अमित शाह (Amit Shah) का गुजरात चुनाव में 2002 के गुजरात दंगों (Gujarat Riots 2002) का नये सिरे से जिक्र करना, हो सकता है आप में से कुछ लोगों को हैरान किया हो, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? शायद बिलकुल नहीं. ये, दरअसल, बीजेपी को और ज्यादा ताकत देता है - और उसका असर अभी से लेकर 2024 तक लगातार महसूस किया जा सकता है.
ताज्जुब इसलिए भी होता है क्योंकि गुजरात में भी बीजेपी चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के चेहरे पर ही लड़ रही है. ऐसा तब भी जबकि गुजरात में बीजेपी की सरकार है और भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री हैं. भूपेंद्र पटेल को चुनावों के लिए नया चेहरा समझ कर करीब साल भर पहले ही लाया गया था. हो सकता है बीजेपी को लगा हो कि विजय रुपानी की वजह से बेड़ा गर्क हो सकता है - और रुपानी के साथ साथ डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल को तो चुनावों से पहले ही दूर कर दिया गया. हो सकता है ये भी सत्ता विरोधी फैक्टर को काउंटर करने का अमित शाह का ही खोजा हुआ कोई तरीका हो.
2002 के गुजरात दंगों को लेकर बीजेपी खास कर नरेंद्र मोदी हमेशा ही विपक्ष के निशाने पर रहे हैं, लेकिन बीजेपी ने हमेशा ही इसे वैसे ही खारिज किया है, जैसे अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जेल से एक के बाद एक आ रहे सत्येंद्र जैन के वीडियो को डाउनप्ले करने की कोशिश कर रहे हैं.
और जैसे अरविंद केजरीवाल वीडियो के जरिये सत्येंद्र जैन को मिल रहे मसाज और सुख-सुविधाओं का बचाव किया है, बीजेपी 2002 में दंगा रोकने और उसके बाद कोई भी दंगा न होने देने को मिसाल के तौर पर पेश करती रही है - आम आदमी पार्टी नेता गोपाल राय जहां सत्येंद्र जैन के बचाव में अमित शाह के जेल काल का हवाला दे रहे हैं, बीजेपी नेता 2002 में दंगाइयों को सबक सिखाने की याद दिला रहे हैं.
चुनावों के दौरान 2002 के दंगों की याद...
अमित शाह (Amit Shah) का गुजरात चुनाव में 2002 के गुजरात दंगों (Gujarat Riots 2002) का नये सिरे से जिक्र करना, हो सकता है आप में से कुछ लोगों को हैरान किया हो, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? शायद बिलकुल नहीं. ये, दरअसल, बीजेपी को और ज्यादा ताकत देता है - और उसका असर अभी से लेकर 2024 तक लगातार महसूस किया जा सकता है.
ताज्जुब इसलिए भी होता है क्योंकि गुजरात में भी बीजेपी चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के चेहरे पर ही लड़ रही है. ऐसा तब भी जबकि गुजरात में बीजेपी की सरकार है और भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री हैं. भूपेंद्र पटेल को चुनावों के लिए नया चेहरा समझ कर करीब साल भर पहले ही लाया गया था. हो सकता है बीजेपी को लगा हो कि विजय रुपानी की वजह से बेड़ा गर्क हो सकता है - और रुपानी के साथ साथ डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल को तो चुनावों से पहले ही दूर कर दिया गया. हो सकता है ये भी सत्ता विरोधी फैक्टर को काउंटर करने का अमित शाह का ही खोजा हुआ कोई तरीका हो.
2002 के गुजरात दंगों को लेकर बीजेपी खास कर नरेंद्र मोदी हमेशा ही विपक्ष के निशाने पर रहे हैं, लेकिन बीजेपी ने हमेशा ही इसे वैसे ही खारिज किया है, जैसे अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जेल से एक के बाद एक आ रहे सत्येंद्र जैन के वीडियो को डाउनप्ले करने की कोशिश कर रहे हैं.
