मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव के परिणाम के बाद बीजेपी में बौखलाहट सी आ गयी है. ये तीन ऐसे राज्य हैं जिन्हें एक दशक से भी ज्यादा से बीजेपी का गढ़ मना जाता था. लेकिन इन तीनों राज्यों में पराजय के बाद अब बीजेपी के भीतर विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं शुरू होने की आशंका हो रही है, कि 'राम मंदिर एजेंडा' 2019 के लोकसभा चुनावों में कितनी कारगार साबित होगा.
इन तीनों राज्यों में बीजेपी की जोर-शोर वाली चुनावी रणनीति असफल रही क्योंकि लोगों ने रोजमर्रा से जुड़े आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के आधार पर मतदान किया. ऐसा माना जा रहा है कि बड़ी संख्या में मतदाताओं ने चुनाव से पहले ही बीजेपी के हिन्दुत्व एजेंडे को राम मंदिर मुद्दे द्वारा बढ़ावा देने की कवायद को परख लिया था. ज्ञात हो कि 1990 के दशक में राम मंदिर मुद्दे ने राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी को एक बड़े खिलाड़ी के रूप में पेश किया था, लेकिन अब वह एक शक्तिशाली चुनावी हथियार नहीं रहा.
अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए आरएसएस और उसके सहयोगियों के मोदी सरकार पर बढ़ते दबाव के कारण बीजेपी ने विकास एजेंडा को दरकिनार कर राम मंदिर मुद्दे को अहमियत देने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन अब बीजेपी को राम मंदिर प्रचार पर अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है.
पार्टी के एक वर्ग को लगता है कि बीजेपी को राम मंदिर मुद्दे पर ज़्यादा जोर नहीं देना चाहिए, वहीं पार्टी के एक दुसरे वर्ग को लगता है कि अपने तीनों गढ़ों में कांग्रेस के हाथ पराजय के बाद पार्टी कमजोर नज़र आ रही है और ऐसे में पार्टी को मजबूत करने के लिए पार्टी वफादारों के समर्थन के लिए राम मंदिर पर अध्यादेश लाना चाहिए.
यदि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी में राम मंदिर...
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव के परिणाम के बाद बीजेपी में बौखलाहट सी आ गयी है. ये तीन ऐसे राज्य हैं जिन्हें एक दशक से भी ज्यादा से बीजेपी का गढ़ मना जाता था. लेकिन इन तीनों राज्यों में पराजय के बाद अब बीजेपी के भीतर विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं शुरू होने की आशंका हो रही है, कि 'राम मंदिर एजेंडा' 2019 के लोकसभा चुनावों में कितनी कारगार साबित होगा.
इन तीनों राज्यों में बीजेपी की जोर-शोर वाली चुनावी रणनीति असफल रही क्योंकि लोगों ने रोजमर्रा से जुड़े आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के आधार पर मतदान किया. ऐसा माना जा रहा है कि बड़ी संख्या में मतदाताओं ने चुनाव से पहले ही बीजेपी के हिन्दुत्व एजेंडे को राम मंदिर मुद्दे द्वारा बढ़ावा देने की कवायद को परख लिया था. ज्ञात हो कि 1990 के दशक में राम मंदिर मुद्दे ने राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी को एक बड़े खिलाड़ी के रूप में पेश किया था, लेकिन अब वह एक शक्तिशाली चुनावी हथियार नहीं रहा.
अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए आरएसएस और उसके सहयोगियों के मोदी सरकार पर बढ़ते दबाव के कारण बीजेपी ने विकास एजेंडा को दरकिनार कर राम मंदिर मुद्दे को अहमियत देने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन अब बीजेपी को राम मंदिर प्रचार पर अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है.
पार्टी के एक वर्ग को लगता है कि बीजेपी को राम मंदिर मुद्दे पर ज़्यादा जोर नहीं देना चाहिए, वहीं पार्टी के एक दुसरे वर्ग को लगता है कि अपने तीनों गढ़ों में कांग्रेस के हाथ पराजय के बाद पार्टी कमजोर नज़र आ रही है और ऐसे में पार्टी को मजबूत करने के लिए पार्टी वफादारों के समर्थन के लिए राम मंदिर पर अध्यादेश लाना चाहिए.
यदि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी में राम मंदिर मुद्दे पर सुनवाई टाल दी तो पार्टी को अपने मंदिर एजेंडे को खेलने के लिए फिर से एक सुनहरा मौका मिल सकता है. पार्टी में एक विपक्ष वर्ग का मानना है कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की प्रक्रिया ने एक 'हिंदू निर्वाचन क्षेत्र' को पैदा किया है और उस क्षेत्र का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कांग्रेस भी राहुल गांधी को एक 'जनेऊ-धारी ब्राह्मण' के रूप में पेश करने में मजबूर हो गयी. वहीं पार्टी का एक दूसरे वर्ग का मानना है कि राम मंदिर मुद्दे को सीमित तरीके से अपनाये, ताकि 'विकास एजेंडा' पीछे ना छूट जाये.
ये भी पढ़ें-
राम मंदिर अभियान को भी उमा भारती कहीं 'नमामि गंगे' तो नहीं बनाना चाहती हैं
ध्रुवीकरण की राजनीति के मास्टर योगी - बीजेपी के आंखों के तारे यूं ही नहीं बने !
बीजेपी बनाम शिवसेना: अयोध्या के अखाड़े में हिन्दुत्व की विरासत पर जंग
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.