अमित शाह (Amit Shah) ने बीजेपी के पश्चिम यूपी की कमान अपने हाथ में ले रखी है. ये तो शुरू से ही लग रहा था कि अमित शाह के जिम्मे बीजेपी के चुनाव कैंपेन का सबसे मुश्किल टास्क है - लेकिन शाह की हाल फिलहाल की कुछ एक्टिविटी और बयान बता रहे हैं कि मामला ज्यादा गंभीर और मुश्किल हो चुका है.
अमित शाह का ये अपील करना कि लोग मुख्यमंत्री तक का चेहरा देख कर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट करें. फिर दिल्ली में जाट नेताओं और जाट समुदाय के लोगों की मीटिंग बुलाना और आरएलडी नेता जयंत चौधरी को ऑफर देना - क्या ये सब एक ही तरह की चीजें नहीं लग रही हैं?
और अगर ऐसा है तो क्या ये सवाल नहीं उठता कि क्या मोदी सरकार के कृषि कानूनों की वापसी का बीजेपी को जरा भी फायदा नहीं मिल पा रहा है?
साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन के दबाव में यूपी और पंजाब सहित पांच राज्यों की विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने ये कहते हुए तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की थी कि 'हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी!' अब तो ऐसा लग रहा है कि तपस्या के बाद का कदम भी काम नहीं आ रहा है.
ये ठीक है कि बीजेपी की तरफ से जाटों को कन्फ्यूज करने के लिए जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) को खास अंदाज में ऑफर दिया गया है, लेकिन अगर सब ठीक ठाक होता तो क्या आरएलडी नेता को अमित शाह इतना भाव देने की जरूरत समझते?
आखिर अमित शाह के लिए जयंत चौधरी और अखिलेश यादव में फर्क ही क्या है? दोनों ही बीजेपी के खिलाफ पूरी ताकत से लड़ रहे हैं...
अमित शाह (Amit Shah) ने बीजेपी के पश्चिम यूपी की कमान अपने हाथ में ले रखी है. ये तो शुरू से ही लग रहा था कि अमित शाह के जिम्मे बीजेपी के चुनाव कैंपेन का सबसे मुश्किल टास्क है - लेकिन शाह की हाल फिलहाल की कुछ एक्टिविटी और बयान बता रहे हैं कि मामला ज्यादा गंभीर और मुश्किल हो चुका है.
अमित शाह का ये अपील करना कि लोग मुख्यमंत्री तक का चेहरा देख कर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट करें. फिर दिल्ली में जाट नेताओं और जाट समुदाय के लोगों की मीटिंग बुलाना और आरएलडी नेता जयंत चौधरी को ऑफर देना - क्या ये सब एक ही तरह की चीजें नहीं लग रही हैं?
और अगर ऐसा है तो क्या ये सवाल नहीं उठता कि क्या मोदी सरकार के कृषि कानूनों की वापसी का बीजेपी को जरा भी फायदा नहीं मिल पा रहा है?
साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन के दबाव में यूपी और पंजाब सहित पांच राज्यों की विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने ये कहते हुए तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की थी कि 'हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी!' अब तो ऐसा लग रहा है कि तपस्या के बाद का कदम भी काम नहीं आ रहा है.
ये ठीक है कि बीजेपी की तरफ से जाटों को कन्फ्यूज करने के लिए जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) को खास अंदाज में ऑफर दिया गया है, लेकिन अगर सब ठीक ठाक होता तो क्या आरएलडी नेता को अमित शाह इतना भाव देने की जरूरत समझते?
आखिर अमित शाह के लिए जयंत चौधरी और अखिलेश यादव में फर्क ही क्या है? दोनों ही बीजेपी के खिलाफ पूरी ताकत से लड़ रहे हैं और दोनों का आपस में चुनाव पूर्व गठबंधन भी हो चुका है - दोनों साथ साथ चुनावी रैलियां भी कर रहे हैं.
2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों के बीजेपी के साथ आ जाने से इलाके में मुस्लिम और दलित वोटों के होते हुए भी अखिलेश यादव और मायावती को हमेशा की तरह फायदा नहीं मिल पा रहा था.
हुआ तो अब भी ऐसा नहीं है कि जाट और मुस्लिम एक हो गये हैं. मुस्लिम वोटर तो पहले की तरह ही अपने स्टैंड पर कायम है, लेकिन किसान आंदोलन के चलते जाट वोटर भी बीजेपी के विरोधी खेमे में जाते नजर आने लगे हैं. फिलहाल अमित शाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती भी इसी बात को लेकर है - क्योंकि ये सब तो अमित शाह कृषि कानूनों की वापसी के बगैर भी मैनेज कर लेते.
