भारत जोड़ो यात्रा को लेकर शुरू से ही कांग्रेस को काफी उम्मीदें रही हैं. स्वाभाविक भी है. और वैसे भी डूबते को तो तिनके से भी उतनी ही उम्मीद रहती है. लेकिन सामने जब तिनके से बेहतर कुछ हो तो ज्यादा उम्मीद तो होनी ही चाहिये.
जहां तक यात्रा को मिल रहे रिस्पॉन्स की बात है, देख कर नाउम्मीद होने की जरूरत तो बिलकुल नहीं लगती - लेकिन अब तक की प्रोग्रेस को देखें तो ऐसा भी नहीं लग रहा कि ये यात्रा कांग्रेस और नेतृत्व के सारे दुखों को पूरी तरह दूर करने वाली है.
जो चीजें सामने आयी हैं, शुरू से ही कांग्रेस के भारत जोड़ो यात्रा शुरू करने के पीछे कम से कम तीन मकसद समझ में आते हैं - एक, कांग्रेस को लोगों से फिर से जोड़ने की कोशिश. दूसरा, राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए एक और लॉन्च पार्टी जैसा इवेंट प्लान किया जाना. और तीसरा, विपक्ष को ऐसे एकजुट करने का प्रयास ताकि वो कांग्रेस का नेतृत्व अस्वीकार न कर सके.
ये तो कांग्रेस भी देख और समझ चुकी है कि पार्टी के सड़क पर आ जाने के बाद भी उसे नजरअंदाज करना पूरे विपक्ष के लिए मुश्किल है. जब ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की जीत के बाद हद से ज्यादा सक्रिय हुई थीं, तो एकबारगी कांग्रेस नेतृत्व को फिक्र होने लगी थी. जब सोनिया गांधी को लगा कि शरद पवार ही रिंग मास्टर बने हुए हैं, तो कमलनाथ के जरिये एक ही मैसेज भेजा और ममता बनर्जी की मिशन करीब करीब फेल ही हो गया.
सोनिया गांधी का संदेश पाते ही शरद पवार ने मीडिया के सामने आकर बोल दिया कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता असंभव है. और उसके बाद से कांग्रेस फिर से विपक्ष की नेता की भूमिका में खुद को महसूस करने लगी - और कांग्रेस के रणनीतिकारों को ऐसा लगने लगा कि राहुल गांधी जब भारत जोड़ो यात्रा पर निकलेंगे तो पूरा विपक्ष धीरे धीरे साथ आ ही जाएगा. मुश्किल ये है कि सोचा हुआ होता कहां है?
राहुल गांधी की यात्रा के दौरान ही दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन गयी और गुजरात में अरविंद केजरीवाल की राजनीति करीब करीब पिट गयी....
भारत जोड़ो यात्रा को लेकर शुरू से ही कांग्रेस को काफी उम्मीदें रही हैं. स्वाभाविक भी है. और वैसे भी डूबते को तो तिनके से भी उतनी ही उम्मीद रहती है. लेकिन सामने जब तिनके से बेहतर कुछ हो तो ज्यादा उम्मीद तो होनी ही चाहिये.
जहां तक यात्रा को मिल रहे रिस्पॉन्स की बात है, देख कर नाउम्मीद होने की जरूरत तो बिलकुल नहीं लगती - लेकिन अब तक की प्रोग्रेस को देखें तो ऐसा भी नहीं लग रहा कि ये यात्रा कांग्रेस और नेतृत्व के सारे दुखों को पूरी तरह दूर करने वाली है.
जो चीजें सामने आयी हैं, शुरू से ही कांग्रेस के भारत जोड़ो यात्रा शुरू करने के पीछे कम से कम तीन मकसद समझ में आते हैं - एक, कांग्रेस को लोगों से फिर से जोड़ने की कोशिश. दूसरा, राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए एक और लॉन्च पार्टी जैसा इवेंट प्लान किया जाना. और तीसरा, विपक्ष को ऐसे एकजुट करने का प्रयास ताकि वो कांग्रेस का नेतृत्व अस्वीकार न कर सके.
