रेस आलाकमान के सम्मान में क़सीदे गढ़ना भूलते नहीं है. मगर बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वाक़ई में कांग्रेस आलाकमान रंगीला शाह बन चुका है जो आसपास के चाटुकारों से घिरा हुआ है.
क्या वाक़ई में रंगीला शाह की तरह कांग्रेस आलाकमान के अंदर लड़ने और आगे बढ़ने का माद्दा ख़त्म हो गया है. सही है कि अमरिंदर सिंह और अशोक गहलोत तो छोड़िए भूपेश बघेल जैसे लोग भी अपना सिर उठाने लगे हैं, पर क्या कांग्रेस आलाकमान के लिए रंगीला शाह की तरह केवल समझौता करना ही रास्ता बचा है या फिर ये कभी अपने सम्मान के लिए लड़ने के लिए भी तैयार हो पाएगा?
सम्मान पाने के लिए इलाके जीतने होंगे और उसके लिए रणनीति बनानी होगी.मज़बूत सेना की ज़रूरत होगी और इस सबके लिए एक ताक़तवर नेतृत्व की ज़रूरत होगी. पर सच तो यह है कि एक बार आप रंगीला शाह की भूमिका में आ जाते हैं तो फिर अक़बर और औरंगज़ेब बनाना नामुमकिन हो जाता है. रंगीला शाह के बाद भी मुग़लिया सल्तनत सौ साल से ज़्यादा तक चली पर जिस रास्ते पर कांग्रेस चल पड़ी है यह मियाद भी उसके लिए लंबी दिखती है.
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