अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की एमएलसी चुनाव में तो यूपी विधानसभा चुनावों से भी बुरी हार हुई है. हैरानी की बात तो ये है कि जो जातीय कार्ड खेल कर बीजेपी ने भारी जीत हासिल कर ली, अखिलेश यादव के उम्मीदवार ऐसे लुढ़के कि कइयों की जमानत तक जब्त हो गयी.
लाइव बहसों में चाहें तो समाजवादी प्रवक्ता बता सकते हैं कि ऐसे अप्रत्यक्ष चुनावों के नतीजे तो सत्ताधारी दल के पक्ष में ही आते हैं. चाहें तो वे ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों चुनाव के नतीजों की और ध्यान दिला कर समझाने की कोशिश कर सकते हैं. ये याद दिलाते हुए कि पंचायत चुनाव में तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर ही था. जाहिर है, ऐसी दलीलों पर ये भी सवाल उठेंगे ही कि अगर पंचायत चुनाव में सपा का प्रदर्शन बेहतर रहा तो विधानसभा चुनाव में भाजपा से पिछड़ क्यों गयी?
यूपी से ठीक पहले बिहार में भी लोकल अथॉरिटीज से ही विधान परिषद के चुनाव हुए हैं, लेकिन वहां तो तेजस्वी यादव की पार्टी आरजेडी ने 24 में से छह सीटें जीत ली है. बिहार में यूपी जैसे नतीजे तो एनडीए के लिए भी नहीं रहे. एनडीए के हिस्से में 13 सीटें ही आ सकी हैं.
फिर तो सवाल उठेगा ही कि अगर तेजस्वी यादव की आरजेडी बिहार में जीत सकती है तो यूपी में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी क्यों नहीं - और अगर नहीं तो, ये मान लेना होगा कि कहीं न कहीं कोई बड़ा लोचा जरूर है.
यूपी एमएलसी चुनाव (P MLC Election) में अखिलेश यादव के 15 उम्मीदवार उनकी अपनी यादव बिरादरी से रहे, जबकि बीजेपी ने 16 ठाकुरों को टिकट दिया था. बीजेपी उम्मीदवारों की जीत तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) पर लगने वाले ठाकुरवाद के आरोप पर भारी ही लगती है. फिलहाल तो ऐसा ही है - क्योंकि जीत सारे सवालों का जवाब होती है. नतीजे आने पर मालूम हुआ कि अखिलेश यादव के सभी 15 उम्मीदवार चुनाव हार गये, लेकिन बीजेपी के सिर्फ दो ही हारे.
अभी के लिए तो उम्मीदवारों की जीत और हार ही बहस के मुद्दा रहेगा, लेकिन अखिलेश यादव के लिए ये भविष्य की चुनौतियों की तरफ...
अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की एमएलसी चुनाव में तो यूपी विधानसभा चुनावों से भी बुरी हार हुई है. हैरानी की बात तो ये है कि जो जातीय कार्ड खेल कर बीजेपी ने भारी जीत हासिल कर ली, अखिलेश यादव के उम्मीदवार ऐसे लुढ़के कि कइयों की जमानत तक जब्त हो गयी.
लाइव बहसों में चाहें तो समाजवादी प्रवक्ता बता सकते हैं कि ऐसे अप्रत्यक्ष चुनावों के नतीजे तो सत्ताधारी दल के पक्ष में ही आते हैं. चाहें तो वे ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों चुनाव के नतीजों की और ध्यान दिला कर समझाने की कोशिश कर सकते हैं. ये याद दिलाते हुए कि पंचायत चुनाव में तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर ही था. जाहिर है, ऐसी दलीलों पर ये भी सवाल उठेंगे ही कि अगर पंचायत चुनाव में सपा का प्रदर्शन बेहतर रहा तो विधानसभा चुनाव में भाजपा से पिछड़ क्यों गयी?
