कौन बनेगा पाकिस्तान का अगला प्रधानमंत्री? ये सवाल उतना अहम नहीं, जितना ये है कि छह महीने बाद हुकूमत पर असलियत में कौन सबसे ज्यादा हावी होगा?
पाकिस्तान में फौजी हुकूमत की दखलंदाजी तो जगजाहिर है - जनरल जिया-उल-हक से लेकर परवेज मुशर्रफ तक. अब इस पैटर्न में तब्दीली होती नजर आ रही है - फिलहाल तो ऐसा लग रहा है जैसे तख्तापलट की कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया धीरे धीरे आगे बढ़ायी जा रही हो.
हाफिज सईद इसी प्रक्रिया का नया चेहरा है, बल्कि कहें तो फौजी हुक्मरानों का नया मोहरा है. पाकिस्तान में 2018 में आम चुनाव होने वाले हैं - और इस बार नवाज शरीफ और इमरान खान की पार्टी के सामने हाफिज सईद नयी चुनौती होगा, ये भी तय है. हाफिज को शायद इस बात से भी फर्क नहीं पड़ने वाला कि चुनाव आयोग उसकी पार्टी को मान्यता देता है या नहीं.
फौज की नयी दखलंदाजी
नवाज शरीफ के इस्तीफे के पीछे भले ही पनामा पेपर्स का नाम लिया जाता हो, लेकिन पर्दे के पीछे पाकिस्तानी फौज ही खड़ी रही. जिस तरह से नवाज शरीफ को कोर्ट में अपना पक्ष रखने का मौका भी ठीक से नहीं दिया गया, वकील अपनी दलीलें भी ठीक से नहीं दे पाये - उससे भला और समझा भी क्या जा सकता है. ये सारी बातें मीडिया के जरिये छन छन कर सामने आती रही हैं.
ऐसा लगा जैसे नवाज को हटाये जाने को लेकर ज्यूडिशियरी भी फौजी हुक्मरानों के प्रभाव में आ गयी हो. तो क्या इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं की गलियों से गुजरते हुए तख्तापलट की तरह नहीं समझा जाना चाहिये?
फौजी दखल की ताजा मिसाल पाकिस्तान के एक धार्मिक गुट टीएएल यानी तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह का इस्लामाबाद के फैजाबाद इंटरचेंज पर धरना और उसके खत्म होने के वाकये से समझा जा सकता है....
कौन बनेगा पाकिस्तान का अगला प्रधानमंत्री? ये सवाल उतना अहम नहीं, जितना ये है कि छह महीने बाद हुकूमत पर असलियत में कौन सबसे ज्यादा हावी होगा?
पाकिस्तान में फौजी हुकूमत की दखलंदाजी तो जगजाहिर है - जनरल जिया-उल-हक से लेकर परवेज मुशर्रफ तक. अब इस पैटर्न में तब्दीली होती नजर आ रही है - फिलहाल तो ऐसा लग रहा है जैसे तख्तापलट की कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया धीरे धीरे आगे बढ़ायी जा रही हो.
हाफिज सईद इसी प्रक्रिया का नया चेहरा है, बल्कि कहें तो फौजी हुक्मरानों का नया मोहरा है. पाकिस्तान में 2018 में आम चुनाव होने वाले हैं - और इस बार नवाज शरीफ और इमरान खान की पार्टी के सामने हाफिज सईद नयी चुनौती होगा, ये भी तय है. हाफिज को शायद इस बात से भी फर्क नहीं पड़ने वाला कि चुनाव आयोग उसकी पार्टी को मान्यता देता है या नहीं.
फौज की नयी दखलंदाजी
नवाज शरीफ के इस्तीफे के पीछे भले ही पनामा पेपर्स का नाम लिया जाता हो, लेकिन पर्दे के पीछे पाकिस्तानी फौज ही खड़ी रही. जिस तरह से नवाज शरीफ को कोर्ट में अपना पक्ष रखने का मौका भी ठीक से नहीं दिया गया, वकील अपनी दलीलें भी ठीक से नहीं दे पाये - उससे भला और समझा भी क्या जा सकता है. ये सारी बातें मीडिया के जरिये छन छन कर सामने आती रही हैं.
ऐसा लगा जैसे नवाज को हटाये जाने को लेकर ज्यूडिशियरी भी फौजी हुक्मरानों के प्रभाव में आ गयी हो. तो क्या इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं की गलियों से गुजरते हुए तख्तापलट की तरह नहीं समझा जाना चाहिये?
फौजी दखल की ताजा मिसाल पाकिस्तान के एक धार्मिक गुट टीएएल यानी तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह का इस्लामाबाद के फैजाबाद इंटरचेंज पर धरना और उसके खत्म होने के वाकये से समझा जा सकता है. टीएएल के करीब तीन हजार कार्यकर्ता 6 नवंबर से धरने पर बैठे थे. आंदोलनकारी चुनाव सुधार के नाम पर संसद में पेश किये गये संशोधन बिल को इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं का उल्लंघन बता रहे थे.
दरअसल, 2 अक्टूबर को पाकिस्तान की संसद में चुनाव सुधार विधेयक पास हुआ था जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों के हलफनामे से 'खात्मे नबूव्वत' या पैगम्बर मोहम्मद वाले खंड को हटा दिया गया था.