जाटों को अमित शाह की समझाइश
कहने को तो दिल्ली बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा के घर पर बुलायी गयी मीटिंग में ऐसे जाट नेता शामिल हुए जिनको असरदार माना जाता है. प्रवेश वर्मा ने भी ऐसे समझाया जैसे जिन जाट नेताओं ने मीटिंग में हिस्सा लिया उनका बीजेपी से कोई वास्ता नहीं है और ऐसी बैठकें चुनावों के दौरान हुआ करती हैं. असल बात तो ये मालूम हुई है कि मीटिंग में हिस्सा लेने वाले या तो बीजेपी के नेता रहे या फिर बीजेपी समर्थक.
मीडिया रिपोर्ट के जरिये मीटिंग से जो बात निकल कर आयी है, मालूम होता है कि नेताओं के जरिये अमित शाह ने जाट समुदाय को समझाने के लिए हर वो मिसाल दी या नुस्खा आजमाया जो मुमकिन लगा.
और लगे हाथ अमित शाह ने ये कह कर चेतावनी भी दे डाली, 'अगर आप मुझसे खफा हैं तो संजीव बालियान के साथ मेरे घर आ जाइये... लेकिन अपने वोट को लेकर कोई गलती मत कीजिये - क्योंकि ये गलती पांच साल से पहले ठीक नहीं हो पाएगी.'
अमित शाह ने सबसे बड़ा दांव तो जयंत चौधरी के नाम पर खेला है. रिपोर्ट के अनुसार सीनियर बीजेपी नेता ने कहा, 'जयंत चौधरी गलत संगत में चले गये हैं...' लिहाजा समाज के लोग आरएलडी नेता को अपनी तरफ से समझाने की कोशिश करें.
साथ में अमित शाह ने ये भी साफ कर दिया कि चुनाव बाद जयंत चौधरी के बीजेपी के साथ आने की संभावना भी खत्म नहीं हुई है. ऐसा बोल कर अमित शाह ने एक तरीके से जाट नेताओं की नाराजगी कम करने की कोशिश की है.
अमित शाह, दरअसल, ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी को जाटों का ख्याल तो है ही, जयंत चौधरी को लेकर भी बीजेपी नेतृत्व के मन में वैसी कोई भावना नहीं है जो समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव को लेकर है, जिनके साथ मिल कर वो विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं. 2019 के चुनाव में भी जब अखिलेश यादव ने मायावती के साथ सपा-बसपा गठबंधन किया था तो अपने कोटे से जयंत चौधरी को सीटें दी थी.
जाटों पर बीजेपी के एहसानों की लिस्ट
बीजेपी का जाट कनेक्शन: अमित शाह ने समझाया कि कैसे बीजेपी और जाट एक दूसरे के लिए ही बने हैं. बोले - 'जाटों ने 650 साल तक मुगलों से लड़ाई लड़ी थी - और भाजपा भी देश विरोधियों से लड़ रही है.'
क्या बात है - हो गये न दोनों एक जैसे!
मगर, जो खबर आ रही है वो बताती है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी जाट समुदाय इस बात को नहीं भूल पा रहा है कि किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर साल भर से ज्यादा वक्त तक बिठाये रखा गया - ऐसी ही मुश्किल उन बीजेपी समर्थकों के सामने भी आ रही है जो पूरे वक्त जाटों के बीच जैसे तैसे पहुंच कर कृषि कानूनों के फायदे समझाने की कोशिश कर रहे थे. भला अब वो किस मुंह से बीजेपी को वोट देने के लिए समझायें बुझायें - आखिर, संपर्क फॉर समर्थन का भी तो साइड इफेक्ट होता ही है.
कोई कमी तो नहीं रह गयी: बताते हैं कि अमित शाह ने कृषि कर्ज देने, किसानों के खाते में पैसे डाले जाने और गन्ना किसानों को हुए भुगतान का आंकड़ा पेश करते हुए हर संभव मदद का भरोसा दिलाने की भी कोशिश की - 'अगर कोई कमी रह गई है तो हम उसकी भी भरपाई करेंगे.'
फिर योगी और अखिलेश में फर्क कैसा: मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, अमित शाह ने ये भी बताया कि उत्तर प्रदेश में 2014 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ. ये तो अच्छी बात है, लेकिन सवाल भी उठता है.
क्या ये बोल कर अमित शाह ने अखिलेश यादव के लिए भी योगी आदित्यनाथ जैसा ही सर्टिफिकेट नहीं दे दिया है?
दंगा न होने देना यानी कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है. अगर हालात बेकाबू हो जायें और सेना के हवाले करना पड़े तब जाकर केंद्र की भूमिका होती है.
हो सकता है ऐसा बोल कर अमित शाह ये आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हों कि अगर 2013 के दंगों के चलते जाट समुदाय बीजेपी की तरफ आकर्षित हुआ तो कोई गलत फैसला नहीं था.
