1964 की मई में 27 तारीख को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत, असल में आजादी के बाद सही दिशा की तलाश में भटक रहे समूचे देश के लिए पहाड़ जैसा झटका था. आजादी के दो दशक भी ठीक से पूरे नहेने हुए थे और इसी दौरान कश्मीर में पाकिस्तान और चीन की सीमा पर अनिच्छा के बावजूद देश को युद्ध करना पड़ा था. दोनों युद्धों से जो जख्म मिले उसे बताने की जरूरत नहीं है. नेहरू जैसे राजनीतिक वटवृक्ष का ढहना, नेहरू गांधी परिवार के लिए भी मुसीबत से कम नहीं था. कहते हैं कि नेहरू सैलरी भी नहीं लेते थे और उनका परिवार उनकी किताबों की रॉयल्टी वगैरह पर पल रहा था. पिता की मृत्यु- पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए तो दोहरे झटके की तरह थी.
इंदिरा कई मायनों में पिता की तरह ही आधुनिक ख्यालों को मानने वाली मजबूत महिला थीं. उन्होंने उस जमाने में कान्वेंट स्कूल से प्राइमरी की भी पढ़ाई की थी. हालांकि उच्च शिक्षित इंदिरा ने करियर की कोई अलग राह नहीं पकड़ी बल्कि पिता के साथ ही राजनीति में सक्रिय रहीं. उनकी इच्छा बिल्कुल नहीं थी कि वे कभी राजनीति में आए. बल्कि वो एक शांतिपूर्ण और अराजनीतिक जीवन बिताना चाहती थीं. कैथरीन फ्रैंक ने पूर्व प्रधानमंत्री की बायोग्राफी "इंदिरा" में नेहरू के बाद उनके जीवन को बहुत विस्तार से कहा है. यह भी बताया है कि कैसे पिता की मौत के बाद राजनीति से दूर भागने वाली इंदिरा को मजबूरन राजनीति के 'काजल की कोठारी' में उतरना पड़ा.
तो नेहरू की मौत के बाद इंदिरा सिर्फ घर की वजह से राजनीति में दाखिल हुईं
यहां बताने की जरूरत नहीं कि पिता की मौत से पहले ही उनके पति फिरोज गांधी का भी निधन हो चुका था. वैसे भी इंदिरा बहुत पहले से ही पति से अलग...
1964 की मई में 27 तारीख को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत, असल में आजादी के बाद सही दिशा की तलाश में भटक रहे समूचे देश के लिए पहाड़ जैसा झटका था. आजादी के दो दशक भी ठीक से पूरे नहेने हुए थे और इसी दौरान कश्मीर में पाकिस्तान और चीन की सीमा पर अनिच्छा के बावजूद देश को युद्ध करना पड़ा था. दोनों युद्धों से जो जख्म मिले उसे बताने की जरूरत नहीं है. नेहरू जैसे राजनीतिक वटवृक्ष का ढहना, नेहरू गांधी परिवार के लिए भी मुसीबत से कम नहीं था. कहते हैं कि नेहरू सैलरी भी नहीं लेते थे और उनका परिवार उनकी किताबों की रॉयल्टी वगैरह पर पल रहा था. पिता की मृत्यु- पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए तो दोहरे झटके की तरह थी.
इंदिरा कई मायनों में पिता की तरह ही आधुनिक ख्यालों को मानने वाली मजबूत महिला थीं. उन्होंने उस जमाने में कान्वेंट स्कूल से प्राइमरी की भी पढ़ाई की थी. हालांकि उच्च शिक्षित इंदिरा ने करियर की कोई अलग राह नहीं पकड़ी बल्कि पिता के साथ ही राजनीति में सक्रिय रहीं. उनकी इच्छा बिल्कुल नहीं थी कि वे कभी राजनीति में आए. बल्कि वो एक शांतिपूर्ण और अराजनीतिक जीवन बिताना चाहती थीं. कैथरीन फ्रैंक ने पूर्व प्रधानमंत्री की बायोग्राफी "इंदिरा" में नेहरू के बाद उनके जीवन को बहुत विस्तार से कहा है. यह भी बताया है कि कैसे पिता की मौत के बाद राजनीति से दूर भागने वाली इंदिरा को मजबूरन राजनीति के 'काजल की कोठारी' में उतरना पड़ा.
