जिन्ना विवाद पर मैं खामोश था, क्योंकि यह महसूस हो रहा है कि हमारे राजनीतिक दल देश की जनता के बुनियादी मुद्दों पर बात नहीं करना चाहते और अन्य भावनात्मक मुद्दों में आपको उलझाए रखना चाहते हैं. लेकिन फिर मेरा यह भी मानना है कि जब आपको बुनियादी मुद्दों से काटकर भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की कोशिश होती है और उसमें उलझकर आप वाद-विवाद करने लगते हैं, तो राजनीति अपने मकसद में कामयाब हो जाती है.
इसलिए, मैं मानता हूं कि जब भी राजनीति भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की कोशिश करे, तो उसमें उलझने से बचने के लिए तुरंत गुण-दोषों के आधार पर उसका फैसला हो जाना चाहिए, ताकि राजनीति जो विवाद क्रिएट करना चाहती है, उसमें टांय-टांय फिस्स हो जाए.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर लगे होने का विवाद भी कुछ ऐसा ही है, जो बहुत ज़रूरी नहीं था, जिसे राजनीति ने जनता को बुनियादी मुद्दों से भटकाने के लिए एक भावनात्मक मुद्दे के तौर पर उछाला, लेकिन हम एक बार फिर से राजनीति के जाल में उलझ गए. हम इस मुद्दे पर बहस करने लगे. आरोप-प्रत्यारोप करने लगे. सभाएं, धरना, प्रदर्शन, जुलूस, प्रेस कांफ्रेंस करने लगे. सच पूछिए तो राजनीति की ख्वाहिश यही थी.
चुनावी साल में जब राजनीति हमें इस तरह असली मुद्दों से भटकाती है और हम उसमें भटक जाते हैं, तो बहुत तकलीफ़ होती है और मन में निराशा का एक भाव पैदा होता है कि यह देश नहीं सुधरेगा. चुनावी साल में हम चाहते हैं कि देश की आम, ग़रीब, कमज़ोर जनता राजनीतिक दलों को अपने बुनियादी सवालों पर घेरे, ताकि वे दाएं-बाएं न भागने पाएं. लेकिन होता यह है कि राजनीतिक दल ही हमें दाएं-बाएं उलझा लेते हैं और हम अपने लक्ष्य को इंगित कर सीधी राह नहीं चल...
जिन्ना विवाद पर मैं खामोश था, क्योंकि यह महसूस हो रहा है कि हमारे राजनीतिक दल देश की जनता के बुनियादी मुद्दों पर बात नहीं करना चाहते और अन्य भावनात्मक मुद्दों में आपको उलझाए रखना चाहते हैं. लेकिन फिर मेरा यह भी मानना है कि जब आपको बुनियादी मुद्दों से काटकर भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की कोशिश होती है और उसमें उलझकर आप वाद-विवाद करने लगते हैं, तो राजनीति अपने मकसद में कामयाब हो जाती है.
इसलिए, मैं मानता हूं कि जब भी राजनीति भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की कोशिश करे, तो उसमें उलझने से बचने के लिए तुरंत गुण-दोषों के आधार पर उसका फैसला हो जाना चाहिए, ताकि राजनीति जो विवाद क्रिएट करना चाहती है, उसमें टांय-टांय फिस्स हो जाए.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर लगे होने का विवाद भी कुछ ऐसा ही है, जो बहुत ज़रूरी नहीं था, जिसे राजनीति ने जनता को बुनियादी मुद्दों से भटकाने के लिए एक भावनात्मक मुद्दे के तौर पर उछाला, लेकिन हम एक बार फिर से राजनीति के जाल में उलझ गए. हम इस मुद्दे पर बहस करने लगे. आरोप-प्रत्यारोप करने लगे. सभाएं, धरना, प्रदर्शन, जुलूस, प्रेस कांफ्रेंस करने लगे. सच पूछिए तो राजनीति की ख्वाहिश यही थी.
चुनावी साल में जब राजनीति हमें इस तरह असली मुद्दों से भटकाती है और हम उसमें भटक जाते हैं, तो बहुत तकलीफ़ होती है और मन में निराशा का एक भाव पैदा होता है कि यह देश नहीं सुधरेगा. चुनावी साल में हम चाहते हैं कि देश की आम, ग़रीब, कमज़ोर जनता राजनीतिक दलों को अपने बुनियादी सवालों पर घेरे, ताकि वे दाएं-बाएं न भागने पाएं. लेकिन होता यह है कि राजनीतिक दल ही हमें दाएं-बाएं उलझा लेते हैं और हम अपने लक्ष्य को इंगित कर सीधी राह नहीं चल पाते.
