भारतीय समाज कई परतों में बदल रहा है. कुछ बदलाव बड़ी तेज़ी से प्रत्यक्ष हो रहें है और कुछ अपने समय पर और कुछ, 'बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते'. बहरहाल लड़कियों की शादी की उम्र को 18 से 21 साल करने का कैबिनेट का हालिया फैसला किस श्रेणी में आता है ये अपनी अपनी सोच पर निर्भर है. फैसला अच्छा है. फैसला ऐतिहासिक है. समाज में ज़रूर कुछ बदलेगा. लेकिन कब, क्या, कितना और किस हद तक इस पर अभी विचार नहीं हो रहा. ये मुद्दा फ़िलहाल तो सही और गलत की परिधि में ही घूम रहा है. लगभग पूरा देश इसका स्वागत कर रहा है. नारी -पुरुष दोनों ही तरफ से इसे एक ज़रूरी कदम बताया गया. यकीनन महिला सशक्तिकरण की तरफ उठा एक अहम कदम है लेकिन एक तबका ऐसा भी है जहां से विरोध की आवाज़ उठ रही है. मुस्लिम वर्ग के आलिम फ़ाज़िल लोगों ने इसे मुस्लिम लॉ के खिलाफ बताया है और राजनीती के गलियारों में इसे 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' की तरफ बढ़ा पहला कदम भी माना जा रहा है. विरोध करने वालों में भी, धर्म की कटटरता को तरजीह देने वाले अधिक है जो अपने विचारों से स्त्री सशक्तिकरण के विरोधी भी मालूम होते हैं.
वास्तविकता में हर धर्म से परे महिलाओं के हर वर्ग ने इसका स्वागत किया है. तो अपने ही धर्म और समाज की स्त्री के हक के फैसले का विरोध सवाल उठाता है. ये बे-सिर पैर के बयान किसी खीज का नतीजा है या फिर इनकी रूढ़िवादी सोच को फिर कोई चनौती दी गयी है ये सोचनीय है? शरिया के मुताबिक रजस्वला होते ही यानि की लड़की के पीरियड होते ही वो शादी के काबिल हो जाती है. 18 साल की उम्र इस दहलीज़ से बहुत दूर नहीं थी तो बात स्वीकार की गयी और शायद 'मॉडर्न', दुनिया में खुद को साबित करने की दरकार भी थी. किन्तु अब?
ये नियम यानि की...
भारतीय समाज कई परतों में बदल रहा है. कुछ बदलाव बड़ी तेज़ी से प्रत्यक्ष हो रहें है और कुछ अपने समय पर और कुछ, 'बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते'. बहरहाल लड़कियों की शादी की उम्र को 18 से 21 साल करने का कैबिनेट का हालिया फैसला किस श्रेणी में आता है ये अपनी अपनी सोच पर निर्भर है. फैसला अच्छा है. फैसला ऐतिहासिक है. समाज में ज़रूर कुछ बदलेगा. लेकिन कब, क्या, कितना और किस हद तक इस पर अभी विचार नहीं हो रहा. ये मुद्दा फ़िलहाल तो सही और गलत की परिधि में ही घूम रहा है. लगभग पूरा देश इसका स्वागत कर रहा है. नारी -पुरुष दोनों ही तरफ से इसे एक ज़रूरी कदम बताया गया. यकीनन महिला सशक्तिकरण की तरफ उठा एक अहम कदम है लेकिन एक तबका ऐसा भी है जहां से विरोध की आवाज़ उठ रही है. मुस्लिम वर्ग के आलिम फ़ाज़िल लोगों ने इसे मुस्लिम लॉ के खिलाफ बताया है और राजनीती के गलियारों में इसे 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' की तरफ बढ़ा पहला कदम भी माना जा रहा है. विरोध करने वालों में भी, धर्म की कटटरता को तरजीह देने वाले अधिक है जो अपने विचारों से स्त्री सशक्तिकरण के विरोधी भी मालूम होते हैं.
वास्तविकता में हर धर्म से परे महिलाओं के हर वर्ग ने इसका स्वागत किया है. तो अपने ही धर्म और समाज की स्त्री के हक के फैसले का विरोध सवाल उठाता है. ये बे-सिर पैर के बयान किसी खीज का नतीजा है या फिर इनकी रूढ़िवादी सोच को फिर कोई चनौती दी गयी है ये सोचनीय है? शरिया के मुताबिक रजस्वला होते ही यानि की लड़की के पीरियड होते ही वो शादी के काबिल हो जाती है. 18 साल की उम्र इस दहलीज़ से बहुत दूर नहीं थी तो बात स्वीकार की गयी और शायद 'मॉडर्न', दुनिया में खुद को साबित करने की दरकार भी थी. किन्तु अब?
ये नियम यानि की 'कुमारी कन्या के पैर पूजना' अर्थात कम उम्र में ही शादी कर देना हिन्दू समाज का भी हिस्सा था जिसकी वजह से दो पीढ़ी पहले तक की अधिकतर स्त्रियां अक्सर अशिक्षित या बमुश्किल पांचवी पास होती थी. ध्यान देने योग्य ये भी है की विवाह के पश्चात कम उम्र का मातृत्व घातक सिध्द होता सकता है. किन्तु समय के साथ बदलाव को अपनाते हुए हिन्दू समाज ने बहुत सी कुरीतियों से पल्ला झाड़ लिया.