यूपी से ठीक पहले बिहार में भी लोकल अथॉरिटीज से ही विधान परिषद के चुनाव हुए हैं, लेकिन वहां तो तेजस्वी यादव की पार्टी आरजेडी ने 24 में से छह सीटें जीत ली है. बिहार में यूपी जैसे नतीजे तो एनडीए के लिए भी नहीं रहे. एनडीए के हिस्से में 13 सीटें ही आ सकी हैं.
फिर तो सवाल उठेगा ही कि अगर तेजस्वी यादव की आरजेडी बिहार में जीत सकती है तो यूपी में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी क्यों नहीं - और अगर नहीं तो, ये मान लेना होगा कि कहीं न कहीं कोई बड़ा लोचा जरूर है.
यूपी एमएलसी चुनाव (P MLC Election) में अखिलेश यादव के 15 उम्मीदवार उनकी अपनी यादव बिरादरी से रहे, जबकि बीजेपी ने 16 ठाकुरों को टिकट दिया था. बीजेपी उम्मीदवारों की जीत तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) पर लगने वाले ठाकुरवाद के आरोप पर भारी ही लगती है. फिलहाल तो ऐसा ही है - क्योंकि जीत सारे सवालों का जवाब होती है. नतीजे आने पर मालूम हुआ कि अखिलेश यादव के सभी 15 उम्मीदवार चुनाव हार गये, लेकिन बीजेपी के सिर्फ दो ही हारे.
अभी के लिए तो उम्मीदवारों की जीत और हार ही बहस के मुद्दा रहेगा, लेकिन अखिलेश यादव के लिए ये भविष्य की चुनौतियों की तरफ इशारा कर रहा है. जब तक अखिलेश यादव जातीय राजनीति के दायरे से बाहर नहीं निकलते, चुनावी नतीजे ऐसे ही आते रहेंगे.
जातीय राजनीति और उसका दायरा
बेशक अखिलेश यादव ने एमएलसी चुनाव में भी जिताऊ उम्मीदवारों को टिकट दिया होगा, लेकिन वो तेजस्वी यादव की तरह सफल क्यों नहीं हो सके - क्या इसलिए क्योंकि आरजेडी नेता ने अपनी यादव बिरादरी पर आंख मूंद कर भरोसा करने की जगह बड़ा दिल दिखाते हुए टिकटों पर फैसला लिया.
ये अखिलेश यादव के लिए बेहतरीन सबक भी हो सकता है कि बिहार विधान परिषद के लिए चुने गये आरजेडी के छह विधायकों में से चार सवर्ण तबके के हैं. तीन भूमिहार और एक ठाकुर कम्युनिटी से. यूपी और बिहार की जातीय राजनीति में बहुत मामूली फर्क है, लिहाजा कॉमन पैमानों पर चीजों को समझने की कोशिश की जा सकती है.
उत्तर प्रदेश में विधान परिषद की 36 सीटों पर चुनाव हुए थे और उनमें से 9 पर बीजेपी उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गये थे. बीजेपी ने जिन उम्मीदवारों को टिकट दिये थे, 16 उनमें ठाकुर समुदाय से रहे. बीजेपी के ठाकुर उम्मीदवारों को योगी आदित्यनाथ के प्रयोग या टिकट बंटवारे में दखल या फिर उनके जिताऊ होने की गारंटी जैसे पैमानों पर तौला जा सकता है. बीजेपी के जो तीन उम्मीदवार हारे उनमें दो ठाकुर और एक कुर्मी तबके से रहे. डॉक्टर सुदामा पटेल जो बनारस में निर्दल उम्मीदवार अन्नपूर्णा सिंह से हार गये. हालांकि, ऐसी आशंका वो पहले से ही जताते रहे.
बीजेपी के निर्विरोध चुन लिए गये उम्मीदवारों के बाद 27 सीटें बची थीं - और उनमें से 15 पर अखिलेश यादव ने यादव तबके के नेताओं को टिकट दिया था. मुस्लिम समुदाय के तीन उम्मीदवार रहे - और उनके लिए नतीजे विधानसभा चुनावों जैसे तो बिलकुल नहीं रहे.
ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव अभी अपने जातीय दायरे से बाहर खुद ही नहीं निकल पा रहे हैं. तभी तो वो सिर्फ यादवों के नेता बन कर रह गये हैं. बात भले ही समाजवादियों के साथ अंबेडकरवादियों के मिल कर लड़ने की करें, लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये सब देखने को तो नहीं ही मिल रहा है.
जब ये हाल रहेगा तो अखिलेश यादव भला पिछड़ों के नेता कैसे बन पाएंगे. जब गैर-यादव ओबीसी और अंबेडकरवादी गैर-जाटव दलित ही अखिलेश यादव का साथ देने को तैयार नहीं लगते तो अगड़ों के बारे में तो कल्पना भी बेमानी है. देखा जाये तो तेजस्वी यादव इस हिसाब से आरजेडी का दायरा बढ़ाने में अखिलेश यादव के मुकाबले काफी आगे हैं.
मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव दोनों ही नेताओं की राजनीति का सबल पक्ष यादव और मुस्लिम गठजोड़ वाला जनाधार रहा है. लेकिन मुलायम और लालू के यादव वोट और अखिलेश में बड़ा फर्क नजर आता है.
मुलायम सिंह यादव और लालू यादव दोनों ही यादवों के नेता होते हुए भी पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं - सामाजिक न्याय की लालू और मुलायम की लड़ाई और राजनीति की विरासत के भरोसे ही तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव अपने अपने राज्य में मुख्यधारा की राजनीति में टिके हुए हैं, लेकिन प्रदर्शन के हिसाब से देखा जाये तो अखिलेश यादव पिछड़ते हुए लगते हैं. यूपी और बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों की तुलना करें तो भी ऐसा ही लगता है.
अखिलेश यादव की राजनीति अपग्रेड मांग रही है: 2017 में अखिलेश यादव के सत्ता गंवा देने के पीछे कई कारण रहे, लेकिन पांच साल तैयारी का जो मौका मिला था उसका कम ही फायदा उठा सके. ऐसा तो नहीं कह सकते कि अखिलेश यादव भी मायावती की तरह बिलकुल भी घर से नहीं निकले, लेकिन एक लंबा वक्त गुजार जरूर दिया. गवां दिया, ऐसा भी कहें तो गलत नहीं लगता.
2022 में समाजवादी पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के घर तक तो पहुंचे, लेकिन आगे पीछे या आस पास की चीजों से आंख मूंद ली. भूल सुधार जैसा अखिलेश यादव का व्यवहार भी करीब करीब वैसा ही रहा, जैसा पांच साल पहले थे. होना तो ये चाहिये था कि अखिलेश यादव, शिवपाल यादव के समर्थकों को अपने साथ रखने की कोशिश किये होते. नेता को कुछ दे देने से सारे सपोर्टर भी खुश हो जायें, जरूरी तो नहीं है. समर्थकों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं. ये तो नहीं कह सकते कि अखिलेश यादव के लिए शिवपाल यादव से डील करना आसान रहा होगा, लेकिन राजनीति में मजबूरी का फायदा उठाते वक्त भी उसके दूरगामी नतीजों पर गौर करना जरूरी होता है.
चुनाव नतीजे बार बार बता रहे हैं कि अखिलेश यादव को यादव-कल्याण छोड़ कर जन-कल्याण के बारे में सोचना होगा. तभी आम वोटर का ध्यान खींच सकेंगे. लोगों का भरोसा बढ़े ऐसे उपाय करने होंगे.