इसलिए, मेरा मानना है कि जिन्ना की तस्वीर वाला विवाद जब, जिस वक्त, जहां खड़ा हुआ था, उसी वक्त उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए था, ताकि बात आगे न बढ़े. सवाल उठा कि एएमयू में जिन्ना की तस्वीर क्यों है? जवाब होता कि "हां, है, पर इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया था. आपने ध्यान दिलाया. बहुत-बहुत शुक्रिया. अभी तुरंत हम उनकी तस्वीर वहां से हटा देते हैं."
अगर ऐसा जवाब आ जाता, तो जिन्होंने यह सवाल उठाया था, वे अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश अवश्य करते, लेकिन मुद्दा वहीं मर जाता और उन्हें कोई नोटिस भी नहीं करता. यह कोई भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वर्चस्व साबित करने की लड़ाई तो थी नहीं कि किसी हिन्दू नेता ने एक तस्वीर पर एतराज किया और एक अल्पसंख्यक संस्थान ने उस एतराज को जायज़ मान लिया तो मुसलमान पराजित हो गए और हिन्दू जीत गए.
यह तो समझना पड़ेगा कि जब तक किसी ने सवाल नहीं उठाया था, तब तक कोई बात नहीं, लेकिन जब यह सवाल खड़ा हो गया कि आखिर जिन्ना की तस्वीर हम क्यों लगाए रखना चाहते हैं, तो उसका कुछ तो संतोषजनक जवाब देना होगा, नहीं तो समाज में गलत संदेश तो जाएगा.
आखिर इस बात को कौन नहीं समझता कि राजनीति का मकसद जिन्ना की तस्वीर हटवाना कम, यह साबित करना अधिक है कई लोग इस देश में आज भी ऐसे हैं, जो जिन्ना की फोटो को सीने पर फेविकॉल से चिपकाकर गाना गा रहे हैं- "तेरे फोटो को सीने से यार, चिपका लूं सैंयां फेविकॉल से." लेकिन जब राजनीति यह खेल खेलती है और आप कहने लगते हैं कि हम जिन्ना की तस्वीर नहीं हटाएंगे, तो राजनीति जीत जाती है और आप हार जाते हैं.
जिन्ना की तस्वीर बनाए रखने के समर्थन में दी जा रही दलीलें थोथी हैं. इतिहास का हवाला दिया जा रहा है कि जिन्ना भी इतिहास का एक हिस्सा हैं और हम इतिहास को मिटाने में यकीन नहीं करते. मेरी राय में इससे अधिक बकवास कुछ नहीं हो सकता. इतिहास को मिटाना एक बात है. इतिहास से किनारा करना दूसरी बात है. इतिहास को कोई मिटा नहीं सकता. क्योंकि इतिहास को मिटाने का प्रयास भी एक इतिहास बन जाता है. लेकिन इतिहास से किनारा किया जा सकता है. और इतिहास में कई ऐसे अप्रिय प्रसंग और व्यक्ति हो सकते हैं, जिनसे किनारा कर लेने में कोई बुराई नहीं.
जब कई लोग इतिहास के कुछ व्यक्तियों या प्रसंगों से किनारा करने की बात करते हैं, तो कुछ मंदबुद्धि लोग इसे इतिहास मिटाना समझ लेते हैं और इसका विरोध करने लगते हैं. जबकि, अपने जीवन में भी हम अक्सर यह महसूस करते हैं कि अप्रिय घटनाओं को भूल जाने में ही समझदारी है. घटनाएं हुईं, इसे हम मिटा तो नहीं सकते, लेकिन इसे भुला अवश्य सकते हैं.
इसलिए, मेरा मानना है कि जो इतिहास हमारे वर्तमान को पीड़ित करने लगे, उस इतिहास से किनारा कर लेने में कोई बुराई नहीं. मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, स्मारक, घंटाघर, मूर्तियां, तैलचित्र- ये सब बनते-बिगड़ते रहेंगे. इनके प्रति अधिक माया-मोह नहीं रखना चाहिए. मनुष्य जीवन अधिक कीमती है. इसे बचाने का सर्वाधिक प्रयास होना चाहिए और इसे ही प्राथमिकता में रखा जाना चाहिए.