ये तो कांग्रेस भी देख और समझ चुकी है कि पार्टी के सड़क पर आ जाने के बाद भी उसे नजरअंदाज करना पूरे विपक्ष के लिए मुश्किल है. जब ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की जीत के बाद हद से ज्यादा सक्रिय हुई थीं, तो एकबारगी कांग्रेस नेतृत्व को फिक्र होने लगी थी. जब सोनिया गांधी को लगा कि शरद पवार ही रिंग मास्टर बने हुए हैं, तो कमलनाथ के जरिये एक ही मैसेज भेजा और ममता बनर्जी की मिशन करीब करीब फेल ही हो गया.
सोनिया गांधी का संदेश पाते ही शरद पवार ने मीडिया के सामने आकर बोल दिया कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता असंभव है. और उसके बाद से कांग्रेस फिर से विपक्ष की नेता की भूमिका में खुद को महसूस करने लगी - और कांग्रेस के रणनीतिकारों को ऐसा लगने लगा कि राहुल गांधी जब भारत जोड़ो यात्रा पर निकलेंगे तो पूरा विपक्ष धीरे धीरे साथ आ ही जाएगा. मुश्किल ये है कि सोचा हुआ होता कहां है?
राहुल गांधी की यात्रा के दौरान ही दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन गयी और गुजरात में अरविंद केजरीवाल की राजनीति करीब करीब पिट गयी. शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों घटनाओं का व्यापक असर देखने को मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विपक्षी दलों की बैठक बुलायी.
मल्लिकार्जुन खड़गे की बैठक की सबसे महत्वपूर्ण बात रही ऐसे नेताओं की बैठक में मौजूदगी जिनके साथ आने की कम ही संभावना थी - वो थी, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के प्रतिनिधियों का बैठक में शामिल होना. लेकिन सबसे बड़ा सरप्राइज था केसीआर यानी तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के प्रतिनिधि का साक्षात दर्शन देना.
संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्ष पहले के मुकाबले काफी संगठित दिखा भी. और खास बात ये रही कि कदम कदम पर कांग्रेस नेतृत्व करती भी नजर आयी. ये भी देखने में आया कि अगर किसी और राजनीतिक दल ने बीजेपी (BJP) और मोदी सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा उठाया तो कांग्रेस नेता भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े देखे गये.
हो सकता है ये सब कांग्रेस की हिमाचल प्रदेश की जीत और भारत जोड़ो यात्रा के जरिये राहुल गांधी की निखरती छवि का असर हो - और ये भी हो सकता है कि ये सब कांग्रेस के गैर-गांधी परिवार के अध्यक्ष होने का भी प्रभाव हो. विपक्ष के जिन नेताओं को राहुल गांधी से परहेज रहा हो, हो सकता है वो मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ खुद को सहज महसूस करते हों.
लेकिन शीतकालीन सत्र जैसा कोई भी संकेत भारत जोड़ो यात्रा से जुड़ा सामने आया हो, ऐसा बिलकुल नहीं लगता - क्योंकि दो तिहाई यात्रा बीत जाने के बावजूद विपक्षी खेमे का बड़ा तबका दूर दूर ही नजर आया है. हालांकि, शुरू से ही जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह की कोशिश यही रही है कि यात्रा को कांग्रेस के राजनीतिक दायरे से बाहर रखा जाये. ताकि यात्रा का अखिल भारतीय स्वरूप नजर आये.
ब्रेक के बाद भारत जोड़ो यात्रा के लिए कांग्रेस की तरफ से उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी खेमे के नेताओं को साथ लेने की एक कोशिश भी हुई है, लेकिन जिस तरह का रिएक्शन अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की तरह से आया है वो राहुल गांधी के लिए निराशाजनक है.
अखिलेश यादव की बातों से ऐसा लगता है जैसे वो राहुल गांधी या कांग्रेस को इस लायक नहीं मानते जो बीजेपी से टक्कर लेने के मामले में नेतृत्व दे सकता है - तो क्या अखिलेश यादव की नजर में कोई और भी नेता है जिसे वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने 2024 में मुख्य चैलेंजर के तौर पर देख रहे हों? कहीं अपने बारे में भी ऐसा कोई ख्याल तो नहीं है?
