ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) बनारस पहुंची हैं. दिल्ली के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को उनके संसदीय क्षेत्र में चैलेंज करने, लिहाजा रैली से पहले ही उनका स्वागत विरोध से होने लगा. विरोध के मामले में योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता आगे नजर आये - काला झंडा दिखा कर. ममता बनर्जी का विरोध तो बीजेपी कार्यकर्ताओं ने भी 'मोदी-मोदी' के नारे के साथ किया, लेकिन हिंदू युवा वाहिनी के तेवर ज्यादा तीखे लगे.
विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में कोरोना फैलाने का आरोप बाहरी लोगों पर लगाया था - और तब उनके निशाने पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही थे. क्योंकि चुनाव कैंपेन से लौटने के बाद ही वो कोविड पॉजिटिव हो गये थे. आगे कई दिनों तक योगी को क्वारंटीन में रहते हुए ही सरकारी कामकाज करने पड़े थे. हिंदू युवा वाहिनी ने तो तभी से गुस्सा पाल रखा होगा.
बंगाल में बीजेपी को शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी सीधे दिल्ली पहुंची थीं. मकसद तो सबको पहले से ही मालूम था. प्रधानमंत्री मोदी को अगले आम चुनाव में चैलेंज करने के लिए. पहले ही ममता बनर्जी ने एनसीपी नेता शरद पवार और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम से विपक्ष की मीटिंग बुलाने को कहा था. मीटिंग तो दूर, तब तो शरद पवार से मिलना भी नहीं हो सका था - और राहुल गांधी ने तो ममता बनर्जी के दिल्ली में कदम रखते ही विपक्षी नेताओं को जैसे हाइजैक ही कर लिया था.
हर रोज बनते और बिगड़ते विपक्षी समीकरणों के बीच ममता बनर्जी का बनारस पहुंचना काफी अहम है - और ये उनका दूसरा यूपी दौरा है. पहले ममता बनर्जी लखनऊ में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ प्रेस कांफ्रेंस करके बीजेपी को हराने की अपील कर चुकी हैं.
अब ममता बनर्जी विपक्ष के उन नेताओं के साथ धावा बोल रही हैं जो यूपी में बीजेपी को डंके की चोट...
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) बनारस पहुंची हैं. दिल्ली के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को उनके संसदीय क्षेत्र में चैलेंज करने, लिहाजा रैली से पहले ही उनका स्वागत विरोध से होने लगा. विरोध के मामले में योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता आगे नजर आये - काला झंडा दिखा कर. ममता बनर्जी का विरोध तो बीजेपी कार्यकर्ताओं ने भी 'मोदी-मोदी' के नारे के साथ किया, लेकिन हिंदू युवा वाहिनी के तेवर ज्यादा तीखे लगे.
विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में कोरोना फैलाने का आरोप बाहरी लोगों पर लगाया था - और तब उनके निशाने पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही थे. क्योंकि चुनाव कैंपेन से लौटने के बाद ही वो कोविड पॉजिटिव हो गये थे. आगे कई दिनों तक योगी को क्वारंटीन में रहते हुए ही सरकारी कामकाज करने पड़े थे. हिंदू युवा वाहिनी ने तो तभी से गुस्सा पाल रखा होगा.
बंगाल में बीजेपी को शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी सीधे दिल्ली पहुंची थीं. मकसद तो सबको पहले से ही मालूम था. प्रधानमंत्री मोदी को अगले आम चुनाव में चैलेंज करने के लिए. पहले ही ममता बनर्जी ने एनसीपी नेता शरद पवार और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम से विपक्ष की मीटिंग बुलाने को कहा था. मीटिंग तो दूर, तब तो शरद पवार से मिलना भी नहीं हो सका था - और राहुल गांधी ने तो ममता बनर्जी के दिल्ली में कदम रखते ही विपक्षी नेताओं को जैसे हाइजैक ही कर लिया था.
हर रोज बनते और बिगड़ते विपक्षी समीकरणों के बीच ममता बनर्जी का बनारस पहुंचना काफी अहम है - और ये उनका दूसरा यूपी दौरा है. पहले ममता बनर्जी लखनऊ में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ प्रेस कांफ्रेंस करके बीजेपी को हराने की अपील कर चुकी हैं.