और जैसे अरविंद केजरीवाल वीडियो के जरिये सत्येंद्र जैन को मिल रहे मसाज और सुख-सुविधाओं का बचाव किया है, बीजेपी 2002 में दंगा रोकने और उसके बाद कोई भी दंगा न होने देने को मिसाल के तौर पर पेश करती रही है - आम आदमी पार्टी नेता गोपाल राय जहां सत्येंद्र जैन के बचाव में अमित शाह के जेल काल का हवाला दे रहे हैं, बीजेपी नेता 2002 में दंगाइयों को सबक सिखाने की याद दिला रहे हैं.
चुनावों के दौरान 2002 के दंगों की याद दिलाने पर ताज्जुब इसलिए हो रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपी सहित 5 विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के अगले ही दिन गुजरात में मोर्चा संभाल लिया था. मोदी ने लंबा चौड़ा रोड शो तो किया ही, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी महत्वपूर्ण बैठक बुलायी गयी थी - और अमित शाह सहित तमाम दिग्गजों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा भी लिया था.
सवाल ये नहीं है कि चुनावों के दौरान दंगों का जिक्र क्यों हो रहा है, बड़ा सवाल ये है कि मोदी के मैदान में होते हुए अमित शाह को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या मोदी की लोकप्रियता के बूते चुनाव जीत पाने का अमित शाह को भरोसा नहीं था? या फिर अभी से 2024 के आम चुनाव को लेकर माहौल बनाया जाने लगा है?
मोर्चे पर मोदी - और दंगों का जिक्र!
सोशल मीडिया पर एक कार्टून शेयर किया जा रहा है. कार्टूनिस्ट आलोक निरंतर ने देश के कुछ मुख्यमंत्रियों का जिक्र कर सवाल खड़ा किया है - आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल कहां हैं?
कार्टून में दो कैरेक्टर हैं जो आपस में बात कर रहे हैं. एक कैरेक्टर कहता है, मंदिर में दर्शन के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री असम में हैं. असम के मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार के लिए दिल्ली में हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार के लिए गुजरात में हैं. ये जानने की कोशिश कर रहा हूं कि गुजरात के मुख्यमंत्री कहां हैं?
कार्टून के जरिये कटाक्ष ही नहीं, ये सवाल भी स्वाभाविक है कि जब हिमंत बिस्वा सरमा गुजरात पहुंच कर सुर्खियां बटोर लेते हैं तो गुजरात के सीएम भूपेंद्र पटेल चुनावी कार्यक्रमों और गुजरात के मीडिया से बाहर नजर क्यों नहीं आ रहे हैं?
गुजरात पहुंच कर हिमंत बिस्वा सरमा चुनावी रैली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दाढ़ी पर सवाल उठा देते हैं, जिसकी पूरे देश में चर्चा होती है और प्रतिक्रिया भी. एक सोशल मीडिया पोस्ट को मुद्दा बनाकर हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा था कि राहुल गांधी को सद्दाम हुसैन जैसा नहीं बल्कि सरदार पटेल और महात्मा गांधी जैसा दिखना चाहिये.
गुजरात से दिल्ली पहुंच कर हिमंत बिस्वा सरमा रोड शो करते हैं और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ड्रामेबाज करार देते हैं - और गुजरात में भी अरविंद केजरीवाल भूपेंद्र पटेल नहीं बल्कि सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दो-दो हाथ करने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं.
स्वाभाविक है, भूपेंद्र पटेल को लेकर सवाल तो पूछे ही जाएंगे. बिलकुल वैसे ही जैसे बतौर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को लेकर पूछे जाते हैं. ऐसे भी समझ सकते हैं, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात में बीजेपी के कैंपेन का नेतृत्व कर रहे हैं, ठीक वैसे ही अमित शाह बीजेपी में रणनीतियां तैयार करते हैं और फैसलों पर मुहर लगाते हैं.
