13 जून को स्ट्रेट ऑफ होर्मुज के नजदीक गल्फ ऑफ ओमान में नॉर्वे और जापान के दो तेल टैंकरों में हमले के बाद अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ता ही जा रहा है. अमेरिका इस हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार मान रहा है. पेंटागन ने 17 जून को एक बयान जारी करते हुए कहा कि मिडिल-ईस्ट में 1000 अतिरिक्त सैन्यबलों को भेजा जाएगा. ईरान ने यह कहते हुए तनाव और बढ़ा दिया कि आगामी दस दिनों में वह न्यूक्लीअर डील में तय कि गयी यूरेनियम स्टॉकपाइल लिमिट को तोड़ते हुए अब 3.7% की जगह 20 % तक यूरेनियम को संवर्धित करेगा. इससे न केवल अमेरिका बल्कि यूरोपीय देश भी सकते में आ गए है क्योंकि यूरेनियम को यदि 90% तक संवर्धित किया जाए तो इससे नुक्लिअर हथियार बनाया जा सकता है. 20 जून को ईरानी रेवोल्यूशनरी गार्ड द्वारा अमेरिकी सर्विलांस ड्रोन 'AnRQ - ग्लोबल हॉक' को कथित तौर पर फ़ारसी हवाई क्षेत्र में घुसने के कारण मार गिराने से यह तनाव अपने चरम पर पहुंच गया है.
इन घटनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि यदि इस तनातानी को जल्द से जल्द नहीं रोका गया तो विश्व को एक और विश्वयुद्ध का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि अगर वाशिंगटन और तेहरान के बीच युद्ध का शंखनाद हआ तो रूस और चीन जैसे देश भी ज़ाहिर है ईरान के समर्थन में कूद पड़ेंगे और उधर अमरीका के साथ नाटो देश तो रहेंगे ही. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तो अमेरिका को चेतावनी देते हुए यहां तक कह दिया कि “ईरान पर हमले का परिणाम बहुत ही विनाशकारी होगा”. पुतिन का कहना भी सही है क्योंकि इससे न केवल बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान होगा बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंचेगा विशेषकर कच्चे तेल की कीमत तो आसमान छूएंगी. इस नुकसान से अपना देश भी वंचित नहीं रह पायेगा.
13 जून को स्ट्रेट ऑफ होर्मुज के नजदीक गल्फ ऑफ ओमान में नॉर्वे और जापान के दो तेल टैंकरों में हमले के बाद अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ता ही जा रहा है. अमेरिका इस हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार मान रहा है. पेंटागन ने 17 जून को एक बयान जारी करते हुए कहा कि मिडिल-ईस्ट में 1000 अतिरिक्त सैन्यबलों को भेजा जाएगा. ईरान ने यह कहते हुए तनाव और बढ़ा दिया कि आगामी दस दिनों में वह न्यूक्लीअर डील में तय कि गयी यूरेनियम स्टॉकपाइल लिमिट को तोड़ते हुए अब 3.7% की जगह 20 % तक यूरेनियम को संवर्धित करेगा. इससे न केवल अमेरिका बल्कि यूरोपीय देश भी सकते में आ गए है क्योंकि यूरेनियम को यदि 90% तक संवर्धित किया जाए तो इससे नुक्लिअर हथियार बनाया जा सकता है. 20 जून को ईरानी रेवोल्यूशनरी गार्ड द्वारा अमेरिकी सर्विलांस ड्रोन 'AnRQ - ग्लोबल हॉक' को कथित तौर पर फ़ारसी हवाई क्षेत्र में घुसने के कारण मार गिराने से यह तनाव अपने चरम पर पहुंच गया है.
इन घटनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि यदि इस तनातानी को जल्द से जल्द नहीं रोका गया तो विश्व को एक और विश्वयुद्ध का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि अगर वाशिंगटन और तेहरान के बीच युद्ध का शंखनाद हआ तो रूस और चीन जैसे देश भी ज़ाहिर है ईरान के समर्थन में कूद पड़ेंगे और उधर अमरीका के साथ नाटो देश तो रहेंगे ही. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तो अमेरिका को चेतावनी देते हुए यहां तक कह दिया कि “ईरान पर हमले का परिणाम बहुत ही विनाशकारी होगा”. पुतिन का कहना भी सही है क्योंकि इससे न केवल बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान होगा बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंचेगा विशेषकर कच्चे तेल की कीमत तो आसमान छूएंगी. इस नुकसान से अपना देश भी वंचित नहीं रह पायेगा.
हम कैसे प्रभावित होंगे...
भारत अपनी कुल तेल खपत का लगभग 80% आयात करता है और ईरान भारत को सबसे ज्यादा कच्चा तेल निर्यात करने वाले देशों की सूची में तीसरा स्थान रखता है. हम ईरान से न केवल कच्चा तेल खरीदते हैं बल्कि फर्टिलाइज़र्स, फार्मास्युटिकल प्रोडक्ट्स और आयरन & स्टील जैसे उत्पाद भी आयात करते हैं.
दोनों देशों के बीच वित्त वर्ष 2018 -19 में कुल $844,103.68 मिलियन का व्यापार हुआ है. इससे भारत के लिए ईरान की अहमियत को समझा जा सकता है. तेहरान और दिल्ली के बीच न केवल व्यापक व्यापारिक सम्बन्ध है बल्कि महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारी भी है . चीन द्वारा पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रान्त में One Belt , One Road के तहत ग्वादर पोर्ट विकसित किये जाने से उसकी पहुंच अरब सागर में प्रत्यक्ष रूप से हो जाएगी, इससे हिंदुस्तान को रणनीतिक घाटा होगा . इसलिए इस खतरे से निपटने के लिए भारत ने भी ईरान के सिसटन और बलोचिस्तान प्रांत स्थित चाहबहार (फ़रस की खाड़ी का एक तटीय इलाका) में भारी निवेश करके एक पोर्ट विकसित किया है जो कि ग्वादर पोर्ट से महज 72 किलोमीटर की दूरी पर है ताकि चीन की हरकतों पर नज़र रखा जा सके.
अब आगे क्या?
भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि यदि अमेरिका और ईरान के बीच जंग हुई तो वह किसके साथ खड़ा हो? एक तरफ ईरान है जिससे हमारे रिश्ते ऐतिहासिक होने का साथ-साथ कच्चे तेल के लिए निर्भरता भी है. हालांकि, अमेरिकी सेंक्शन के कारण ईरान से तेल नहीं खरीदने से होने वाली कमी को साउदी अरब और युएई जैसे देशों से पूरी कि जा सकती लेकिन ईरान हमें CIF mode of shipping से तेल निर्यात करता है और साथ ही 60 दिनों के अंदर भुगतान करने की सुविधा भी देता है. इसका मतलब यह है कि खरीदे गए माल को सुरक्षीत भारतीय पोर्ट में पहुंचाने का पूरा खर्च ईरान वहन करता है और दो महीनें का क्रेडिट भी देता है. दूसरी ओर अमेरिका है जिससे हमारा व्यापारिक और रणनीतिक हित जुड़ा हुआ है. अब देखना यह है कि प्रधानमंत्री मोदी, नेहरू जी की गुट- निरपेक्षता की विदेश नीति को कायम रखते है या मोदी नीति अपनाते है. वैसे यह बुध्द का देश है और वे मध्य मार्ग की बात करते हैं.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.