देश में जो हाल राहुल गांधी का हुआ है, अखिलेश यादव भी उसी राह पर दिखायी पड़ रहे हैं. थोड़ा फर्क ये है कि अखिलेश यावद ने दिल्ली में डेरा डालने के बजाय लखनऊ में रह कर लड़ने का फैसला किया है और इसीलिए थोड़ी उम्मीद बची हुई लगती है - सारी कवायद के बावजूद अखिलेश यादव की राजनीति को मेजर अपग्रेड की तलब हो रही है.
मऊ और बनारस का प्रयोग भी एक जैसा ही है
यूपी विधानसभा में मऊ और विधान परिषद चुनाव में बनारस में एक जैसे प्रयोग किये गये हैं. जो रास्ता अखिलेश यादव ने मऊ में निकाला था, बीजेपी ने बिलकुल वैसा ही प्रयोग वाराणसी में किया है. ये ऐसा प्रयोग रहा है जिसमें बीजेपी और अखिलेश यादव दोनों सफल नजर आते हैं.
वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है, लिहाजा हर सूरत में बीजेपी वहां अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है. विधानसभा चुनावों में सबने देखा ही कि कैसे खुद प्रधानमंत्री मोदी ने शहर दक्षिणी सीट पर बीजेपी की जीत पक्की करने के लिए रोड शो तो किया ही, अस्सी में पप्पू की दुकान पर पहुंच कर चाय भी पी और पान भी खाये.
तकनीकी तौर पर तो बीजेपी यूपी में 33 सीट ही जीती है, लेकिन व्यावहारिक नतीजों को देखें तो सौ फीसदी जीत लगती है - और इसी में बनारस में मिली हार भी शामिल की जा रही है. ये बीजेपी की नैतिक मजबूरी रही कि यूपी में सरकार होने की वजह से वाराणसी में अधिकृति प्रत्याशी उतारना पड़ा, वरना 2016 में तो खुल कर समर्थन किया था.
सुदामा पटेल तो डमी कैंडिडेट ही थे: भारतीय जनता पार्टी ने वाराणसी में डॉक्टर सुदामा पटेल को प्रत्याशी बनाया था. शुरू से ही उनका मुकाबला निर्दल उम्मीदवार अन्नपूर्णा सिंह से माना जा रहा था. अन्नपूर्णा सिंह जेल में बंद यूपी के माफिया डॉन बृजेश सिंह की पत्नी हैं - और बीजेपी उम्मीदवार को शिकस्त देकर चुनाव जीत चुकी हैं.
असल में तो सुदामा पटेल बीजेपी के डमी कैंडिडेट थे. वो तो हार जाने के लिए ही खड़े किये गये थे. सबसे दिलचस्प बात ये रही कि वो शुरू से ही शक जाहिर करते रहे कि बीजेपी कार्यकर्ता उनका साथ नहीं दे रहे हैं - और नतीजे आने पर नाराजगी भी जाहिर हो गयी.
हार के बाद सुदामा पटेल मन की बात पर काबू नहीं कर सके, 'जब अन्नपूर्णा सिंह के पास दस ऐसे कार्यकर्ता नहीं, जो मतगणना करा पायें. दस में से चार भाजपा कार्यकर्ता अन्नपूर्णा सिंह का साथ दे रहे हैं - मतगणना में इससे बुरी बात क्या हो सकती है!'
बातों बातों में सुदामा पटेल ने ये संकेत भी दिया कि पार्टी को भी सब कुछ पता है, लेकिन अगर ऐसा है तो क्या समझा जाये? सुदामा पटेल ध्यान दिलाते हैं, 'वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का क्षेत्र है और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ जी की सरकार है... निकाय चुनाव की जिम्मेदारी पार्टी की होती है... मैं चुनाव हारा हूं... धनबल और बाहुबल की जीत हुई तो कहीं न कहीं सामाजिक चेतना की हार हुई है जो समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है.'