अखिलेश को राहुल की जगह कौन पसंद है?
2019 में सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के लिए बुलायी गयी प्रेस कांफ्रेंस में मायावती को प्रधानमंत्री बनाने को लेकर उनकी राय पूछी गयी थी. अखिलेश यादव ने मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा - आप जानते हैं मैं क्या चाहता हूं. अखिलेश यादव की बातें सुन कर मायावती काफी देर तक मुस्कुराती रहीं.
बाद में एक इंटरव्यू में मायावती को लेकर पूछे जाने पर अखिलेश यादव का कहना रहा कि बीएसपी के साथ गठबंधन के बाद उनको महसूस हुआ कि मायावती में कई अच्छाइयां हैं. मायावती की अच्छाइयां गिनाते हुए अखिलेश यादव बोले, '... जैसे वो बेहद अनुशासित हैं... मुझसे ज्यादा जिंदगी देखी है और काफी अनुभव भी है... मैं उनको प्रधानमंत्री बनते देखता चाहता हूं.'
और उसी दौरान अखिलेश यादव ने एक बेहद खास बात भी कही थी, 'हमारी महत्वाकांक्षाएं नहीं टकराती हैं... मैं उनको प्रधानमंत्री बनाने के लिए पूरी मेहनत करने को तैयार हूं - और वो मुझे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के लिए पूरी मेहनत करने को तैयार हैं.'
लेकिन जैसे ही आम चुनाव के नतीजे आये, ऐसा लगता है मायावती की महत्वाकांक्षा टकराने लगी. मायावती को जब लग गया कि वो प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं, तो वो मुख्यमंत्री बनने की तैयारी के लिए अखिलेश यादव के साथ हुआ चुनावी गठबंधन तोड़ डालीं.
गठबंधन टूटने से अखिलेश यादव को गहरा धक्का लगा होगा, आसानी से समझा जा सकता है. उसी चुनाव में उनको डिंपल यादव की हार को भी बर्दाश्त करना पड़ा था. तभी से अखिलेश यादव गठबंधन के मामले में काफी सेलेक्टिव हो गये. अपने बराबर या मजबूत राजनीतिक दलों से अखिलेश यादव ने भविष्य में गठबंधन नहीं करने का फैसला किया.
2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले भी अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन को लेकर काफी दिलचस्पी दिखायी थी, लेकिन नतीजे आने के बाद ही वो भी टूट गया था. 2022 के चुनाव में भी कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन के संकेत देखे जाने लगे थे. खासकर तब जब एक फ्लाइट में प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव की मुलाकात हुई थी.
2022 के यूपी चुनाव में अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर और अपने चाचा शिवपाल यादव के साथ चुनावी गठबंधन किया था. शिवपाल यादव की तो अब घरवापसी ही करा ली है, जयंत चौधरी के जरिये भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर को भी साथ ले चुके हैं, ऐसा लगता है - लेकिन राहुल गांधी का साथ अब भी अखिलेश यादव को पंसद नहीं आ रहा है.
भारत जोड़ो यात्रा आगे उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली है. यूपी में साथ आने के लिए कांग्रेस की तरफ से विपक्ष के कई कद्दावर नेताओं को आमंत्रित किया गया था - अखिलेश यादव, मायावती, जयंत चौधरी और ओम प्रकाश राजभर के अलावा भी कुछ नेताओं को बुलाया गया था.
मायावती, जयंत चौधरी और ओम प्रकाश राजभर की तरफ से तो पहले से तय कार्यक्रमों की व्यस्तता का हवाल दिया गया, लेकिन अखिलेश यादव ने अलग ही रुख जाहिर किया है. कहने को तो समाजवादी पार्टी प्रवक्ता ने भी अखिलेश यादव की पहले से तय कार्यक्रमों में व्यस्तता की दुहाई दी, लेकिन खुद अखिलेश यादव ने जाहिर कर दिया कि भारत जोड़ो यात्रा को लेकर उनकी क्या सोच है.
