कश्मीरी पण्डितों के नाम पर फ़िल्म बिक रही है, किताबें बिक रही हैं, दोनों का कारोबार चल रहा है. मूल विषय छूटता मालूम पड़ रहा है. इन दोनों में से किसी का विरोध नहीं है लेकिन भय है कि ऐसा नाज़ुक व संवेदनशील विषय सिर्फ़ मार्केटिंग स्ट्रैटेजी बनकर न रह जाए. कश्मीरी पण्डितों के जीवन में इनसे क्या बदलाव होगा. दूसरी बात जो खटक रही है वह है सत्ता के गलियारों द्वारा फ़िल्म का प्रमोशन. आप सत्ता में हैं और यह किसी सरकारी अभियान के तहत बनायी गयी फ़िल्म नहीं है फिर सरकार को ऐसा क्यों करना पड़ रहा है! आपको कश्मीरी पण्डितों के लिये काम करना है तो रोका किसने है? केंद्र में सत्ता आपकी, कश्मीर में राज्यपाल आपके, तो फ़िल्मी शूल पर दुखी होने से बेहतर न होता अगर आप उन पीड़ितों के हित में कुछ करते? सिर्फ़ फ़िल्म देखकर दुखी होने का क्या औचित्य है? वह भी तब जब आप उनकी तमाम तकलीफ़ें दूर करने में सहायक हो सकते हैं.
सिनेमा जगत में सत्ता का हस्तक्षेप कोई नया नहीं है. जिसकी सत्ता होती है वह रचनात्मकता की इस ईकाई को अपने इशारे पर नचाने से, सृजन व रचना जैसे तत्त्वों का शोषण करने से नहीं चूकता है. इंदिरा गांधी ने सन 1975 में आंधी जैसी फ़िल्म, जिसके लिये कहा जा रहा था कि इंदिरा के जीवन से प्रेरित है, को बैन करा दिया. उस फ़िल्म में कहीं भी इंदिरा को पोर्ट्रे नहीं किया गया था.
दूसरी फ़िल्म है अमृत नाहटा द्वारा निर्देशित 'किस्सा कुर्सी का' जो इंदिरा व संजय गांधी पर चित्रित एक व्यंग्य थी. इस फ़िल्म में सरकार के काम करने का रवैया और किसी के व्यक्तिगत हित हेतु तमाम निर्णयों में हेर-फेर को उजागर किया गया था. निर्देशक स्वयं दो बार कांग्रेस के...
कश्मीरी पण्डितों के नाम पर फ़िल्म बिक रही है, किताबें बिक रही हैं, दोनों का कारोबार चल रहा है. मूल विषय छूटता मालूम पड़ रहा है. इन दोनों में से किसी का विरोध नहीं है लेकिन भय है कि ऐसा नाज़ुक व संवेदनशील विषय सिर्फ़ मार्केटिंग स्ट्रैटेजी बनकर न रह जाए. कश्मीरी पण्डितों के जीवन में इनसे क्या बदलाव होगा. दूसरी बात जो खटक रही है वह है सत्ता के गलियारों द्वारा फ़िल्म का प्रमोशन. आप सत्ता में हैं और यह किसी सरकारी अभियान के तहत बनायी गयी फ़िल्म नहीं है फिर सरकार को ऐसा क्यों करना पड़ रहा है! आपको कश्मीरी पण्डितों के लिये काम करना है तो रोका किसने है? केंद्र में सत्ता आपकी, कश्मीर में राज्यपाल आपके, तो फ़िल्मी शूल पर दुखी होने से बेहतर न होता अगर आप उन पीड़ितों के हित में कुछ करते? सिर्फ़ फ़िल्म देखकर दुखी होने का क्या औचित्य है? वह भी तब जब आप उनकी तमाम तकलीफ़ें दूर करने में सहायक हो सकते हैं.
सिनेमा जगत में सत्ता का हस्तक्षेप कोई नया नहीं है. जिसकी सत्ता होती है वह रचनात्मकता की इस ईकाई को अपने इशारे पर नचाने से, सृजन व रचना जैसे तत्त्वों का शोषण करने से नहीं चूकता है. इंदिरा गांधी ने सन 1975 में आंधी जैसी फ़िल्म, जिसके लिये कहा जा रहा था कि इंदिरा के जीवन से प्रेरित है, को बैन करा दिया. उस फ़िल्म में कहीं भी इंदिरा को पोर्ट्रे नहीं किया गया था.
दूसरी फ़िल्म है अमृत नाहटा द्वारा निर्देशित 'किस्सा कुर्सी का' जो इंदिरा व संजय गांधी पर चित्रित एक व्यंग्य थी. इस फ़िल्म में सरकार के काम करने का रवैया और किसी के व्यक्तिगत हित हेतु तमाम निर्णयों में हेर-फेर को उजागर किया गया था. निर्देशक स्वयं दो बार कांग्रेस के सांसद रह चुके थे तो ज़ाहिर है सरकार की तमाम बातें वे किसी बाहरी से बेहतर जानते थे. फ़िल्म को बैन करवाने के साथ-साथ सरकार ने उसके प्रिंट्स भी ज़ब्त करके जला दिये.
लेकिन यह इंदिरा की सरकार नहीं है सो मूल प्रश्न यही है कि मोदी जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात की, अनूपम खेर होली की मुबारकबाद भी दे रहे हैं तो अपनी फ़िल्म का हैशटैग लगाना नहीं भूल रहे, तो क्या फ़िल्म-निर्माता इसके बाद कश्मीरियों के हित में कुछ करने की सोच रहे हैं? यह सवाल फ़िल्म-निर्माता से इसलिए क्योंकि न वे इस फ़िल्म को फ़िल्म कह रहे हैं न दर्शक. सभी विह्वल हैं तो कश्मीरियों तक यह प्रेम पहुंचना चाहिए न.
सरकार से यह सवाल नहीं है क्योंकि सरकार की तो यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उन पीड़ितों की सुध ले. सिर्फ़ दुखी होकर खानापूर्ति नहीं की जा सकती, आप विपक्ष में नहीं हैं जो कुछ कर नहीं सकते. कश्मीरी पण्डित डिज़िटल इण्डिया का कोई कीवर्ड नहीं है, वे ज़िंदा लोग हैं जिनसे सभी ने मुंह फेरे रखा.
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