स्वतंत्र भारत में विकास और बदलाव की हवा को अपनाते हुए सभी स्तरों के लोग आगे बढ़ने की कोशिश में रहें किन्तु मुस्लिम समाज के कई तबकों ने इसे धर्म की कट्टरवादिता के चलते अपनाने से इंकार किया और विकास की धारा में कहीं पीछे छूटते चले गए. पितृसत्ता के अधीन समाज में शताब्दियों से स्त्री को सम्पत्ति समझा जाता रहा है. इतिहास साक्षी है बिना धर्म जाति के भेदभाव के इस मुद्दे पर सभी में एका रही है. स्त्री अधिकारों का क्रमबद्ध तरीके से हनन होता आया.
स्त्री अपने अधिकारों से वंचित भी हुई और अनभिज्ञ भी. अंततः उसे घर की चारदीवारी में गृहस्वामिनी स्वरूप बना कर बैठा दिया गया, जहां उसके जीवन के महत्वपूर्ण फैसले लेने वाले कोई और थे. यकीनन हालात बदले ज़रूर है किन्तु आज भी धर्म और परम्परा के नाम पर उसके सामने चुनौतियां खड़ी की जाती है. रूढ़िवादिता को जकड़ कर रखने की कोशिश के पीछे मकसद केवल धर्म और परम्परा को संजोने का आडंबर है या अशिक्षित व अपने अधिकारों के प्रति अचेत स्त्री को समाज में अपने पीछे रखने की कवायद।
ये आप सोचें किन्तु इसी ज़िद्द के नतीजतन आज 2022 में प्रवेश करते हुए भारत में ऐसे फैसलों पर अनचाही बहस हो रही है. अब इससे पहले की हम इसे केवल धर्म विशेष की समस्या माने इसी बिंदु पर रुक कर इस फैसले और इसके प्रभाव पर भी नज़र डालें. शादी की उम्र 18 से कम से कम 21 साल करने पर इन तीन सालो में स्कूल से कॉलेज तक का सफर न चाहते हुए भी आगे बढ़ेगा.
लड़कियां, घर मोहल्ले से निकल कर अपने शहर, अपने देश के अलग अलग कोनों को जानने लगेंगी. सोच का दायरा बढ़ेगा तो सोचने समझने सवाल पूछने वालियों की तादाद बढ़ेगी.(शायद यही इस विरोध की जड़ भी है. सवाल पूछने वाले धीरे धीरे ही सही सत्ता की गहरी से गहरी जड़ को हिला देते हैं.)
लड़की यूं ही पढ़ते पढ़ाते अपने अधिकार जानने लग जाएगी. 'ख़ुशी ख़ुशी कर दो बिदा' से पहले ही दुलारी बेटी राज करने के लिए ज़मीन पर हक को समझ सकेगी. (डरें नहीं मांगने की स्तिथि तक पहुंचने में अभी कई दशक हैं.)
ज़िंदगी के 3 बेशकीमती सालों के इस तोहफे से बहुत से सपनो को पर मिलेंगे. बहुत सी रीता -सुनीता बारहवीं के बाद केसमेंट की चादर काढ़ने की बजाय कॉलेज की किताबों में नज़र गड़ाएंगी. शूटिंग हॉकी कुश्ती और क्रिकेट की ट्रेनिंग - 'लड़की ताड़ सी अठराह की हुई' पर नहीं रुकेंगी.
इस कॉलेज की पढ़ाई से काम काजी महिलाओं के आंकड़े में भी शनैः शनैः बढ़ोत्तरी होगी. हालांकि होम साइंस से साइंस ,बी.एड, एनटीटी की जगह अपने मन से पुलिस या बैंक की नौकरी या फैशन की दुनिया का सपना ज़रा दूर है. (यहां अपने मन पर खास तवज्जो दीजियेगा और बीएड, एनटीटी के प्रति पूरे सम्मान को भी स्वीकार करें)
इन सबके पीछे उंगली के पोरों पर दिन गिनते इसी समाज के लोग भी होंगे जो 21 साल के पूरे होने से पहले ही लड़की को इस घर से उस घर में बांधने की तैयारी कर चुके होंगे. घर रिश्ते संभालने की तीन साल की एक्स्ट्रा ट्रेनिंग के बीच, चुप रहना और सहनशीलता ही गहना का पाठ भी यथावत चलेगा. ऊंच नीच की दुहाई भी लड़की के आगे और इज़्ज़त की पोटली भी उसके सिर.
तीन सालो में नई नस्ल पैदा करने की ज़मीन पुख़्ता होगी लेकिन उसके मन के भीतर के सपनों की पौध भी फूले फलेगी ये देखना होगा. और कहीं तीन सालों के बीच अपने सपने,अपने हक अपने अस्तित्व की बात को मन से निकाल कर सरे आम ज़बान पर ले आयी तो यही समाज न कह बैठे,हम न कहते थे बदलाव की हवा बड़ी बुरी होवे है? लेकिन तब तक - बदलाव का स्वागत नहीं करेंगे आप?
ये भी पढ़ें -
Marriage age 18 से 21 वर्ष होने से लड़कियों की जिंदगी में क्या बदल जाएगा?
लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाए जाने से मुस्लिम पर्सनल लॉ का टकराव कैसा?
बर्क चचा लड़कियों की शादी की उम्र 21 किए जाने से खफा हैं और लड़कियां उनसे…
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.