अब ममता बनर्जी विपक्ष के उन नेताओं के साथ धावा बोल रही हैं जो यूपी में बीजेपी को डंके की चोट पर चैलेंज कर रहे हैं. ममता बनर्जी के नेतृत्व में अखिलेश यादव अपने गठबंधन साथियों जयंत चौधरी और चाचा शिवपाल सिंह यादव के अलावा गठबंधन के जोशीले प्रवक्ता के तौर पर सक्रिय देखे जाने वाले ओमप्रकाश राजभर के साथ वाराणसी की सड़कों पर बीजेपी के खिलाफ उतर कर चैलेंज कर रहे हैं.
बेशक अभी ममता बनर्जी यूपी में अखिलेश यादव की मदद में खड़ी हुई हैं, लेकिन आगे भी यही भाव बना रहेगा या समाजवादी पार्टी के साथ भी वैसा ही व्यवहार होगा जैसा कांग्रेस के साथ पहले बीजेपी कर चुकी है - और अब तृणमूल कांग्रेस कर रही है?
बनारस में ममता, ममता का विरोध
तृणमूल कांग्रेस नेता अपने खिलाफ लगातार विरोधों की वजह से ही ममता बनर्जी बनी हैं. विरोध ममता बनर्जी की राजनीति का अहम हिस्सा है. अगर उनका विरोध नहीं होता तो वो खुद ही विरोध करने लगती हैं - लेकिन वाराणसी में ताजा विरोध को ममता बनर्जी ने अलग तरीके से लिया है.
बनारस में विरोध करने वालों के साथ ममता बनर्जी का व्यवहार बंगाल जैसा नहीं दिखा है. वैसे भी मुख्यमंत्री पद की हनक हर जगह तो चलती नहीं, लेकिन अखिल भारतीय राजनीति को हैंडल करने के लिए थोड़ा बहुत तो बदलना ही होगा.
ममता बनर्जी ने पहले ही कह रखा था, 'मैं समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए प्रचार करने वाराणसी जा रही हूं.'
वाराणसी का मतलब भी अभी की राजनीति में दिल्ली जैसा ही है क्योंकि वो भी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे सीधे जुड़ा हुआ है ही - ममता बनर्जी बनारस में दिल्ली जैसा महसूस कर रही हैं क्या?
ममता बनर्जी का बनारस में कई जगह विरोध हुआ, लेकिन गोदौलिया पर जब बीजेपी कार्यकर्ता पहुंचे तो तृणमूल कांग्रेस नेता के पक्ष में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मोर्चा संभाल लिया - और देखते ही देखते आमने सामने टकराव की भी नौबत आ गयी थी.
गंगा आरती देखने के लिए ममता बनर्जी दशाशवमेध घाट पहुंचीं तो वहां बीजेपी कार्यकर्ता विरोध के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे. तब तक ममता बनर्जी के भी समर्थक खड़े हो चुके थे. दोनों तरफ से नारेबाजी होने लगी - और फिर ममता बनर्जी घाट की सीढ़ियों पर ही बैठ गयीं. घाट पर बीजेपी का झंडा हाथ में लिया प्रदर्शनकारी मोदी-योगी जिंदाबाद जैसे नारे भी लग रहे थे - और 'ममता गो बैक' भी. ममता बनर्जी का कहना रहा कि हार के डर से सत्ताधारी बीजेपी के इशारे पर उनका विरोध हो रहा है.
ममता बनर्जी के लिए आरती देखने के लिए खास इंतजाम भी किया गया था, लेकिन लगातार विरोध से उनकी अंदर की नाराजगी बाहर आने लगी. वो भी विरोध पर उतर आयीं और सीढ़ियों पर बैठी रहीं.
चेतगंज में तो ममता बनर्जी का पुराना अंदाज देखा गया. करीब दो दर्जन हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता हाथों में काले झंडे लिये नारेबाजी कर रहे थे. ममता बनर्जी ने गाड़ी रुकवायी और विरोध करने वालों के सामने जाकर खड़ी हो गयीं. पश्चिम बंगाल में जब भी 'जय श्रीराम' के नारे लगाने वाले मिलते ममता बनर्जी ऐसा ही करतीं, लेकिन वहां उनको देख लेने की धमकी भी दे डालतीं.
ममता से ज्यादा खतरा किसे - बीजेपी, कांग्रेस या अखिलेश को?
