दिल्ली की गद्दी पर जमने से पहले नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को शहजादे का खिताब देते रहे हैं, अपने एक भाषण में जब राहुल गांधी लाल किले के सामने चांदनी चौक की ओर इशारा करते हुये कहते हैं कि 'यहां मंदिर है, मस्जिद है और गुरुद्वारा भी है यही हिंदुस्तान है.' तो मुगलकाल के एक असली शहजादे दारा शिकोह की याद आ जाता हैं जिन्हें सदियों पहले अपने विजेता भाई औरंगजेब द्वारा इन्हीं गलियों में ज़ंजीरों से बांधकर जुलूस निकाला गया था. भला इतिहास के दो छोर पर खड़े दो शख्सियतों के बीच क्या समानता हो सकती है? मोटे तौर पर देखा जाये तो कुछ ख़ास नहीं लेकिन कभी-कभी वे अपनी अपनी बुनावट और भूमिकाओं के चलते एक दूसरे के करीब लगने लगते हैं. वैसे तो राहुल गांधी और शहजादा दारा शिकोह में सीधे तौर पर कोई भी समानता नहीं है, दोनों का समय, काल परिस्थितियां बिलकुल अलग है, लेकिन दोनों के अनोखेपन और कुछ समान मूल्यों के माध्यम से इस लेख को आगे बढाया जा सकता है.
दारा शिकोह मुगल बादशाह शाहजहां के सबसे बड़े बेटे और उत्तराधिकारी थे. वे शायद अपने समय के सबसे उदार और सहिष्णु लोगों में से एक थे, उनमें एक दार्शनिक शासक बनने की पूरी सम्भावना थी. वे सभी धर्मों को समानता की नजर से देखते थे, उनकी बहुचर्चित किताब 'मजमा-उल-बहरेन' (दो महासागरों का मिलन) इस बात की तस्दीक है कि वे हिंदू और इस्लाम धर्म के लोगों के बीच शांति और बंधुत्व चाहते थे.
इस किताब में वे इन दोनों धर्मों के बुनियादी मूल्यों में समानताओं की तलाश करते हैं. वे अपने परदादा सम्राट अकबर के नवीन संस्करण की तरह थे लेकिन उनमें अकबर की तरह राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं थी, वे एक उदासीन प्रशासक थे साथ ही युद्ध के मैदान में भी अप्रभावी थे. राहुल गांधी...
दिल्ली की गद्दी पर जमने से पहले नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को शहजादे का खिताब देते रहे हैं, अपने एक भाषण में जब राहुल गांधी लाल किले के सामने चांदनी चौक की ओर इशारा करते हुये कहते हैं कि 'यहां मंदिर है, मस्जिद है और गुरुद्वारा भी है यही हिंदुस्तान है.' तो मुगलकाल के एक असली शहजादे दारा शिकोह की याद आ जाता हैं जिन्हें सदियों पहले अपने विजेता भाई औरंगजेब द्वारा इन्हीं गलियों में ज़ंजीरों से बांधकर जुलूस निकाला गया था. भला इतिहास के दो छोर पर खड़े दो शख्सियतों के बीच क्या समानता हो सकती है? मोटे तौर पर देखा जाये तो कुछ ख़ास नहीं लेकिन कभी-कभी वे अपनी अपनी बुनावट और भूमिकाओं के चलते एक दूसरे के करीब लगने लगते हैं. वैसे तो राहुल गांधी और शहजादा दारा शिकोह में सीधे तौर पर कोई भी समानता नहीं है, दोनों का समय, काल परिस्थितियां बिलकुल अलग है, लेकिन दोनों के अनोखेपन और कुछ समान मूल्यों के माध्यम से इस लेख को आगे बढाया जा सकता है.
दारा शिकोह मुगल बादशाह शाहजहां के सबसे बड़े बेटे और उत्तराधिकारी थे. वे शायद अपने समय के सबसे उदार और सहिष्णु लोगों में से एक थे, उनमें एक दार्शनिक शासक बनने की पूरी सम्भावना थी. वे सभी धर्मों को समानता की नजर से देखते थे, उनकी बहुचर्चित किताब 'मजमा-उल-बहरेन' (दो महासागरों का मिलन) इस बात की तस्दीक है कि वे हिंदू और इस्लाम धर्म के लोगों के बीच शांति और बंधुत्व चाहते थे.
