ब्रिगेड ग्राउंड कोलकाता के मंच से बताया गया कि यूनाइटेड इंडिया रैली का अगला पड़ाव आंध्र प्रदेश का अमरावती होगा. अमरावती के बाद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली रैली के लिए भी तत्काल सहमति दे दी. साथ ही, ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव से यूपी में और तेजस्वी यादव से बिहार में भी कोलकाता की तर्ज पर रैलियां कराने की सलाह दी, इस वादे के साथ कि सारे के सारे नेता वैसे ही आगे होने वाली रैलियों में भी पहुंचेंगे.
ममता की रैली पर जो सवालिया निशान लगे हैं, वे आगे होने वाली रैलियों पर भी अपनेआप लागू होते हैं - तब तक जब तक कि कुछ सवालों के ठीक ठीक जवाब नहीं मिल जाते. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या आगे की रैलियों में भी विपक्षी नेताओं का वैसा ही रवैया रहेगा जैसा ममता की रैली को लेकर परहेज दिखाया. आगे की रैलियों की कामयाबी काफी हद तक इन्हीं बातों पर निर्भर करेगी.
कैसी होगी अमरावती रैली?
अमरावती में प्रस्तावित रैली को लेकर फिलहाल जो तस्वीर उभर रही है वो काफी हद तक कर्नाटक के करीब है. कर्नाटक में मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण के मौके पर सोनिया गांधी और मायावती की तस्वीर तो वायरल हुई ही थी - विपक्ष के उतने नेता एक फ्रेम में कभी नहीं देखने को मिले हैं. ममात की रैली में भी नहीं. वैसे कुमारस्वामी के शपथग्रहण का मौका था तो राजनीति का हिस्सा लेकिन वो काफी हद तक शादी या बर्थडे पार्टी जैसे आयोजनों के करीब भी रहा. कुमारस्वामी के शपथग्रहण में सिर्फ वे ही नेता नहीं पहुंचे थे जिन्होंने ममता बनर्जी की रैली में अपने प्रतिनिधि तक भी नहीं भेजे थे. एआईएडीएमके, बीजेडी, टीआरएस और पीडीपी जैसे दलों के नेता. कर्नाटक में तो सीताराम येचुरी भी दिखे थे, लेकिन ममता ने तो सीपीआई और सीपीएम को बुलाया ही नहीं था. जरूरी नहीं कि अमरावती में भी ये नियम लागू हो क्योंकि कोलकाता में ममता बनर्जी के सामने राजनीतिक मजबूरी रही. ठीक वैसी ही मजबूरी कांग्रेस नेतृत्व के सामने भी रही क्योंकि पश्चिम बंगाल कांग्रेस के नेता नहीं चाहते थे कि राहुल गांधी रैली का हिस्सा बनें.
ब्रिगेड ग्राउंड कोलकाता के मंच से बताया गया कि यूनाइटेड इंडिया रैली का अगला पड़ाव आंध्र प्रदेश का अमरावती होगा. अमरावती के बाद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली रैली के लिए भी तत्काल सहमति दे दी. साथ ही, ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव से यूपी में और तेजस्वी यादव से बिहार में भी कोलकाता की तर्ज पर रैलियां कराने की सलाह दी, इस वादे के साथ कि सारे के सारे नेता वैसे ही आगे होने वाली रैलियों में भी पहुंचेंगे.
ममता की रैली पर जो सवालिया निशान लगे हैं, वे आगे होने वाली रैलियों पर भी अपनेआप लागू होते हैं - तब तक जब तक कि कुछ सवालों के ठीक ठीक जवाब नहीं मिल जाते. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या आगे की रैलियों में भी विपक्षी नेताओं का वैसा ही रवैया रहेगा जैसा ममता की रैली को लेकर परहेज दिखाया. आगे की रैलियों की कामयाबी काफी हद तक इन्हीं बातों पर निर्भर करेगी.
कैसी होगी अमरावती रैली?