ममता बनर्जी के वाराणसी दौरे का स्पष्ट मकसद तो सीधे सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करना और संघ-बीजेपी को निशाने पर लेना है - लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या आगे भी ये सब एक दायरे में ही सीमित रहने वाला है?
बीजेपी और मोदी विरोध तो स्वाभाविक है, अगले आम चुनाव में अपनी अहमियत साबित करने लिए ममता बनर्जी को ऐसा करना ही है. बहुत कुछ तो यूपी सहित पांच विधानसभाओं के नतीजे आने के बाद तय होंगे, लेकिन ममता बनर्जी की मंजिल तो पहले से ही फिक्स्ड है.
बीजेपी से टकराव तो ममता बनर्जी के लिए अभी वैसा ही है जैसा 2011 से पहले बंगाल में वाम मोर्चे के साथ रहा, लेकिन अखिलेश यादव के सामने ये महत्वपूर्ण सवाल जरूर होना चाहिये कि ममता बनर्जी मदद के बदले क्या देने वाली हैं. बंगाल में तो ममता बनर्जी का ट्रैक रिकॉर्ड इस मामले में काफी खराब रहा है.
पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल करने के लिए ममता बनर्जी ने कांग्रेस का भरपूर सहयोग लिया - और सत्ता हासिल होते ही नाता ही तोड़ लिया. नाता तोड़ने तक सीमित रहता तो कोई बात नहीं होती, कांग्रेस में तभी ऐसी तोड़ फोड़ मचायी कि तहस नहस कर दिया - और एक दिन ऐसा भी आया जब बंगाल में कांग्रेस का को पूरी तरह नेस्तनाबूद ही कर डाला.
महाराष्ट्र में शरद पवार के सामने भी ममता बनर्जी ने ऐसा ही प्रस्ताव रखा था, हालांकि, वो चुप रहे. नवाब मलिक की गिरफ्तारी के बाद भी शरद पवार की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है है कि वो कांग्रेस को किनारे कर विपक्ष को एकजुट करने में अपनी भूमिका के पक्षधर हैं.
शरद पवार की यूपी चुनाव में भागीदारी का सबूत तो एनसीपी का उम्मीदवार ही है. अखिलेश यादव एनसीपी उम्मीदवार को अपने कोटे से चुनाव लड़ा रहे हैं. शुरू में ऐसी चर्चा ममता बनर्जी को लेकर भी रही और कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन करने वाले ललितेशपति त्रिपाठी को लेकर चुनाव लड़ने की संभावना भी जतायी गयी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वजह जो भी रही हो. जिस तरफ से भी शर्तें मंजूर न हुई हों.
लखनऊ में ममता बनर्जी ने दावा किया था कि यूपी से बीजेपी का सफाया होने का मतलब है कि 2024 में केंद्र से भी उसकी विदायी तय हो जाएगी. तब ममता बनर्जी ने लेफ्ट के भी साथ होने के संकेत दिये थे. हालांकि, ऐसा कोई लक्षण अभी तक बंगाल में देखने को नहीं मिला है.
बंगाल से बाहर निकल कर ममता बनर्जी वैसे ही तोड़फोड़ मचा रही हैं जैसे 2014 के बाद से बीजेपी नेतृत्व कर रहा है. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी से लोग तृणमूल कांग्रेस नहीं जा रहे हैं, लेकिन वो बिलकुल रिजेक्ट माल है. यशवंत सिन्हा को तो ममता बनर्जी ने पहले ही ठिकाना दे रखा है, सुब्रह्मण्यन स्वामी भी कतार में ही हैं. मुकुल रॉय जैसे नेता बीजेपी में कुछ दिन गुजारने के बाद ममता की छांव में लौट भी आये हैं.
हाल फिलहाल सबसे ज्यादा तोड़ फोड़ ममता बनर्जी ने कांग्रेस में मचाया है. सुष्मिता देव, लुईजिन्हों फैलेरियो, ललितेशपति त्रिपाठी के अलावा हरियाणा में अशोक तंवर की राजनीति का आधार भी तो कांग्रेस ही रही है.
मुलायम सिंह यादव से दुश्मनी तो ममता बनर्जी पहले ही भुला चुकी हैं और अभी तक अखिलेश यादव ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का शिकार होने से बचे हुए हैं - क्या पता आगे क्या इरादा हो?
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