यूपी में हुए गठबंधन को लेकर अखिलेश यादव को गोलमोल बातें क्यों करनी पड़ रही हैं? क्या इसके पीछे अखिलेश यादव की कोई मजबूरी है या किसी खास रणनीति के तहत वो 'सबका साथ सबका विकास' वाला भाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं?
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बीच गठबंधन हो चुका है. गठबंधन में सीटों का बंटवारा भी हो चुका है. यहां तक तय हो चुका है कि किस सीट से किस पार्टी का उम्मीदवार चुनाव लड़ेगा. गंठबंधन में कांग्रेस के नाम पर सिर्फ दो सीटें छोड़ी गयी हैं - और कांग्रेस भी अब मैदान में जोर शोर से उतर चुकी है.
राहुल गांधी भी ऐलान कर चुके हैं कि यूपी में कांग्रेस फ्रंटफुट पर खेलेगी - और इसके लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मोर्चे पर तैनात कर रखा है.
ये सब होने के बावजूद भला अखिलेश यादव ये क्यों कह रहे हैं कि यूपी की को हाथ भी पंसद है और हाथी भी. क्या किसी रणनीति के तहत यूपी में फ्रेंडली मैच होने जा रहे हैं - या कोई मजबूरी है?
गठबंधन पर गोलमोल बातें क्यों?
यूपी गठबंधन के ऐलान के वक्त मायावती बीजेपी और कांग्रेस को एक ही पैमाने में रख कर खरी खोटी सुनाती रहीं. कुछ ऐसे ही जैसे 2018 के चुनावों में या उससे पहले वो एक को नागनाथ तो दूसरा सांपनाथ बताती रहीं. मायावती की हर बात को अखिलेश यादव का मौन और मुस्कुराता समर्थन हासिल था. जब मायावती की बातें पूरी हो गयी तो अखिलेश यादव बोलना शुरू किया और सबसे ज्यादा जोर इस बात पर रहा कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता मायावती के अपमान को भी उनके अपमान जैसा ही समझें - और समझें तो रिएक्ट भी उसी अंदाज में करें. ये उनके समझने वाली बात रही. शायद समाजवादी पार्टी की पुरानी मुहिम हल्ला बोल में भी ऐसे ही संकेत दिये जाते रहे हों.
उस प्रेस कांफ्रेंस से साफ था कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी के कार्यकर्ता भाई-भाई की तरह एक दूसरे के लिए खड़े रहेंगे. नेताओं के लिए कुछ मीटिंग करके सीटें बांट लेना और फिर मीडिया के सामने मुस्कुराते हुए उसकी घोषणा कर...
यूपी में हुए गठबंधन को लेकर अखिलेश यादव को गोलमोल बातें क्यों करनी पड़ रही हैं? क्या इसके पीछे अखिलेश यादव की कोई मजबूरी है या किसी खास रणनीति के तहत वो 'सबका साथ सबका विकास' वाला भाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं?
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बीच गठबंधन हो चुका है. गठबंधन में सीटों का बंटवारा भी हो चुका है. यहां तक तय हो चुका है कि किस सीट से किस पार्टी का उम्मीदवार चुनाव लड़ेगा. गंठबंधन में कांग्रेस के नाम पर सिर्फ दो सीटें छोड़ी गयी हैं - और कांग्रेस भी अब मैदान में जोर शोर से उतर चुकी है.
राहुल गांधी भी ऐलान कर चुके हैं कि यूपी में कांग्रेस फ्रंटफुट पर खेलेगी - और इसके लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मोर्चे पर तैनात कर रखा है.
ये सब होने के बावजूद भला अखिलेश यादव ये क्यों कह रहे हैं कि यूपी की को हाथ भी पंसद है और हाथी भी. क्या किसी रणनीति के तहत यूपी में फ्रेंडली मैच होने जा रहे हैं - या कोई मजबूरी है?
गठबंधन पर गोलमोल बातें क्यों?
