प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और भाजपा के खिलाफ विपक्ष का मिशन 2024 बहुत तेजी से आगे बढ़ता दिखाई पड़ रहा है. मानसून सत्र की शुरुआत से लेकर अभी तक विपक्ष की हुई तमाम बैठकों को देखकर फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले जो विपक्ष (Opposition) तमाम मामलों पर बंटा हुआ नजर आ रहा था. वो अब काफी हद तक मजबूती के साथ एक ही राह पर चल रहा है. साझा विपक्ष के इस फॉर्मूले के साथ आश्चर्यजनक रूप से YSRCP और बीजेडी जैसे दल भी खड़े नजर आ रहे हैं, जो कई मामलों पर भाजपा (BJP) के पाले में खड़े दिखाई देते हैं. साझा विपक्ष को और ज्यादा मजबूती देने के क्रम में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वर्चुअल मीटिंग के जरिये 18 विपक्षी दलों के नेताओं से एकजुटता का आह्वान किया. बताया जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी (BSP) और आम आदमी पार्टी को इस बैठक का न्योता नहीं दिया गया था. लेकिन, साझा विपक्ष की इस पूरी कवायद से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) का गायब होना सबसे ज्यादा चौंकाता है.
उत्तर प्रदेश की अहमियत
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि साझा विपक्ष की ये कोशिश 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर हो रही है. लेकिन, जिस उत्तर प्रदेश को लेकर ये कहा जाता हो कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है. उस सूबे के सबसे बड़े विपक्षी दल समाजवादी पार्टी का इस मीटिंग से गायब रहना साझा विपक्ष की संभावनाओं के लिए झटका तो कहा ही जा सकता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति केवल को केवल इसी राज्य तक सीमित नहीं माना जाता है. यूपी की सियासत का असर पड़ोस के लगभग सभी सूबों में देखने में मिलता है. अगर ये कहा जाए कि अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly Elections 2022) ही आने वाले समय में पूरी तरह से मिशन 2024 की दिशा और दशा तय करेंगे, तो अतिश्योक्ति नहीं होगा. दरअसल, 2024 से पहले भाजपा को बड़ा झटका देने के लिए उत्तर प्रदेश ही वो सियासी प्रयोगशाला है, जहां से साझा विपक्ष का फॉर्मूला असल में निकलने वाला है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और भाजपा के खिलाफ विपक्ष का मिशन 2024 बहुत तेजी से आगे बढ़ता दिखाई पड़ रहा है. मानसून सत्र की शुरुआत से लेकर अभी तक विपक्ष की हुई तमाम बैठकों को देखकर फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले जो विपक्ष (Opposition) तमाम मामलों पर बंटा हुआ नजर आ रहा था. वो अब काफी हद तक मजबूती के साथ एक ही राह पर चल रहा है. साझा विपक्ष के इस फॉर्मूले के साथ आश्चर्यजनक रूप से YSRCP और बीजेडी जैसे दल भी खड़े नजर आ रहे हैं, जो कई मामलों पर भाजपा (BJP) के पाले में खड़े दिखाई देते हैं. साझा विपक्ष को और ज्यादा मजबूती देने के क्रम में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वर्चुअल मीटिंग के जरिये 18 विपक्षी दलों के नेताओं से एकजुटता का आह्वान किया. बताया जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी (BSP) और आम आदमी पार्टी को इस बैठक का न्योता नहीं दिया गया था. लेकिन, साझा विपक्ष की इस पूरी कवायद से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) का गायब होना सबसे ज्यादा चौंकाता है.
उत्तर प्रदेश की अहमियत
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि साझा विपक्ष की ये कोशिश 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर हो रही है. लेकिन, जिस उत्तर प्रदेश को लेकर ये कहा जाता हो कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है. उस सूबे के सबसे बड़े विपक्षी दल समाजवादी पार्टी का इस मीटिंग से गायब रहना साझा विपक्ष की संभावनाओं के लिए झटका तो कहा ही जा सकता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति केवल को केवल इसी राज्य तक सीमित नहीं माना जाता है. यूपी की सियासत का असर पड़ोस के लगभग सभी सूबों में देखने में मिलता है. अगर ये कहा जाए कि अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly Elections 2022) ही आने वाले समय में पूरी तरह से मिशन 2024 की दिशा और दशा तय करेंगे, तो अतिश्योक्ति नहीं होगा. दरअसल, 2024 से पहले भाजपा को बड़ा झटका देने के लिए उत्तर प्रदेश ही वो सियासी प्रयोगशाला है, जहां से साझा विपक्ष का फॉर्मूला असल में निकलने वाला है.
देशभर में जाति और धर्म की राजनीति के सबसे बड़ा चुनावी रणक्षेत्र के तौर पर उत्तर प्रदेश को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कांग्रेस, सपा, बसपा, आरजेडी, आप समेत जातिगत राजनीति करने वाले दर्जनों छोटे दलों को एकसाथ लाना सबसे बड़ी चुनौती है. लेकिन, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले साझा विपक्ष को लेकर सूबे में अभी तक चुप्पी छाई हुई है. अखिलेश यादव छोटे दलों को साथ लाने की कवायद में लगे हैं. कांग्रेस मुस्लिम समुदाय को साधने की कोशिश कर रही है. और बसपा का हाथी अलग ही राह पर चल रहा है. राज्य के तीन विपक्षी दल तीन दिशाओं में जाते हुए नजर आ रहे हैं. अगर भविष्य में भी यही स्थिति बनी रहती है, तो 2024 के लिए साझा विपक्ष का फॉर्मूला कहीं न कहीं खटाई में पड़ता नजर आ रहा है. वहीं, सोनिया गांधी की हालिया मीटिंग से सपा प्रमुख अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की दूरी से विपक्षी एकजुटता की उम्मीदें अभी से धूमिल होती नजर आ रही हैं.
