आचार संहिता चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही लागू हो जाती है उस हिसाब से देश में आचार संहिता लागू है और चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक यानी 23 मई, 2019 तक लागू ही रहेगी.
आदर्श आचार संहिता के अंतर्गत बहुत सी बातों का ख्याल रखना होता है. साधारण शब्दों में समझें तो चुनावों से ठीक पहले वोटरों को प्रभावित करने वाली हर चीज बैन हो जाती है. ऐसे में अगर चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी की बोयोपिक फिल्म देश में रिलीज़ होती है तो क्या उसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना जाएगा? विपक्ष इस मुद्दे को लेकर चुनाव आयोग भी गया लेकिन 5 अप्रैल को रिलीज़ होने वाली ये फिल्म अब 11 अप्रेल को रिलीज़ हो रही है. यानी ठीक उसी दिन जिस दिन देश भर में पहले चरण का मतदान है. न चुनाव आयोग ने इसे रोक और न अदालत ने. क्यों? क्योंकि freedom of speech के आगे किसी भी चीज की कोई कीमत नहीं रह जाती. चुनाव आयोग की आचार संहिता की भी नहीं.
चुनाव है तो प्रचार होना स्वाभाविक है. लेकिन चुनाव के दो दिन पहले हर तरह के प्रचार पर रोक लग जाती है, लेकिन 11 अप्रेल को मोदी की बायोपिक रिलीज हो रही है. क्या ये बेमानी नहीं है. इस मामले पर बहस करते हुए विवेक ओबेरॉय ने कहा था कि उन्हें कभी भी, किसी भी मामले पर फिल्म बनाने का, और उसे कभी भी रिलीज़ करने का अधिकार है. विवेक ने तो आजतक के जर्नलिस्ट से भी बहस कर ली थी कि इस हिसाब से तो आपका शो भी नहीं होना चाहिए क्योंकि आप भी ओपिनियन मेकर हैं.
विवेक ने माना ही नहीं कि मोदी बायोपिक के लिए बीजेपी से फंडिंग ली गई. और वो शिद्दत से अपनी फिल्म को डिफेंड करते रहे. उस समय वो ऐसे बात कर रहे थे जैसे भाजपा के प्रवक्त हों. लेकिन जब बीजेपी ने गुजरात में...
आचार संहिता चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही लागू हो जाती है उस हिसाब से देश में आचार संहिता लागू है और चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक यानी 23 मई, 2019 तक लागू ही रहेगी.
आदर्श आचार संहिता के अंतर्गत बहुत सी बातों का ख्याल रखना होता है. साधारण शब्दों में समझें तो चुनावों से ठीक पहले वोटरों को प्रभावित करने वाली हर चीज बैन हो जाती है. ऐसे में अगर चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी की बोयोपिक फिल्म देश में रिलीज़ होती है तो क्या उसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना जाएगा? विपक्ष इस मुद्दे को लेकर चुनाव आयोग भी गया लेकिन 5 अप्रैल को रिलीज़ होने वाली ये फिल्म अब 11 अप्रेल को रिलीज़ हो रही है. यानी ठीक उसी दिन जिस दिन देश भर में पहले चरण का मतदान है. न चुनाव आयोग ने इसे रोक और न अदालत ने. क्यों? क्योंकि freedom of speech के आगे किसी भी चीज की कोई कीमत नहीं रह जाती. चुनाव आयोग की आचार संहिता की भी नहीं.
चुनाव है तो प्रचार होना स्वाभाविक है. लेकिन चुनाव के दो दिन पहले हर तरह के प्रचार पर रोक लग जाती है, लेकिन 11 अप्रेल को मोदी की बायोपिक रिलीज हो रही है. क्या ये बेमानी नहीं है. इस मामले पर बहस करते हुए विवेक ओबेरॉय ने कहा था कि उन्हें कभी भी, किसी भी मामले पर फिल्म बनाने का, और उसे कभी भी रिलीज़ करने का अधिकार है. विवेक ने तो आजतक के जर्नलिस्ट से भी बहस कर ली थी कि इस हिसाब से तो आपका शो भी नहीं होना चाहिए क्योंकि आप भी ओपिनियन मेकर हैं.
विवेक ने माना ही नहीं कि मोदी बायोपिक के लिए बीजेपी से फंडिंग ली गई. और वो शिद्दत से अपनी फिल्म को डिफेंड करते रहे. उस समय वो ऐसे बात कर रहे थे जैसे भाजपा के प्रवक्त हों. लेकिन जब बीजेपी ने गुजरात में लोकसभा चुनाव प्रचार के लिए अपनी लिस्ट जारी की तो उसमें एक नाम विवेक ओबेरॉय का भी था. यानी विवेक की सारी कवायद किसलिए थी वो साफ सामने आ गया. विवेक का झूठ भी और प्रचार के तरीकों को सच भी.
क्या आचार संहिता की यही कीमत है
फिल्म के साथ-साथ नमो टीवी भी चुनावों से ठीक पहले सामने आ गया. जिसको लेकर भी बहस जारी है. इसी बीच टीवी पर प्रसारित होने वाले सीरियलों में भी मोदी सरकार की योजनाएं और मोदी सरकार की तारीफों के पुल बांधे जा रहे हैं. इसमें सिर्फ एक या दो मिनट लगते हैं लेकिन ये सीरियल पूरा देश एक साथ देखता है. यानी मास लेवल पर प्रचार. सोशल मीडिया पर इसे लेकर फिर बहस चल पड़ी है कि इस तरह किया जाने वाला प्रचार क्यों आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है.
और ऐसा एक बार नहीं बार-बार किया जा रहा है
और सिर्फ एक सीरियल में नहीं बल्कि ज्यादातर सीरियल्स में मोदी सरकार की स्कीम्स का प्रचार किया जा रहा है
अब ध्यान देने वाली बात ये है ऐसे प्रचार इतने सुनियोजित तरह से प्लैन किए जाते हैं कि लोग इसपर उंगली न उठा सकें. यानी अगर दो लोग आपस में किसी स्कीम के बारे में बात कर रहे हों तो वो आचार संहिता का उल्लंघन कैसे हो सकता है. फिर भले ही वो सीरियल का हिस्सा हो. डायरेक्ट नहीं तो इनडारेक्ट ही सही पर हो तो रहा है और उसे कोई नकार नहीं सकता. नेता कानून के बीच की जो कमियां होती हैं उन्हीं का फायदा उठाते हैं. इसको लेकर इतनी बहस हो रही है कि चुनाव आयोग की गरिमा पर भी सवाल खड़े होते हैं क्योंकि निष्पक्ष होकर चुनाव कराने वाली ये संस्था भी इस मामले में कुछ कर ही नहीं पा रही. ये न ब्लैक को ब्लैक कह रही है और न वाइट को वाइट, और नेता ग्रे में खेलते रहते हैं. क्योंकि ये अभिव्यक्ति की आजादी है. और संविधान ने ही ये अधिकार दिया है.
इन बातों को देखते हुए ये कहना गलत नहीं है कि अब आचार सहिंता का कोई मतलब नहीं गया है. इस देश में फ्रीडम ये फ्रीडम ऑफ स्पीच का ये रूप चौंकाने वाला है. नैतिकता जैसे शब्द बोमानी हो चुके हैं. देखने वाली बात होगी कि प्रचार के इस अतिरेक का बीजेपी को कहीं नुक्सना न उठाना पड़ जाए.
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