यूपी गठबंधन के ऐलान के वक्त मायावती बीजेपी और कांग्रेस को एक ही पैमाने में रख कर खरी खोटी सुनाती रहीं. कुछ ऐसे ही जैसे 2018 के चुनावों में या उससे पहले वो एक को नागनाथ तो दूसरा सांपनाथ बताती रहीं. मायावती की हर बात को अखिलेश यादव का मौन और मुस्कुराता समर्थन हासिल था. जब मायावती की बातें पूरी हो गयी तो अखिलेश यादव बोलना शुरू किया और सबसे ज्यादा जोर इस बात पर रहा कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता मायावती के अपमान को भी उनके अपमान जैसा ही समझें - और समझें तो रिएक्ट भी उसी अंदाज में करें. ये उनके समझने वाली बात रही. शायद समाजवादी पार्टी की पुरानी मुहिम हल्ला बोल में भी ऐसे ही संकेत दिये जाते रहे हों.
उस प्रेस कांफ्रेंस से साफ था कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी के कार्यकर्ता भाई-भाई की तरह एक दूसरे के लिए खड़े रहेंगे. नेताओं के लिए कुछ मीटिंग करके सीटें बांट लेना और फिर मीडिया के सामने मुस्कुराते हुए उसकी घोषणा कर देना बहुत आसान होता है, लेकिन जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के लिए ये बड़ा मुश्किल होता है - क्योंकि वहां दोनों पक्ष एक दूसरे को सिर्फ वैचारिक भेदभाव का फर्क नहीं समझते, बल्कि कट्टर राजनीतिक दुश्मन की तरह पेश आते हैं.
राहुल गांधी गठबंधन बनने के बाद से ही अखिलेश यादव और मायावती के प्रति सम्मान का भाव प्रकट करते रहे हैं. अखिलेश यादव ने भी प्रियंका गांधी वाड्रा के खुल कर राजनीति मैदान में आने का स्वागत किया था. बीच में एक चर्चा रही कि यूपी चुनावों के बाद जब राहुल गांधी ने अखिलेश यादव के फोन उठाने बंद कर दिये तो वो आपे से बाहर हो गये. इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में बातों बातों में अखिलेश यादव के सामने इस वाकये का भी जिक्र हुआ. थोड़ा झल्लाते हुए अखिलेश यादव ने इसके लिए एक खास मुहावरे का इस्तेमाल किया - 'चंडूखाने की...'.
अब अखिलेश यादव राहुल गांधी को भी साथ बता रहे हैं. अखिलेश यादव के अनुसार, 'आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, आरएलडी, निषाद पार्टी समेत कई छोटी बड़ी पार्टियां साथ खड़ी हैं.' कहते हैं, 'हम आने वाले चुनाव में साथ लड़ेंगे. हमारा विचारों का संगम है. बीजेपी के खिलाफ अस्तित्व खत्म होने का सवाल ही नहीं उठता - क्योंकि कैराना, गोरखपुर में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर बीजेपी को चुनाव हराया था.'
अखिलेश यादव चाहे जैसे भी समझाने की कोशिश करें - उनका बयान गफलत पैदा करने वाला है. हो सकता ये गफलत बीजेपी को ध्यान में रख कर पैदा की जा रही हो, लेकिन इसे दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता किस तरीके से समझेंगे?
क्या अखिलेश यादव की ये बातें सुन कर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में ये गलतफहमी नहीं होगी कि उन्हें कांग्रेस के विरोध में खड़े रहना है या पक्ष में. बीजेपी के खिलाफ डटे रहना है ये तो साफ है. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अखिलेश यादव ने ये भी साफ कर दिया है कि बीएसपी के पक्ष में भी वैसे ही डटे रहना है जैसे अपनी पार्टी के साथ - लेकिन कांग्रेस?
क्या समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कोई सीक्रेट गाइडलाइन दी गयी है कि उन्हें कांग्रेस उम्मीदवारों से कैसे पेश आना है? अगर ऐसा नहीं हुआ है तो समाजवादी कार्यकर्ताओं के मन भी ये सवाल जरूर घूम रहा होगा.