इस किताब में वे इन दोनों धर्मों के बुनियादी मूल्यों में समानताओं की तलाश करते हैं. वे अपने परदादा सम्राट अकबर के नवीन संस्करण की तरह थे लेकिन उनमें अकबर की तरह राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं थी, वे एक उदासीन प्रशासक थे साथ ही युद्ध के मैदान में भी अप्रभावी थे. राहुल गांधी के परदादा जवाहरलाल नेहरु को आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है.
आज उन्हीं के द्वारा रचे गये आधुनिक भारत के विचार को रौंदा जा रहा है. राहुल के विचार भी अपने परदादा से मिलते-जुलते हैं लेकिन दारा की तरह उनमें भी अपने परदादा के मुकाबले राजनीतिक सूझ-बूझ की कमी देखने को मिलती है, दिन-प्रतिदिन के चुनावी राजनीति को लेकर वे उदासीन नजर आते हैं, बहुत पहले ही वे सत्ता को जहर बता चुके हैं.
दोनों को अपने–अपने ज़माने का पप्पू कहा जाता है, लेकिन यह भी माना जाता है कि अगर औरंगज़ेब की जगह दारा शिकोह हिन्दुस्तान का बादशाह बनने में कामयाब हो पाते तो इस उपमहादीप का वर्तमान कुछ और होता.
इसी प्रकार से अगर 2014 या 2019 में राहुल प्रधानमंत्री बन पाने में कामयाब होते तो यकीनन इस देश की दिशा और दशा कुछ और ही होती, कम से कम हम इतने नफरती माहौल में जीने को मजबूर नहीं होते और शायद देश की तरक्की के मामले में हम चीन की तरह छलांगें लगा रहे होते. दारा शिकोह तत्कालीन रूढ़िवादी भारत में उम्मीद की एक हलकी सी रोशनी की तरह थे, पिछले कुछ महीनों से राहुल भी कुछ इसी दिशा में बढ़ते नजर आ रहे हैं.
राहुल गांधी अपनी बहुचर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से पहली बार खुद को इतने प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करने में कामयाब हुये हैं. आज भारत को सबसे ज्यादा जरूरत “बन्धुतत्व” यानी सभी नागरिकों के बीच एकता व भाईचारे की है और राहुल गांधी इसके सबसे बड़े ब्रांड एम्बेसडर के रूप में उभरे है.“नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोल रहा हूँ.” जैसे उनके वाक्य आज हमारे समय की सबसे खूबसूरत पुकार बन चुके हैं.
कन्याकुमारी से कश्मीर तक के 3750 किलोमीटर की यह पदयात्रा राहुल गांधी के अभी तक के राजनीतिक कैरियर पर भारी है, लोगों ने पहली बार सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की जहरीली व आभासी दुनिया से बाहर निकल कर उन्हें इतने करीब से देखा है. लंबे समय बाद देश के किसी शीर्ष नेता ने सामाजिक-सौहार्द व संवैधानिक मूल्यों की रक्षा व करोड़ों भारतीयों के संरक्षण के लिए सड़कों पर उतर कर जनता से संवाद किया है.
अरसे बाद इस देश में अमन, चैन व सभी की प्रगति चाहने वाली ताकतों ने प्रतिक्रिया जताने के बजाये कुछ नया व सकारात्मक किया है. साल 2015 में राहुल गांधी जब अपनी किसी छुट्टी पर बाहर गये थे तो मेघालय के तत्कालीन सीएम मुकुल संगमा ने उनकी तुलना “अल्फ्रेड द ग्रेट” से की थी, 1100 साल पहले इंग्लैंड का एक राजा जो जंग हारने के बाद रहस्यमय तरीके से गायब हो गया था लेकिन जब वापस आया तो उसने हर मोर्चे पर जीत हासिल की थी.
राहुल गांधी अभी तक 'अल्फ्रेड द ग्रेट' नहीं बन पाए हैं लेकिन यह यात्रा उनके लिए एक तपस्या और स्वयं के खोज की तरह रही है. इस यात्रा ने उन्हें एक ऐसे राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित होने में मदद की है जिसके सरोकार चुनावी राजनीति के गुणा-भाग से ऊपर हैं. इस यात्रा की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि राहुल गांधी के विरोधियों द्वारा भी इसे एक राजनीतिक स्टंट के रूप में नहीं देखा गया.