यूं भी हर इतिहास को याद रखने की ज़िद बेवकूफ़ाना है. उदाहरण के तौर पर, जब एक स्त्री का रेप होता है, तो यह भी एक इतिहास बन जाता है. उसे रेप करने वाले रेपिस्ट भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं. फिर कभी आपने सुना है कि उस पीड़िता के घर के लोग रेपिस्टों की तस्वीर अपने घर की दीवारों पर लगाकर रखते हैं? क्या निर्भया के घर वाले निर्भया के रेपिस्टों की तस्वीर घर में सजाकर रखेंगे कि हम इतिहास को मिटाने में यकीन नहीं रखते? जो हुआ, वह इतिहास है, हम उसे सहेजकर रखेंगे?
सच पूछिए, तो जिन्ना भी भारतीय आत्मा, मानवतावादी विचारों, पवित्र संस्कारों और सौहार्द्रपूर्ण गंगा-जमुनी तहजीब का रेपिस्ट था. उसने अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए (अ)धर्म के नाम पर इस देश के दो टुकड़े कराए. उसकी करतूतों की वजह से न सिर्फ़ 1947 में लाखों हिन्दू-मुसलमान मारे गए, बल्कि उसके बाद भी अरबों हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्यक्ष-परोक्ष युद्ध लड़ चुके हैं. उन्होंने एक-दूसरे को मारा है, एक दूसरे से घृणा की है, एक-दूसरे को अपनी नफरत का शिकार बनाया है और आज भी यह सिलसिला जारी है. भारत में पाकिस्तान की तरफ से आने वाला आतंकवाद जिन्ना के बोए बबूल का ही कांटा है. हम भारतीयों के मन में पाकिस्तानियों के लिए जो नफरत है, वह भी जिन्ना के बोए गए विष-वृक्ष का ही फल है. आज भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के हम डेढ़ अरब से ज्यादा हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के लिए भय और शंका का जो भाव रखते हैं, उसमें भी जिन्ना की करतूतों का हिस्सा ही ज्यादा है.
इसलिए, इतिहास के नाम पर भारतीय आत्मा, मानवतावादी विचारों, पवित्र संस्कारों और सौहार्द्रपूर्ण गंगा-जमुनी तहजीब के एक बलात्कारी की फोटो आप अपनी दीवार पर क्यों लगाकर रखना चाहते हैं? और अगर आप ऐसा करने की हठ करते हैं, तो जान लीजिए, राजनीति ने आपको अपने जाल में फंसा लिया है और आप उसमें फंस गए हैं.
1947 में भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ, यह एक ऐसा इतिहास है, जिसे आप मिटा नहीं पाएंगे, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए, 150 करोड़ से अधिक लोगों की भलाई के लिए यदि अब इसे भुलाने का प्रयास किया जाए, तो इसमें कोई बुराई नहीं. वैसे ही, जिन्ना का नाम आप इतिहास से भले न मिटा पाएं, लेकिन उसकी तस्वीर को दीवार से तो हटा सकते हैं? अगर उसकी तस्वीर लोगों को आपस में लड़ा सकती है या बांट सकती है, तो फिर इसे न हटाने की ज़िद का क्या मतलब?
कोई यह गलतफहमी पालने या पैदा करने की कोशिश भी न करे कि जिन्ना का नाम लेकर मुसलमानों को टार्गेट किया जा रहा है. ऐसे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन्ना की मज़ार पर जाकर उसे सेक्युलर कह देने भर से भारतीय राजनीति के सबसे बड़े हिन्दू-हृदय हार लालकृष्ण आडवाणी का करियर भी चौपट हो गया. इसलिए, देश के सभी हिन्दुओं, मुसलमानों को यह समझ लेना चाहिए कि जिन्ना एक ऐसे गुनाह का मुख्य गुनहगार है कि उसके समर्थन में जो भी खड़ा होगा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, तबाह हो जाएगा.
इसलिए याद रखिए, जिस तरह हर मूर्ति हृदय से हटाई नहीं जाती, उसी तरह हर तस्वीर भी सीने से सटाई नहीं जाती. गांधी की मूर्ति हृदय में सजाकर रखिए, लेकिन जिन्ना की तस्वीर को कूड़ेदान में डाल दीजिए. यह ऐसी बात नहीं है, जिसे समझने में दशकों और सदियों लग जाएं.
ये भी पढ़ें-
क्या भारत को आतंकवाद का हब बनाने की साजिश चल रही है
ये राहुल गांधी को मोदी से पंगे लेने की सलाह देता कौन है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.