सिर्फ समाजवादी पार्टी ही क्यों, बीएसपी कार्यकर्ताओं को भी गफलत हो सकती है. बीएसपी कार्यकर्ता तो बस ये जानते हैं कि मायावती ने जिसको वोट देने को कहा है उसका बटन ईवीएम पर दबा देना है. जब वो ये समझेंगे कि कांग्रेस भी साथ है तो निश्चित रूप से उन्हें भी संदेह होगा. जहां बीएसपी का उम्मीदवार होगा वहां तो वो पूरी तन्मयता के साथ डटे रहेंगे, लेकिन जहां उन पर वोट ट्रांसफर की जिम्मेदारी होगी वहां क्या होगा? अगर ऐसा हुआ तो बीजेसी उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी के वोट भी गंवाने पड़ सकते हैं.
सिर्फ कार्यकर्ता ही क्यों, क्या वोटर के सामने संदेह की स्थिति नहीं होगी?
और अगर वोटर के सामने संदेह की स्थिति पैदा हुई, फिर तो गठबंधन को डूबने से भी कोई नहीं बचा सकता.
प्रधानमंत्री के सवाल पर भी अलग अलग बातें क्यों?
यूपी गठबंधन के ऐलान वाली प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश यादव से प्रधानमंत्री पद को लेकर सवाल पूछे गये तो भी जवाब गोलमोल ही रहा - 'आपको पता है मेरा समर्थन किसको है.'
बाकियों ने अपने अपने हिसाब से इसका जो भी अर्थ लगाया हो, बगल में बैठी मायावती अपनी खुशी रोक नहीं पायीं. अखिलेश का जवाब सुनते ही मायावती का चेहरा खिल गया. मैसेज ये गया कि अखिलेश यादव मायावती को ही सपोर्ट करने जा रहे हैं - क्योंकि बाद में भी अखिलेश यादव ने समझाया कि प्रधानमंत्री तो यूपी से ही होता है - 2019 में भी वैसा ही होगा.
कुछ ही दिन बाद कोलकाता में ममता बनर्जी की रैली हुई. मायावती तो नहीं लेकिन अखिलेश यादव रैली में जरूर पहुंचे. अखिलेश यादव के भाषण में प्रधानमंत्री पद का जिक्र आया जरूर लेकिन उसमें यूपी वाला भाव नहीं दिखा. तब अखिलेश यादव ने कहा था, 'जो बात बंगाल से चलेगी, वह बात देश में दिखाई देगी. अभी भी नया साल आया है, तारीख बदली तो हम बहुत खुश हैं. सोचो अगर देश में नया प्रधानमंत्री आ जाएगा तो हम और आप कितने खुश होंगे. उन्होंने कहा कि बीजेपी के लोग कहते हैं कि हमारे पास दुल्हे बहुत ज्यादा हैं, लेकिन हम कहते हैं कि जिसे जनता चुनेगी वह प्रधानमंत्री बनेगा. देश को नया प्रधानमंत्री मिलेगा.'
क्या ममता के मंच से अखिलेश यादव को मायावती के सपोर्ट में कोई संकोच हुआ? या वास्तव में अखिलेश यादव की बातें ही ऐसी रहीं कि मायावती भी गच्चा खा गयीं?
साथ चुनाव लड़ने के अलावा इंडिया टुडे कॉनक्लेव में प्रधानमंत्री पद को लेकर भी अखिलेश यादव से सवाल पूछा गया. अखिलेश यादव बोले, 'मेरी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा नहीं है - क्योंकि मैं प्रधानमंत्री बनाने में विश्वास रखता हूं. लेकिन मैं यह जरूर कह सकता हूं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में देश को नया प्रधानमंत्री मिलेगा.'
वजह जो भी हो, लेकिन अखिलेश यादव का बयान बहुत कुछ कहता है. या तो ये गठबंधन में किसी दरार का संकेत है या फिर कांग्रेस के फ्रंटफुट पर खेलने का - लेकिन कुछ तो है. अंदर की बात जो भी हो अखिलेश यादव का ये रवैया कायम रहा तो गठबंधन को ले डूबेगा.
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