टीएएल के कार्यकर्ता इसी बदलाव के विरोध में धरने पर बैठ गये और कानून मंत्री को हटाने की मांग करने लगे. वैसे सरकार ने साफ कर दिया था कि जो कुछ हुआ उसकी वजह सिर्फ टाइपिंग मिस्टेक थी, लेकिन प्रदर्शनकारी तभी माने जब सरकार ने उनकी मांगें मानी. सरकार उनके आगे पूरी तरह बेबस नजर आयी. जब सरकार ने सेना की मदद मांगी तो पहले तो उसने इंकार कर दिया, लेकिन बाद में कट्टरपंथियों के साथ खड़ी दिखी. लिहाजा सरकार को न सिर्फ उनकी मांगें माननी पड़ीं, बल्कि उनके दबाव के आगे झुकते हुए कानून मंत्री को इस्तीफा तक देना पड़ा. प्रदर्शनकारियों के साथ हुए इस समझौते को एक तरीके से प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी के आत्मसमर्पण के तौर पर देखा जा रहा है.
नवाज और इमरान की तरह नेता बनना चाहता है हाफिज
हाफिज सईद के मंसूबे तो हर किसी को मालूम हैं, अब तो उसने अपने सियासी इरादे भी जाहिर कर दिये हैं. लाहौर के पास चाबुर्गी में हाफिज ने सीनियर पत्रकारों के लिए एक शानदार दावत दी थी जिसमें उसने अगले चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान किया. हाफिज सईद ने कहा, "मिल्ली मुस्लिम लीग अगले साल आम चुनाव में उतरने का प्लान बना रही है. मैं भी 2018 को उन कश्मीरियों के नाम करता हूं जो आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं." लश्कर-ए-तैय्यबा पर पाबंदी लगाने के बाद हाफिज ने जमात-उद-दावा नाम से संगठन बनाया लेकिन काम नहीं बना तो इसी साल अगस्त में उसने राजनीतिक पार्टी बनायी - मिल्ली मुस्लिम लीग. रिहर्सल के लिए हाफिज ने लाहौर उपचुनाव में अपना उम्मीदवार भी उतारा लेकिन उसे पांच हजार से भी कम वोट मिले. ये उपचुनाव नवाज शरीफ के इस्तीफे को बाद हुआ था जो उनकी पत्नी बेगम कुलसुम नवाज ने इमरान खान के उम्मीदवार को हरा कर जीत लिया.
पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने हाफिज की पार्टी को अब तक मान्यता नहीं दी है. लाहौर उपचुनाव में तो आयोग ने पार्टी का नाम और प्रचार में हाफिज का फोटो तक इस्तेमाल करने पर भी पाबंदी लगा दी थी. खबरों से पता मालूम होता है कि मान्यता न मिलने की हालत में भी हाफिज सईद ने चुनाव में हिस्सा लेने की तैयारी में जुट गया है. माना जा रहा है कि पार्टी को मान्यता न मिलने पर वो निर्दल अपने उम्मीदवार उतार सकता है.
खास बात ये है कि हाफिज को परवेज मुशर्रफ के तौर पर नया मुरीद भी मिल गया है. पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ ने हाफिज की खुल कर तारीफ की है. हो सकता है किसी और तरीके से दाल न गलते देख मुशर्रफ ने ये नया पैंतरा अपनाया हो. एक और बात, अमेरिकी प्रशासन ने भी पाकिस्तान में तख्तापलट की आशंका जतायी है. अमेरिकी प्रशासन के एक सीनियर अफसर ने हाल ही में एक बयान में ऐसी बात कही थी.
हाफिज पर अमेरिका ने 10 मिलियन डॉलर का इनाम रखा है और संयुक्त राष्ट्र ने उसे आतंकवादियों की काली सूची में डाल रखा है. हाफिज को इस साल 30 जनवरी को नजरबंद कर लिया गया था और पिछले 24 नवंबर को उसे कोर्ट ने रिहा कर दिया. सरकार ने नजरबंदी बढ़ाने की अपील की थी लेकिन उसके सपोर्ट में कोई सबूत नहीं दे पायी. भारत ने हाफिज के मुंबई हमले में शामिल होने के तमाम सबूत दे रखे हैं, लेकिन उसे दरकिनार कर दिया जाता रहा है. दस महीने नजरबंद रहने के बाद रिहा होने पर हाफिज ने संयुक्त राष्ट्र में अर्जी देकर अपना नाम उस सूची से हटाने की गुजारिश की है. पाकिस्तान के साथ वार्ता के सवाल पर एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवाल उठाया था - बातचीत किससे हो? क्या नॉन-स्टेट एक्टर्स से बातचीत की जाये? लग तो ऐसा रहा है कि पाकिस्नाम में उन्हीं नॉन-स्टेट एक्टर्स को लोकतंत्र का छद्म-चोला ओढ़ा कर दुनिया के सामने पेश करने की तैयारी चल रही है. शायद फौजी हुक्मरानों को लगता है कि नवाज शरीफ जैसे राजनेता उनकी कुछ बातें तो मान सकते हैं अपने इशारों पर पूरी तरह नचाना नामुमकिन है. यही वजह है कि हाफिज का चेहरा आगे कर उसे नया मोहरा बनाने की भीतर ही भीतर तैयारी चल रही है.
अगर पाकिस्तान को लगता है कि ये भारत के खिलाफ उसका ब्रह्मास्त्र है तो वो पूरी तरह मुगालते में है. हाफिज सईद भी पाकिस्तान के लिए वैसा ही भस्मासुर साबित होगा जैसा अमेरिका के लिए ओसामा बिन लादेन हुआ. इस बारे में ज्यादा कुछ बताने की जरूरत भी नहीं है.
एक कोरी कल्पना ही सही - फर्ज कीजिए हाफिज सईद चुनाव जीत कर पाकिस्तान का वजीर-ए-आजम बन जाये और परमाणु हथियारों की चाबी उसके हाथ लग जाये. ऐसी खतरनाक स्थिति की महज कल्पना भर की जा सकती है. भारत को भी अब इसी हिसाब से अपनी रणनीति और कूटनीति को आगे बढ़ाना होगा. बस इतना ध्यान रहे - कहीं देर न हो जाये.
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