सत्यपाल मलिक को कैसे भूल गये जाट समुदाय को बीजेपी से जोड़ने की कोशिश में अमित शाह ने अपने यूपी में तीन चुनाव लड़ने के अनुभव का हवाला दिया और तरह तरह से समझाने की कोशिश की. अमित शाह ने बताया कि कैसे जाटों ने बीजेपी की तहे दिल से चुनावों में मदद की थी - और एक बार फिर बीजेपी जाट वोटर से वैसी ही अपेक्षा रखती है.
अमित शाह ने समझा रहे थे, 'जाट लोग भी बीजेपी की तरह कभी अपने लिए नहीं सोचते... दोनों देश के लिए सोचते हैं... ' और ये भी गिना डाले, 'तीन जाट राज्यपाल हैं - और नौ सांसद.' वैसे 2017 में हुए यूपी चुनाव में बीजेपी के 13 जाट नेता विधायक भी चुने गये थे.
अमित शाह कहीं सत्यपाल मलिक का नाम तो नहीं भूल गये. मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक शुरू से तो कृषि कानूनों को लेकर विरोध की आवाज बने ही रहे - कुछ दिन पहले उनके बड़े ही तीखे और विवादित बयान भी मीडिया में आये थे. हालांकि, बाद में नेताओं के रूटीन वाले इनकार की तरह ही सफाई के तौर पर उनका नया बयान आया और मामला रफा दफा भी कर लिया गया.
बीजेपी के डर के आगे जीत की कितनी संभावना?
मीटिंग में अमित शाह और उसके बाद बाहर आकर दिल्ली से बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने खुल कर आरएलडी नेता जयंत चौधरी को ऑफर पेश किया - वो बीजेपी के साथ आ जायें. अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है - और चुनाव बाद भी कुछ ऐसा वैसा नहीं होने वाला. बीजेपी के दरवाजे जयंत चौधरी के लिए आगे भी वैसे ही खुले रहेंगे.
लेकिन बीजेपी की तरफ से मिले ऑफर को जयंत चौधरी ने तत्काल प्रभाव से ठुकरा दिया और ट्वीट कर ये भी बता दिया कि ऐसा क्यों नहीं संभव है. ऐसा क्यों आगे भी नहीं संभव है.
जयंत चौधरी के लिए बीजेपी फायदेमंद रही है: ठीक पहले यानी 2019 का आम चुनाव जयंत चौधरी और अखिलेश यादव मिल कर चुनाव लड़े थे, लेकिन आरएलडी का खाता नहीं खुल सका.
1. बीते चार विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो मालूम होता है कि आरएलडी को सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी के साथ गठबंधन में ही मिला है - 2002 के विधानसभा चुनाव में जयंत चौधरी की पार्टी को 14 सीटें मिली थीं, लेकिन उसके बाद ये आंकड़ा लगातार कम होता गया.
2. 2007 में जयंत चौधरी की पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया. तब जयंत के पिता अजीत चौधरी आरएलडी के नेता हुआ करते थे - जिस साल मायावती ने बीएसपी की सरकार बनायी थी, आरएलडी के 10 विधायक चुन कर आये थे.
3. 2012 के विधानसभा चुनाव में चौधरी परिवार की पार्टी ने फिर से गठबंधन का फैसला किया और कांग्रेस से हाथ मिलाया था - और जब चुनाव नतीजे आये तो आरएलडी के 9 उम्मीदवार विधायक चुन लिये गये थे.
4. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में चौधरी परिवार का किसी के साथ गठबंधन नहीं हुआ और अकेले चुनाव मैदान में उतरना पड़ा - और आरएलडी का एक ही उम्मीदवार चुनाव जीत सका था.
2022 के लिए जयंत चौधरी ने आम चुनाव की तरह ही अखिलेश यादव के साथ हाथ मिलाया है, लेकिन बड़ा पेंच वही है जो सपा-बसपा गठबंधन में एक बड़ा पेंच साबित हुआ - नेताओं ने तो हाथ मिला लिया लेकिन जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और वोटर के दिल नहीं मिले और वोटों का एक दूसरे को ट्रांसफर नहीं हो सका - देखते हैं 10 मार्च को क्या कहानी सुनने को मिलती है.
अंग्रेजी अखबार द हिन्दू की एक रिपोर्ट में लिखा गया है कि जयंत चौधरी पर जोर डालने का मतलब ही है कि बीजेपी ने उनकी लोकप्रियता को स्वीकार कर लिया है - और बातचीत में एक किसान नेता अखबार से कहता है, बीजेपी नेतृत्व मुसलमानों के बीच ये मैसेज देना चाहता है कि आरएलडी और जाटों पर भरोसा नहीं किया जा सकता - वे चुनाव बाद बीजेपी के साथ जा सकते हैं.'
असल में अमित शाह ने जो कुछ भी समझाया है, उसी सिक्के का एक पहलू ये भी है - और ये काफी महत्वपूर्ण है.
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