एक तरफ अखिलेश यादव अगले लोकसभा चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की बातें कर रहे हैं, तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे हैं. अखिलेश यादव कुछ दिन पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में भी उपस्थित थे. यह बात स्पष्ट है कि अखिलेश यादव केंद्र की राजनीति में अपने दल की पहचान बनाना चाहते हैं. आने वाले समय में वह समाजवादी पार्टी को एक राष्ट्रीय दल के रूप में परिवर्तित होता देखना चाहते हैं. प्रत्येक राजनीतिक दल का यह अधिकार है कि वह अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करे और राज्य की पार्टी से बढ़कर राष्ट्रीय पार्टी बन सके.
पिछले लगभग दो साल से अखिलेश यादव विकास आधारित राजनीति पर जोर देते नज़र आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान उन्होंने अपने विकास मॉडेल को प्रस्तुत करके चुनाव जीतने का प्रयास भी किया था. हालाँकि इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली थी, फिर भी अखिलेश अपनी इस रणनीति पर कायम हैं. यह स्पष्ट है कि अगले जो भी चुनाव अखिलेश लड़ेंगे उसमें समाजवादी विकास बनाम भाजपा विकास की तुलना पर ज़ोर देंगे. अपने जन्म से लेकर पिछले 2-3 वर्षों तक विकास या सुशासन कभी भी समाजवादी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास आधारित राजनीति ने अखिलेश को भी इन मुद्दों पर राजनीति करने पर मजबूर किया है. हालांकि अखिलेश अब भी अल्पसंख्यक प्रेम और फर्ज़ी धर्मनिरपेक्षता से चिपके हुए हैं.
जैसे-जैसे समाजवादी पार्टी अखिलेश के इर्द-गिर्द सिमट रही है वैसे-वैसे दल के वरिष्ठ नेता अपने आपको उपेक्षित और अपमानित सा महसूस कर रहे हैं. चाहे वह...
एक तरफ अखिलेश यादव अगले लोकसभा चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की बातें कर रहे हैं, तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे हैं. अखिलेश यादव कुछ दिन पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में भी उपस्थित थे. यह बात स्पष्ट है कि अखिलेश यादव केंद्र की राजनीति में अपने दल की पहचान बनाना चाहते हैं. आने वाले समय में वह समाजवादी पार्टी को एक राष्ट्रीय दल के रूप में परिवर्तित होता देखना चाहते हैं. प्रत्येक राजनीतिक दल का यह अधिकार है कि वह अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करे और राज्य की पार्टी से बढ़कर राष्ट्रीय पार्टी बन सके.
पिछले लगभग दो साल से अखिलेश यादव विकास आधारित राजनीति पर जोर देते नज़र आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान उन्होंने अपने विकास मॉडेल को प्रस्तुत करके चुनाव जीतने का प्रयास भी किया था. हालाँकि इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली थी, फिर भी अखिलेश अपनी इस रणनीति पर कायम हैं. यह स्पष्ट है कि अगले जो भी चुनाव अखिलेश लड़ेंगे उसमें समाजवादी विकास बनाम भाजपा विकास की तुलना पर ज़ोर देंगे. अपने जन्म से लेकर पिछले 2-3 वर्षों तक विकास या सुशासन कभी भी समाजवादी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास आधारित राजनीति ने अखिलेश को भी इन मुद्दों पर राजनीति करने पर मजबूर किया है. हालांकि अखिलेश अब भी अल्पसंख्यक प्रेम और फर्ज़ी धर्मनिरपेक्षता से चिपके हुए हैं.
जैसे-जैसे समाजवादी पार्टी अखिलेश के इर्द-गिर्द सिमट रही है वैसे-वैसे दल के वरिष्ठ नेता अपने आपको उपेक्षित और अपमानित सा महसूस कर रहे हैं. चाहे वह मुलायम सिंह यादव हों या शिवपाल यादव. दोनों का दुख समय-समय पर झलकता नज़र आता है. हाल ही में मुलायम का कहना था कि 'अब दल में उनका कोई सम्मान नहीं करता, जब वह इस संसार में नहीं रहेंगे शायद तब उन्हें सम्मान मिलेगा'. अपने भाई की बात सुन शिवपाल भी रह न सके और उन्होंने भी कह दिया कि पिछले एक साल छह महीने से उन्हें दल में कोई सम्मानजनक पद नहीं मिला है.
मुलायम सिंह तो अखिलेश के पिता हैं इसलिए उनसे अखिलेश को खतरा नहीं है परंतु ऐसा भरोसा शिवपाल यादव पर नहीं जताया जा सकता. उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के समय भी शिवपाल ने नए दल बनाने की धमकी दी थी. उस समय के झगड़े ने समाजवादी पार्टी को चुनावों में बहुत नुकसान पहुंचाया था.
2019 के लोक सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के परिपेक्ष्य में शिवपाल सिंह यादव भाजपा के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकते हैं. हाल ही में योगी सरकार ने शिवपाल के आईएएस दामाद की उत्तर प्रदेश में दो साल प्रतिनियुक्ति बढ़ाने की मंज़ूरी केंद्र सरकार को भेजी है. यह साफ है कि भाजपा शिवपाल को अपनी ओर से प्रसन्न रखना चाहती है ताकि यदि लोक सभा चुनावों की समय ज़रूरत पड़े तो वह उन्हें अखिलेश और मायावती के गठजोड़ के विरुद्ध प्रयोग कर सकें. इस कड़ी में अपर्णा यादव भी शामिल हैं जो पूर्व में कई विषयों पर दल के विपरीत विचार रख चुकी हैं.
अखिलेश यादव की राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने की महत्वाकांक्षा में कोई खराबी नहीं है लेकिन यदि उनके घर में ही बिखराव होगा तो वह कैसे उत्तर प्रदेश से बाहर के सपने देख सकते हैं? अखिलेश पहले अपना घर संभालें, फिर बाहर की सोचें.
ये भी पढ़ें-
बिहार में खिचड़ी चलेगी या फिर खीर
प्रधानमंत्री पद की रेस में ममता बनर्जी को मायावती पीछे छोड़ सकती हैं
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.