तो नेहरू की मौत के बाद इंदिरा सिर्फ घर की वजह से राजनीति में दाखिल हुईं
यहां बताने की जरूरत नहीं कि पिता की मौत से पहले ही उनके पति फिरोज गांधी का भी निधन हो चुका था. वैसे भी इंदिरा बहुत पहले से ही पति से अलग अपने दोनों बेटों (संजय गांधी और राज्दीव गांधी) के साथ तीन मूर्ति में रहा करती थीं. दिल्ली में तीन मूर्ति, प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू का आवास हुआ करता था. उनकी मौत के बाद इसे संग्रहालय का रूप देने की तैयारी होने लगी. स्वाभाविक है कि इंदिरा को यह घर छोड़ना पड़ता. वैसे भी नेहरू परिवार ने पहले ही इलाहाबाद के अपने आवासों को दान दे दिया था जिसे नेहरू के पिता मोतीलाल ने बनाया था. नेहरू का पूरा जीवन स्वतंत्रता संग्राम में ही निकल गया और पिता की तरह उन्हें रोजी रोजगार और प्रॉपर्टी बनाने का मौका नहीं मिला. उनके जीवन का ज्यादातर समय स्वतंत्रता संग्राम, जेलों में और किताब लिखते हुए बीता.
इंदिरा के पास कमाई का जरिया नहीं था. नेहरू की किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी से उनका खर्च निकलता था. कहने की बात नहीं कि रॉयल्टी में दिल्ली जैसे शहर में नेहरू की बेटी दो बच्चों जिम्मा ठीक तरह से उठा सके. घर का संकट बड़ा था. रहने के लिए घर कहां और कैसे लिया जाए? जब नेहरू की मौत के इंदिरा से मंत्री बनने के लिए पूछा गया, उन्होंने साफ मना कर दिया था. बाद में तीन मूर्ति संग्रहालय बनने के बाद इंदिरा ने सिर्फ इसलिए मंत्री बनना स्वीकार किया कि इस बहाने उन्हें और बच्चों को दिल्ली में एक छत तो मिल ही जाएगी.
इंदिरा 1964 में सूचना और प्रसारण मंत्री बनकर लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में शामिल हुईं. मंत्री बनने के बाद दिल्ली के सफ़दरजंग इलाके में उन्हें सरकारी घर मिला. इंदिरा भले ही सूचना और प्रसारण मंत्री थीं, मगर शायद यह घर उनकी पसंद का था. क्योंकि आगे शास्त्री के निधन के बाद जब वे प्रधानमंत्री बनीं आख़िरी वक्त तक इसी घर में रहीं. इसी घर में उनके नाती-पोतों (प्रियंका-राहुल-वरुण) के बचपन का बड़ा हिस्सा गुजरा. और यहीं उनपर जानलेवा हमला हुआ जिसकी वजह से उनकी मौत हो गई.
खस्ता हालत में गांधी परिवार के पास यंग इंडिया की करोड़ों की संपत्ति कैसे?
नेहरू के पिता ने समूची संपत्ति दान कर दी. नेहरू जिंदगी भर फ्रीडम फाइटर और बाद प्रधानमंत्री के रूप में निस्वार्थ भावना से सेवा करते रहे. इंदिरा को भी कभी कारोबार करने या संपत्ति बनाने का मौका नहीं मिला. लोगों को सवाल परेशान कर सकता है कि धन नहीं कमाया और संपत्ति नहीं बनाई, फिर आज की तारीख में गांधी परिवार के वारिसों के पास अकूत संपत्ति कहां से आ गई? और नेशनल हेराल्ड के जिस मामले में राहुल गांधी से ईडी लगातार दो दिनों से पूछताछ कर रही है- अकेले वह कितने हजार करोड़ रुपये की संपत्ति है. उसका मालिक कौन है? असल में चीजों को समझने के लिए इंदिरा से पीछे नेहरू और ब्रिटिश भारत के दौर में लौटना पड़ेगा.