अमरावती में प्रस्तावित रैली को लेकर फिलहाल जो तस्वीर उभर रही है वो काफी हद तक कर्नाटक के करीब है. कर्नाटक में मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण के मौके पर सोनिया गांधी और मायावती की तस्वीर तो वायरल हुई ही थी - विपक्ष के उतने नेता एक फ्रेम में कभी नहीं देखने को मिले हैं. ममात की रैली में भी नहीं. वैसे कुमारस्वामी के शपथग्रहण का मौका था तो राजनीति का हिस्सा लेकिन वो काफी हद तक शादी या बर्थडे पार्टी जैसे आयोजनों के करीब भी रहा. कुमारस्वामी के शपथग्रहण में सिर्फ वे ही नेता नहीं पहुंचे थे जिन्होंने ममता बनर्जी की रैली में अपने प्रतिनिधि तक भी नहीं भेजे थे. एआईएडीएमके, बीजेडी, टीआरएस और पीडीपी जैसे दलों के नेता. कर्नाटक में तो सीताराम येचुरी भी दिखे थे, लेकिन ममता ने तो सीपीआई और सीपीएम को बुलाया ही नहीं था. जरूरी नहीं कि अमरावती में भी ये नियम लागू हो क्योंकि कोलकाता में ममता बनर्जी के सामने राजनीतिक मजबूरी रही. ठीक वैसी ही मजबूरी कांग्रेस नेतृत्व के सामने भी रही क्योंकि पश्चिम बंगाल कांग्रेस के नेता नहीं चाहते थे कि राहुल गांधी रैली का हिस्सा बनें.
अमरावती रैली के होस्ट चंद्रबाबू नायडू होंगे और तेलंगाना चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की केमिस्ट्री तो सार्वजनिक रूप से देखी ही जा चुकी है. ममता बनर्जी को तो रहना ही है, सवाल सिर्फ मायावती को लेकर रह जाता है.
कैसा होगा दिल्ली रैली का नजारा?
ऐसा लगता है अमरावती से भी पहले दिल्ली रैली की तारीख आ जाएगी. वैसे भी अरविंद केजरीवाल ने तो कोलकाता में महफिल ही लूट डाली. मोदी सरकार पर ठीक उसी अंदाज में हमला बोला जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे बीजेपी नेता विरोधियों पर टूट पड़ते हैं. केजरीवाल ने भी बीजेपी के ही हथियारों का इस्तेमाल किया - 70 साल, पाकिस्तान और सच्चा देशभक्त.
दिल्ली रैली के लिए वेन्यू तो रामलीला मैदान पक्का मान कर चलना चाहिये, सूत्रों के हवाले से खबर तो यही आ रही है. तारीख का तो नहीं पता, लेकिन समय सीमा फरवरी का महीना मान कर विचार विमर्श शुरू हो चुका है.
दिल्ली का नजारा अमरावती से अलग हो सकता है लेकिन कोलकाता के करीब जरूर होगा, ऐसा लगता है. बाकी बातों के अलावा मायावती को प्रधानमंत्री पद के दावेदारों से परहेज हो सकती है. चंद्रबाबू नायडू हैं तो सीनियर और सक्षम नेता लेकिन फिलहाल जिस तरह वो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, खुल कर प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई इरादा नहीं जताया है. अरविंद केजरीवाल हैं तो ममता बनर्जी के दोस्त लेकिन कुर्सी के मामले में उनकी भी वही सोच होगी. अगर रैली में हिस्सेदारी को लेकर मायावती कोलकाता फॉर्मूला ही अपनाती हैं तो अपने लिए दिल्ली कहीं दूर न हो जाये ये सोचकर दिल्ली रैली से दूरी भी बना सकती हैं.
रहा सवाल राहुल गांधी का तो उनके भी शामिल होने की संभावना कम ही लगती है. वजह दिल्ली सरकार का राजीव गांधी को भारत रत्न वापस लेने वाला प्रस्ताव नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी के साथ होते होते रह गया गठबंधन है. दिल्ली में केजरीवाल के कट्टर विरोधी अजय माकन की जगह अब शीला दीक्षित जरूर आ चुकी हैं, लेकिन वो तो वही करेंगी जो आलाकमान करने को कहेगा. ये बात भी आप के मामले में उन्हीं की बतायी हुई है.
दिल्ली में भी विपक्षी नेताओं का मजमा अच्छा लगेगा. जब केजरीवाल के एलडी ऑफिस में धरने के वक्त राज्यों के मुख्यमंत्री राजधानी में माहौल बनाकर शोर मचा सकते हैं तो रामलीला मैदान तो आप की पैदाइश का नर्सिंम होम ही है.
यूपी-बिहार की रैलियों में क्या खास होगा?
रैली अगर यूपी में होती है तो मायावती के बगैर तो होने से रही. अगर मायावती को प्रधानमंत्री पद के मौजूदा दावेदारों से वास्तव में पूरा परहेज है तो बात ही और है. फिर तो मान कर चलना चाहिये कि यूपी में कतई नहीं होने वाली. मौजूदा केमिस्ट्री देख कर तो ऐसा भी नहीं लगता कि अखिलेश यादव अपने बूते यूपी में विपक्ष की ऐसी कोई रैली कर पाएंगे, या मायावती के मना कर देने पर हिम्मत भी जुटा पाएंगे.