झांसी पहुंचे अखिलेश यादव से पूछे जाने पर रिएक्शन रहा, ‘हमारी भावना भारत जोड़ो यात्रा के साथ है, लेकिन सवाल ये है कि बीजेपी को कौन हटाएगा? बीजेपी कैसे हटेगी?’
अखिलेश यादव या मायावती को लेकर तो नहीं, लेकिन जयंत चौधरी को लेकर पहले कांग्रेस नेताओं की तरफ से कहा जा रहा था कि वो भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हो सकते हैं. और इसकी बड़ी नवजह कांग्रेस के कई नेताओं से उनकी करीबी बतायी जा रही थी. मसलन, गांधी परिवार के भी वो करीब हैं, और हरियाणा के कांग्रेस नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ भी उनके अच्छे रिश्ते हैं. राजस्थान में हाल ही में आयोजित किसान सभा में एक ही मंच पर कांग्रेस नेता सचिन पायलट और जयंत चौधरी को देखा गया था - और जयंत चौधरी का यात्रा में राहुल गांधी के साथ शामिल होना करीब करीब पक्का बताया जा रहा था, लेकिन फिर मालूम हुआ कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है.
पश्चिम उत्तर प्रदेश के जयंत चौधरी का इलाका होने के बावजूद उनकी स्थिति ऐसी है कि बगैर किसी बाहरी सहारे के वो खड़े नहीं हो पाते. ये जरूर है कि दूसरे राजनीतिक दल भी पश्चिम यूपी में चाहते हैं कि जयंत चौधरी उनके साथ रहें - और दोनों मिल कर मजबूत हो भी जाते हैं. यहां तक कि बीजेपी की तरफ से भी जयंत चौधरी को साथ लेने की कोशिश हो चुकी है, लेकिन उसका एक ही मकसद लगा कि अखिलेश यादव कमजोर हो जायें.
कांग्रेस ने विपक्ष के पाले में डाली गेंद
कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने जयंत चौधरी को लेकर पूछे गये सवाल के बहाने सारे विपक्षी दलों के सामने भारत जोड़ो यात्रा को लेकर तस्वीर साफ कर दी है. कांग्रेस नेता का एक तरीके से कहना है कि बुलावा तो सभी के लिए है, लेकिन फैसला तो विपक्षी दलों को ही करना होगा कि वे शामिल होंगे या नहीं.
इस बीच भारत जोड़ो यात्रा को लेकर कुछ और भी रिएक्शन आये हैं, जैसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का कहना है कि उनको तो न्योता ही नहीं मिला. और वैसे ही ये लग रहा था कि यूपी से आगे बढ़ कर जम्मू-कश्मीर पहुंचने पर यात्रा के साथ कोई जुड़ता है या नहीं.
खबर आयी है कि फारूक अब्दुल्ला तो ब्रेक के बाद यात्रा शुरू होते ही शामिल होने वाले हैं और कश्मीर पहुंचने पर महबूबा मुफ्ती ने शामिल होने के लिए हामी भर दी है - कांग्रेस चाहे तो अभी से अंत भला तो सब भला सोच कर राहत महसूस कर सकती है.
अब तक भी राहत की बात ये जरूर रही है कि तमिलनाडु से मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के शुभ यात्रा बोलने के बाद, महाराष्ट्र पहुंचने पर एनसीपी नेता सुप्रिया सुले और उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना की तरफ से आदित्य ठाकरे ने भारत जोड़ो यात्रा में खुल कर साथ दिया है.
यूपी के राजनीतिक दलों के अलावा केसीआर की बीआरएस, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस को भी यात्रा से दूरी बनाते देखा गया है - और ये सारे ही राजनीतिक दल विपक्षी खेमे के हिसाब से काफी महत्वपूर्ण हैं.
जहां तक बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 में चैलेंज करने की बात है, तो स्थायी दावेदार राहुल गांधी के अलावा अब मार्केट में केसीआर, अरविंद केजरीवाल के साथ साथ नीतीश कुमार भी दस्तक दे चुके हैं - देखना है, इनमें से कोई अखिलेश यादव को पसंद है क्या?
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