जैसे अब्बास अंसारी, वैसी अन्नपूर्णा सिंह: अखिलेश यादव भी बीजेपी जैसे ही प्रयोग कर रहे हैं. जैसे वाराणसी में अन्नपूर्णा सिंह की जीत हुई है, विधानसभा चुनाव में मऊ सीट से अब्बास अंसारी की जीत के लिए अखिलेश यादव ने भी वैसा ही रास्ता अपनाया था.
वाराणसी में बीजेपी ने अन्नपूर्णा सिंह के खिलाफ अपना अधिकृत उम्मीदवार वैसे ही उतार दिया था, जैसे अब्बास अंसारी को मऊ सीट से ओमप्रकाश राजभर ने सपा गठबंधन में अपने कोटे से टिकट दिया था. मतलब, दोनों ही मामलों में परदे के पीछे उम्मीदवारों को एक जैसा सपोर्ट मिला. जैसे अब्बास अंसारी को वैसे ही अन्नपूर्णा सिंह को भी.
और ये बात तो सुदामा पटेल नतीजे आने से पहले भी कहते रहे, 'बृजेश सिंह वाराणसी के सेंट्रल जेल में बंद हैं... उनका मिलना जुलना चलता रहता है. लोगों में डर समाया रहता है कि कहीं सुदामा पटेल का साथ देंगे तो हम चिह्नित हो जाएंगे.'
बीजेपी कार्यकर्ताओं का साथ न मिल पाने पीड़ा सुदामा पटेल की बातों से पहले ही जाहिर होने लगी थी, जब इतने बड़े बाहुबली मैदान में होते हैं तो काफी कार्यकर्ता पीछे हट जाते हैं या फिर साइलेंट हो जाते हैं.
वैसे भी विधानसभा चुनावों में मुख्तार अंसारी के सपोर्ट को लेकर अखिलेश यादव के सहयोगी ओमप्रकाश राजभर माफिया डान बृजेश सिंह का ही उदाहरण दे रहे थे. राजभर की दलील थी कि अगर बीजेपी बृजेश सिंह को सपोर्ट कर सकती है तो वो मुख्तार अंसारी का सपोर्ट क्यों नहीं कर सकते? यूपी पुलिस की मानें तो मुख्तार और बृजेश दोनों एक दूसरे से जानी दुश्मन हैं. दोनों की दुश्मनी के कई किस्से भी हैं जिनमें एक मुख्तार के एलएमजी खरीदने की कोशिश भी बतायी जाती है. ये वही वाकया है जिसे लेकर शैलेंद्र सिंह को पुलिस उपाधीक्षक के पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
2016 में बृजेश सिंह ने खुद चुनाव लड़ा था और तब बीजेपी की तरफ से समर्थन ऐसा रहा कि पार्टी ने किसी को टिकट ही नहीं दिया. वैसे अन्नपूर्णा सिंह 2010 में भी एमएलसी रह चुकी हैं. तब वो बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ी थीं.
अखिलेश यादव के लिए सबक क्या है:
1. बीजेपी जैसे प्रयोग भी कामयाबी दिला सकते हैं, लेकिन बीजेपी जैसी कामयाबी हासिल कर लेने के बाद
2. तेजस्वी यादव की राजनीति भी अखिलेश यादव जैसी ही है. दोनों एक ही परिस्थिति की वजह से राजनीति में हैं, लेकिन एक जैसे हालात में दोनों रेस में आगे पीछे चल रहे हैं. बेहतर होगा अगर अखिलेश यादव भी जातीय राजनीति का दायरा बढ़ा कर प्रयास करें.
3. जिस तरह की राजनीति यूपी और बिहार में है, चाहे वो अखिलेश यादव हों या तेजस्वी यादव मुश्किलें दोनों के सामने एक जैसी हैं. ऐसे में अगर अखिलेश यादव भी सर्वमान्य नेता न बन सकें तो कम से कम यादव कुल से आगे बढ़ कर पिछड़े वर्क के नेता तो बनने की कोशिश करें ही
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दलित राजनीति से मायावती को दूर करने की तैयारी शुरू!
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