चुनाव के दौरान कार्टूनिस्ट का सवाल वाजिब तो है, लेकिन बीजेपी अपनी तरफ से जवाब पहले ही दे चुकी है. ये बीजेपी के संसदीय बोर्ड का फैसला है कि 2024 से पहले जितने भी विधानसभा चुनाव होंगे बीजेपी का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे.
बेशक बीजेपी संसदीय बोर्ड के इस फैसले की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता है, लेकिन सवाल तो ये बनता ही है कि क्या बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री इतने निकम्मे और नकारे हैं कि उनके नेतृत्व में चुनाव जीतने की उम्मीद तक नहीं है?
मोदी की लोकप्रियता के भरोसे बीजेपी: 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में हार के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मन की बात उसके मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के एक लेख के जरिये सामने आयी थी - जिसमें दिल्ली में स्थानीय स्तर पर नेतृत्व तैयार करने पर जोर दिया गया था.
दिल्ली बीजेपी से सवाल किया गया था कि आखिर कब तक चुनाव जीतने के लिए मोदी-शाह का मुंह देखते रहेंगे? बीजेपी के केंद्र की सत्ता में 2014 में फिर से आने के बाद पार्टी की लगातार ये दूसरी हार थी - और आंकड़ों के हिसाब से करीब करीब वैसी ही जैसी पांच साल पहले देखी गयी थी.
तब ये भी कहा गया था कि दिल्ली बीजेपी को अपने स्तर पर नेतृत्व का निर्माण करने की कोशिश करनी चाहिये. मान कर चलना चाहिये कि दिल्ली के बहाने ये तो हर राज्य में संगठन के लिए संघ की समझाइश रही, लेकिन कुछ बदला हो अभी ऐसा तो नहीं महसूस नहीं हुआ है.
ये तो वहां की बात है जहां बीजेपी सत्ता में नहीं है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि जहां बीजेपी की सरकार और मुख्यमंत्री है, वहां भी पार्टी को मोदी-शाह का ही मोहताज क्यों होना पड़ रहा है?
ये ठीक है कि मोदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है और थोड़ा घटने के बावजूद बरकरार है - CSDS यानी सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसाइटीज के मुताबिक इस साल प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता देश में 44 फीसदी और गुजरात में 53 फीसदी दर्ज की गयी है. हालांकि, पहले के मुकाबले इसमें थोड़ी गिरावट देखी गयी है.
पांच पांच साल के अंतर पर पेश किये गये मोदी की लोकप्रियता के आंकड़े देखें तो लगातार इजाफा ही हुआ है. 2009 में जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सिंह सरकार ने सत्ता में वापसी की थी तब देश में मोदी की लोकप्रियता महज 2 फीसदी रही, जबकि गुजरात में ये 17 फीसदी पायी गयी.
सत्ता की राजनीति में बीजेपी के लिए मील का पत्थर साबित हुए 2014 तक गुजरात में मोदी की लोकप्रियता 49 फीसदी और देश में 35 फीसदी पहुंच चुकी थी - और पांच साल प्रधानमंत्री रहने के बाद देश में मोदी की लोकप्रियता 47 फीसदी पहुंच गयी और गुजरात में इसे 68 फीसदी दर्ज किया गया.
कहा जा सकता है कि लोकप्रियता के मामले में मोदी आज भी अपने सारे ही प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे हैं और रही बात गुजरात की तो वहां तो उनका कोई सानी नहीं है - और अगर ऐसा है तो चुनावों में 2002 के दंगों का जिक्र निश्चित तौर पर बीजेपी की किसी खास रणनीति की तरफ ही इशारा करता है.
बीस साल बाद
गोधरा कांड के बाद 2002 में हुए गुजरात दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का स्टैंड अलग जरूर रहा है, लेकिन मोदी-शाह हमेशा इस मुद्दे पर एकमत रहे हैं - और गाहे ब गाहे दोनों के अलग अलग दिये बयान भी एक जैसे ही होते हैं.