ये तो साफ है कि यूपी में रैली होने पर मल्लिकार्जुन खड़के ही जायें या फिर उनकी जगह कोई और जाये क्योंकि राहुल गांधी या सोनिया गांधी के जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. जिस तरह की राजनीतिक सीमा रेखाएं दिल्ली रैली में होंगी, यूपी-बिहार की रैलियां अलग नहीं होंगी. अभिषेक मनु सिंघवी के कोलकाता जाने की एक वजह रही पश्चिम बंगाल से उनका राज्य सभा सदस्य होना. फिर तो जरूरी नहीं कि वो यूपी जायें ही.
बड़ा सवाल ये है कि ममता बनर्जी ने सलाह तो दे डाली, लेकिन क्या यूपी रैली में वो खुद शामिल भी होंगी? मायावती के बुलावे के हिसाब से देखें तो लगता नहीं. लेकिन अखिलेश का न्योता तो टालना ममता बनर्जी के लिए भी मुश्किल होगा - फिर तो बड़े दिल के साथ जा भी सकती हैं.
यूपी जैसा ही हाल बिहार रैली का भी होने वाला है. जिस तरह से तेजस्वी यादव ने मायावती का आशीर्वाद लिया है वो तो चाहेंगे ही कि बिहार में कोई रैली करें तो मायावती फिर वैसे ही आशीर्वाद देने पहुंचे - और इसकी पूरी संभावना बनती भी है.
जहां तक राहुल गांधी का सवाल है तो उनकी हिस्सेदारी को लेकर कुछ शर्तें हो सकती हैं. सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने आरजेडी की पटना रैली से दूरी बना ली थी, लेकिन उसकी वजह लालू प्रसाद रहे जिनके सजा काटने जेल जाने की आशंका थी और वही हुआ भी. फिलहाल तो ऐसी कोई बात नहीं है और नेताओं को लालू जैसा परहेज तेजस्वी से है भी नहीं.
बिहार में रैली होने की सूरत में अगर राहुल गांधी सहमति देते हैं तो तेजस्वी यादव उनके लिए खास व्यवस्था भी कर सकते हैं. मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड के बाद जब तेजस्वी यादव ने दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया था तो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल दोनों शामिल हुए थे. तेजस्वी को बस इतना मैनेज करना पड़ा था कि दोनों नेताओं के आने जाने का वक्त टकराये नहीं. हालांकि, कुछ दिन बाद ही उसी जगह किसानों के प्रदर्शन के दौरान राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने मंच भी साझा किया था.
विपक्ष के नेताओं में सिर्फ प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी ही नहीं, एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह भी यूनाइटेड इंडिया अलाएंस की राह में बड़ा चैलेंज है. ममता बनर्जी की रैली में कई क्षेत्रीय दलों के नेता नहीं शामिल हुए. तमिलनाडु की एआईएडीएमके और जम्मू-कश्मीर की पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती रैली से दूर रहीं और यही हाल ओडिशा में बीजेडी के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और तेलंगाना में टीआरएस सीएम के चंद्रशेखर राव का भी रहा - आगे भी ये इस जमात का हिस्सा बनेंगे फिलहाल तो ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है. केसीआर ने तो ममता बनर्जी से हाल ही में मुलाकात भी की थी और चाहते थे कि ममता बनर्जी मीडिया के साथ आकर को कोई बयान दें, लेकिन ममता बनर्जी तैयार नहीं हुईं तो उन्हें अकेले ही मीडिया के सामने आना पड़ा.
ममता की रैली में कुछ खूबियां भी देखने को मिलीं जो तीसरे मोर्चे की पुरानी बैठकों से अलग लगती हैं. कई नेताओं ने बलिदान देने की बात कही इस बात पर जोर देते हुए कि मकसद प्रधानमंत्री कौन बने ये नहीं, बल्कि मोदी सरकार को हटाना होना चाहिये. ये भी है कि बुजुर्ग नेताओं को जेपी और आचार्य कृपलानी जैसे नेतृत्व की कमी महसूस हो रही है.
लगता है अरुण शौरी ने यूनाइटेड इंडिया अलाएंस की असली चुनौती भांप ली है जो उनकी सलाह से निकलती है. अरुण शौरी का जोर इस बात पर रहा कि हर रैली में सभी नेता खुद पहुंचें - और नुमाइंदे तो कतई न भेजें. क्या जेपी और कृपलानी जैसे नेतृत्व की गैरमौजूदगी में जिन नेताओं पर मोदी सरकार को चैलेंज करने की जिम्मेदारी है वो अरुण शौरी की बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने को तैयार हैं - यूनाइटेड इंडिया गठबंधन के खड़े हो पाने को लेकर यही सबसे बड़ा सवाल भी है - और चुनौती भी.
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