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उन्होंने खुद को खोल कर रख दिया. इससे पहले उनकी छवि एक ऐसे अनइच्छुक, अगंभीर, बेपरवाह, कमअक्ल और ‘पार्ट टाइम पॉलीटिशियन’ राजनेता की बन गयी थी जो यहां सिर्फ हारने के लिए ही टिका है. उनके जितना मजाक शायद ही किसी और राजनेता का बनाया गया हो, वे ट्रोल सेना के फेवरेट रहे है.
राहुल गांधी की यह छवि ऐसे ही नहीं बनी, राहुल के ही शब्दों में कहें तो 'मुझे ग़लत और असत्य तरीके से दिखाने के प्रयास में मीडिया में हज़ारों करोड़ रुपए और बहुत अधिक ऊर्जा ख़र्च की गई है.' इस यात्रा के माध्यम से राहुल ने अपने लिये बनायी गयी इस छवि को उतार कर फेंक किया है और सत्य व जिन मूल्यों के लिये वो खड़े हैं उसे सबके सामने लाने में कामयाब रहे हैं.
राजनीति का मकसद केवल चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करना नहीं हैं बल्कि इसके कहीं अधिक व्यापक उद्देश्य होते हैं, भारत जोड़ो यात्रा इन्हीं व्यापक उद्देश्यों को साधने में कामयाब हुई हैं. देश में विचारधाराओं का टकराव अपने चरम पर है, वर्तमान और आने वाले समय का भारत कैसे होगा इसको लेकर कशमश अपने चरम पर हैं, पिछले कुछ दशकों के दौरान हिन्दुतत्व की विचारधारा सब पर भारी पड़ती नजर आयी है.
इस यात्रा से पहली बार एक काउंटर नैरेटिव आकार लेती नजर आ रही है. किसी भी मुल्क के लिए उसकी भौगोलिक सीमाएं जुड़ी रहने के साथ साथ वहां रहने वाले बाशिंदों के दिलों का जुड़े रहना भी बहुत जरूरी है. राहुल गांधी अपने इस यात्रा के माध्यम से यह सन्देश देने में कामयाब रहे हैं कि देश में नफरत फैलाना और अपने हमवतनों पर हमला करना देश विरोधी काम है.
इसी प्रकार वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि स्थल जाकर यह सन्देश देने में कामयाब होते हैं कि भारतीय राजनीति में सहिष्णुता के मूल्यों को वापस लाना कितना बुनियादी है. राहुल गांधी की इस यात्रा ने आपसी अविश्वास से जूझ रहे भारत के नागरिकों को एक प्यार भरा स्पर्श देने का काम किया ही है साथ ही पस्त पड़ चुके सिविल सोसाइटी को हौंसला देने का काम भी किया है.
इस यात्रा के माध्यम से राहुल गांधी ने एक राजनीतिक परिवार से जुड़े विशेषाधिकार वाले नेता की छवि को तोड़ दिया है. वे एक स्टेट्समैन बन कर उभरे हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितयों के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं है और जो अपनी खुद की मेहनत के बल पर अपना मुकाम बनाने की कोशिश कर रहा है.
उन्होंने शहजादे के खिताब को वापस कर दिया है और पुराने राहुल गांधी को बहुत पीछे छोड़ आये हैं, उन्होंने खुद को अपनी ही पार्टी और चुनावी राजनीति के दायरे से बाहर कर लिए है, ये वही फार्मूला है जो कभी महात्मा गांधी ने अपनाया था. अगर राहुल गांधी का असली रूप यही है तो वे भारतीय राजनीति के लिए बहुत खास हैं और उन्हें नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं लिया जा सकता है. अंततः राहुल गांधी को अपना कनेक्ट मिल गया है जिसके माध्यम से वे हिंदू राष्ट्रवाद का जवाब पेश कर रहे हैं ये वही जवाब है जो सदियों पहले शहजादे दाराशिकोह द्वारा सुझाया गया था.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.