नये सिरे से ये मुद्दा उठाये जाने में कांग्रेस की भी भूमिका है. करीब करीब वैसे ही जैसे 2007 के गुजरात विधानसभा चुनावों में सोनिया गांधी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मौत का सौदागर' बोल दिया था. सोनिया गांधी के बयान के बाद तो बीजेपी जैसे टूट ही पड़ी और चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को ऐसा सबक दिया कि फिर कभी सोनिया गांधी ने वो बात दोहराने की हिम्मत नहीं जुटाई.
सोनिया गांधी के बयान के बाद बीजेपी नेताओं ने समझाना शुरू किया कि दंगों के लिए उनकी पार्टी नहीं बल्कि कांग्रेस दोषी है. ये कांग्रेस ही है जो दंगाइयों को देश भर में बचाती रही है, और दंगे रुकते नहीं हैं.
अमित शाह ने अभी जो बात की है, बीजेपी नेताओं की तरफ से तभी से ऐसा ही दावा किया जाता रहा है - हमने दंगाइयों को सबक सिखाया है. अमित शाह ने एक बार फिर बीजेपी का वही स्टैंड दोहराया है.
अमित शाह को गुजरात दंगों पर बोलने का मौका मिल गया है, जिसके लिए वो और मोदी हमेशा ही राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रहे हैं. अमित शाह फिर से समझा रहे हैं कि कांग्रेस की सरकारों के वोट बैंक की राजनीति से अलग बीजेपी सरकार ने दंगाइयों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया और फिर कभी दंगा नहीं होने दिया. अमित शाह ने पहले की ही तरह यही समझाने की कोशिश की है कि बीजेपी शासन में कुछ भी गलत नहीं हुआ, बल्कि जो गलती कांग्रेस सरकारों ने किया उसे रोक दिया. पहले दंगाइयों को प्रश्रय दिया जाता रहा, बीजेपी सरकार ने उसे सख्ती से रोक दिया.
अभी जून, 2022 में ही मोदी को दंगों की जांच करने वाली एसआईटी की तरफ से मिली क्लीन चिट को चुनौती देने वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था - और तीस्ता सीतलवाड़ और पुलिस अधिकारी आर श्रीकुमार के खिलाफ जांच की सिफारिश की थी. सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिलते ही गुजरात पुलिस ने जांच पड़ताल शुरू कर दी और तीस्ता सीतलवाड़ को जेल जाना पड़ा.
इसी साल बिलकिस बानो केस के बलात्कारियों को जेल से छोड़े जाने और फिर उनको सार्वजनिक रूप से सम्मानित किये जाने को लेकर खासा बवाल हुआ था. और चुनावों में मुद्दा न बने इसके लिए बीजेपी फिर से आगे आयी और गुजरात दंगे में सजा पाये एक शख्स की बेटी पायल कुकरानी को उम्मीदवार बना कर अपना स्टैंड साफ कर दिया.
हाल ही में कांग्रेस नेता मधुसूदन मिस्त्री ने प्रधानमंत्री मोदी को लेकर चुनाव नतीजे आने के बाद औकात मालूम हो जाने की बात कर दी. फिर क्या था, मोदी ने सोनिया गांधी के मौत का सौदागर वाली बात से लेकर मणि शंकर अय्यर के 'नीच' कहने को भी 'चायवाले' की तरह भुनाना शुरू कर दिया और कहने लगे - ये लोग मेरी 'औकात' बता रहे हैं!
मौके की नजाकत को देखते हुए अमित शाह ने भी 2002 के दंगों की याद दिलायी और सारा मंजर सबकी आंखों के सामने ला दिया. मान कर चलिये कि बीजेपी को एक बार फिर वैसे ही फायदा होगा जैसे यूपी में 'श्मशान और कब्रिस्तान' वाली बहस से हुआ था - और अब तो मंदिर मुद्दे की तरह यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर भी बीजेपी मैनिफेस्टो में ऐलान-ए-जंग कर ही दिया गया है.
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