नेहरू ने 1937 में एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड नाम की कंपनी बनाई थी. यह कंपनी अंग्रेजी अखबार 'नेशनल हेराल्ड' का प्रकाशन करती थी. कंपनी उर्दू में कौमी एकता और हिंदी में 'नवजीवन' का भी प्रकाशन करती थी. एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड में नेहरू और 5000 स्वतंत्रता सेनानी शेयरहोल्डर्स थे. वही कंपनी के बोर्ड अध्यक्ष भी थे. हालांकि कंपनी पर किसी एक व्यक्ति का मालिकाना नहीं था. अखबार का मकसद स्वतंत्रता संग्राम की गति तेज करना था. हालांकि 1942 तक अखबार का कंटेट अंग्रेजों को परेशान करता रहा. आखिरकार आजिज आकर अंग्रेजों ने नेशनल हेराल्ड को प्रतिबंधित करने का फैसला लिया.
एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड के अखबारों का दोबारा प्रकाशन 1945 में फिर शुरू हुआ. नेहरू खुद सम्पादकीय लिखते थे और उस दौरान कई मशहूर हस्तियों ने नेशनल हेराल्ड के लिए लिखा. हालांकि जब नेहरू प्रधानमंत्री बने उन्होंने एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड में बोर्ड अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. बावजूद अखबार का प्रकाशन जारी रहा और तीनों भाषाओं में एक से बढ़कर एक दिग्गज सम्पादक बने. आजादी के बाद 1962 में दिल्ली-मथुरा रोड पर एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड को 0.3365 एकड़ जमीन दी गई. 1967 में इसे स्थायी लीज डीड के रूप में तब्दील कर दिया गया और शर्त रखी गई कि कंपनी भूखंड-भवन का किसी और रूप में इस्तेमाल नहीं करेगी. यानी अखबार का ही प्रकाशन होगा.
कैसे सोनिया-राहुल गांधी की यंग इंडिया तक पहुंची स्वतंत्रता सेनानियों की बनाई 'संपत्ति'
सबकुछ ठीक चलता रहा. लेकिन केंद्र की सत्ता से करीब एक दशक के बनवास के बाद जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में कांग्रेस की वापसी हुई- एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड के अखबारों का प्रकाशन बंद कर दिया गया. कहा गया कि कंपनी जबरदस्त घाटे में है. 2010 में एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड के 1057 शेयर होल्डर्स थे जो स्थापना के वक्त 5000 थे. 2011 में एक और बड़ा बदलाव हुआ एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड की होल्डिंग को यंग इंडिया लिमिटेड नाम की कंपनी को ट्रांसफर कर दिया गया.
दिलचस्प है कि मात्र पांच लाख रुपये की लागत से यह कंपनी 2010 में बनी और राहुल गांधी को डायरेक्टर बनाया गया. कंपनी के 38-38 फीसदी शेयर राहुल और उनकी मां सोनिया गांधी के नाम थे. बाकी के 24 फीसदी शेयर गांधी परिवार के खासमख़ास मोतीलाल वोरा, ऑस्कर फर्नांडीज, पत्रकार सुमन दुबे, और सैम पित्रोदा के नाम रहे. कांग्रेस यंग इंडिया लिमिटेड को एक अलाभकारी कंपनी बताती है.
यह मामला तब सुर्ख़ियों में आया जब 2012 में भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने मामले में शिकायत दर्ज करवाई. उन्होंने आरोप लगाए कि यंग इंडिया कंपनी का निर्माण कर बहुत चालाकी से एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड की संपत्ति का अधिग्रहण किया गया जो कि गैरकानूनी है. उनका दावा था कि यह संपत्ति करीब करीब 2000 करोड़ रुपये की है. कांग्रेस की तरफ से एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड को 90 करोड़ का लोन देने का भी आरोप लगाया गया. कांग्रेस विरोधी नेताओं का आरोप है कि अवैध तरीके से सम्पति का बंदरबाट करने की कोशिशें हुईं. मामला चूंकि जांच के दायरे में है. लेकिन यह सवाल बड़ा है कि जब किसी कंपनी की प्रॉपर्टी पर किसी एक व्यक्ति का हक़ नहीं था. फिर कैसे वह गांधी परिवार और उनके चुनिंदा करीबियों के पास गई.
यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया, प्रियंका और राहुल ने जब कभी बड़ी नौकरी या कारोबार करते नहीं दिखे तो आज की तारीख में उनके नाम बड़े पैमाने कीमती संपत्तियां कैसे हैं?
अभी कुछ ही साल पहले बंद पड़े अखबारों का प्रकाशन फिर से शुरू हुआ है. कांग्रेस विचारधारा को समर्पित संपादक और पत्रकार अखबारों को चला रहे हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.