प्रियंका ने 'हाथ' बढ़ाया, लेकिन अखिलेश ने झिटका
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यानाथ सरकार (Yogi Adityanath) के सामने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी के तौर पर फिलहाल समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को ही माना जा रहा है. समाजवादी पार्टी सूबे में गठबंधन के लिए भी कोशिशें कर रही है. लेकिन, कांग्रेस और बसपा के साथ गठबंधन की कड़वाहट का स्वाद चख चुके अखिलेश यादव लगातार छोटे सियासी दलों से ही गठबंधन करने की बात दोहरा रहे हैं. हालांकि, कांग्रेस महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने कुछ पत्रकारों को 'ऑफ द रिकॉर्ड' जाकर ये बात कही थी कि वो सपा (SP) के साथ गठबंधन को तैयार हैं. प्रियंका गांधी ने कहा था कि हमारी पार्टी गठबंधन को लेकर ओपन माइंडेड है और हमारा मकसद भाजपा को हराना है. प्रियंका गांधी ने ये जरूर कहा कि गठबंधन के लिए हमारे विकल्प खुले हुए हैं. लेकिन, कोई भी समझौता पार्टी हितों की कीमत पर नहीं होगा.
लेकिन, इस 'ऑफ द रिकॉर्ड' बातचीत के सामने आने के कुछ ही दिनों बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस और बसपा से पहले ये तय करने को कहा कि उनकी लड़ाई भाजपा से है या सपा से. कुल मिलाकर अखिलेश यादव कांग्रेस और बसपा के साथ गठबंधन कर पहले मिल चुकी चोट को भूलने की कोशिश करते नहीं दिख रहे हैं. अगर ये कहा जाए कि उन्होंने एक तरह से प्रियंका गांधी के दोस्ती के हाथ को झिटक दिया है, तो गलत नहीं होगा. हालांकि, राहुल गांधी की 'ब्रेकफास्ट पर चर्चा' में शामिल होकर सपा ने संकेत दिए थे कि वो कांग्रेस के साथ तालमेल करने को तैयार है. दरअसल, यूपी में अगर कांग्रेस खुद को छोटा दल मानते हुए अखिलेश यादव से गठबंधन करेगी, तो ही ये साझा विपक्ष का फॉर्मूला जमता दिख रहा है. वरना भाजपा के सामने विपक्ष के तौर पर एक दल और बढ़ जाएगा.
कांग्रेस को नुकसान ही पहुंचाती दिख रही हैं मायावती
दलितों की सबसे बड़ी नेता कही जाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती भी पहले ही साफ कर चुकी है कि वो किसी भी सियासी दल से गठबंधन नही करेंगी. हालांकि, पंजाब में उन्होंने कांग्रेस के ही खिलाफ अकाली दल से गठबंधन कर लिया है. वैसे, बात उत्तर प्रदेश की हो या पंजाब की, मायावती की रणनीति अभी तक तो सीधे तौर पर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने की ही नजर आ रही है. हालांकि, मायावती पर भाजपा का एजेंट होने के आरोप सपा और कांग्रेस की ओर से लगाए जा रहे हैं. लेकिन, इसका असर मायावती के काडर वोट बैंक पर पड़ता नजर नहीं आ रहा है. आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर रावण बीते कुछ समय में युवा दलित नेता के तौर पर उभरे जरूर हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी मायावती के दलितों का मसीहा वाली छवि के आस-पास भी फटकता नजर नहीं आता है. अपने काडर वोट के सहारे मायावती अगर सत्ता में नही आ पाएंगी, तो इतना तो तय है कि अन्य सियासी दलों का खेल जरूर बिगाड़ देंगी.
हिंदी पट्टी समेत कई राज्यों में पहले से ही बिखरा है साझा विपक्ष
कई राज्यों में साझा विपक्ष पूरी तरह से बंटा हुआ नजर आता है. हिंदी पट्टी के तकरीबन हर राज्य समेत अन्य राज्यों में भी यही स्थिति देखने को मिलती है. वामदल मिशन 2024 के लिए तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के साथ आने की बात कर रहा है. लेकिन, पश्चिम बंगाल में वो किसी भी हाल में पीछे हटने को तैयार नही हैं. ठीक ऐसी ही स्थिति उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और महाराष्ट्र में भी है. यहां कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के मुकाबले क्षेत्रीय दलों की भूमिका कहीं ज्यादा बड़ी नजर आती है. लेकिन, कांग्रेस भी अपना राज्यों में फैला जनाधार यूं ही किसी सियासी दल को ट्रांसफर नहीं कर पाएगी. क्योंकि, इससे कहीं न कहीं कांग्रेस को ही नुकसान होगा.
वहीं, बसपा और आम आदमी पार्टी के बगावती तेवर कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी हैं. दरअसल, इन दोनों ही दलों के निशाने पर कांग्रेस है. ये सियासी दल कांग्रेस शासित राज्यों के साथ ही उन राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत करने में लगे हैं, जहां भाजपा का मुकाबला सीधे कांग्रेस से है. साझा विपक्ष के लिए अपील की जा रही है कि सियासी दलों को अपने मतभेद भुलाकर एकजुट होना होगा. लेकिन, कोई भी राजनीतिक पार्टी अपना जनाधार शायद ही किसी दूसरे सियासी दल के लिए खत्म करने को तैयार होगी. अगर यही हाल रहा, तो मिशन 2024 में भी राज्य स्तर पर लोकसभा सीटों के लिए सिर फुटौव्वल की स्थिति बनेगी ही. इस स्थिति में विपक्ष एकजुट कहां नजर आता है?
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