सेर को सवा शेर मिलने वाली कहावत तो आपने सुनी होगी. या फिर लोहे को लोहा काटता है वाली बात. और कुछ नहीं तो..जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते वाला जुमला तो सुना ही होगा. दरअसल, मेरी यह सारी जुमलेबाजी इसलिए कि बिहार के रोहतास जिले के सासाराम में पिछले दो विधान सभा चुनावों से जो हो रहा है, उसने बीजेपी को 'धर्मसंकट' में डाल दिया है.
वजह हैं प्रदीप जोशी. वह न एनडीए से जुड़े हैं और न लालू-नीतीश के महागठबंधन से. लेकिन सिरदर्द दोनों के लिए हैं. और क्या पता इनके जैसे दो-चार और मैदान में आ जाएं तो गिरिराज सिंह से लेकर असदुद्दीन ओवैसी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ जाए.
कौन हैं प्रदीप जोशी
प्रदीप के लिए यह परिचय काफी है कि स्थानीय बीजेपी नेता तक उन्हें कॉम्यूनल (सांप्रदायिक) मानते हैं. प्रदीप 2005 के विधान सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के इलियास हुसैन को 43,000 मतों से हराकर पहली बार चर्चा में आए. इसके बाद 2010 में एक केस में उन्हें जेल जाना पड़ा. लिहाजा चुनाव नहीं लड़ सके. लेकिन अपनी जगह उन्होंने पत्नी ज्योति रश्मी को चुनावी मैदान में उतार दिया. प्रदीप का यह दांव सफल रहा और पत्नी विधान सभा पहुंच गईं. प्रदीप और पत्नी चुनावी रैलियों में खुल कर हिंदू वोटरों को रिझाने का काम करते हैं. इसलिए ध्रुवीकरण का बड़ा फायदा इन्हें मिलता है.
प्रदीप जोशी की 'सांप्रदायिक' रैली
प्रदीप जोशी और उनकी पत्नी अपनी हर रैली की शुरुआत इसी बात से करते हैं, 'अगर रैली में कोई मुस्लिम है तो यहां से चला जाए, हमें मुस्लिमों के वोट की जरूरत नहीं.'
अब भला कोई नेता ऐसा कहे, तो आश्चर्य करना जायज है. हम तो यही सुनते आए हैं कि नेता के लिए हर वोट जरूरी होता है. हमने यही राजनीति देखी भी है कि सांप्रदायिकता का दामन थामो लेकिन जरूरत पड़ने पर खुद को सभी धर्मों का हितैषी करार देने में भी पीछे न रहो. लेकिन सासाराम में थ्योरी दूसरी है.
सासाराम से इस बार भी...
सेर को सवा शेर मिलने वाली कहावत तो आपने सुनी होगी. या फिर लोहे को लोहा काटता है वाली बात. और कुछ नहीं तो..जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते वाला जुमला तो सुना ही होगा. दरअसल, मेरी यह सारी जुमलेबाजी इसलिए कि बिहार के रोहतास जिले के सासाराम में पिछले दो विधान सभा चुनावों से जो हो रहा है, उसने बीजेपी को 'धर्मसंकट' में डाल दिया है.
वजह हैं प्रदीप जोशी. वह न एनडीए से जुड़े हैं और न लालू-नीतीश के महागठबंधन से. लेकिन सिरदर्द दोनों के लिए हैं. और क्या पता इनके जैसे दो-चार और मैदान में आ जाएं तो गिरिराज सिंह से लेकर असदुद्दीन ओवैसी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ जाए.
कौन हैं प्रदीप जोशी
प्रदीप के लिए यह परिचय काफी है कि स्थानीय बीजेपी नेता तक उन्हें कॉम्यूनल (सांप्रदायिक) मानते हैं. प्रदीप 2005 के विधान सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के इलियास हुसैन को 43,000 मतों से हराकर पहली बार चर्चा में आए. इसके बाद 2010 में एक केस में उन्हें जेल जाना पड़ा. लिहाजा चुनाव नहीं लड़ सके. लेकिन अपनी जगह उन्होंने पत्नी ज्योति रश्मी को चुनावी मैदान में उतार दिया. प्रदीप का यह दांव सफल रहा और पत्नी विधान सभा पहुंच गईं. प्रदीप और पत्नी चुनावी रैलियों में खुल कर हिंदू वोटरों को रिझाने का काम करते हैं. इसलिए ध्रुवीकरण का बड़ा फायदा इन्हें मिलता है.
प्रदीप जोशी की 'सांप्रदायिक' रैली
प्रदीप जोशी और उनकी पत्नी अपनी हर रैली की शुरुआत इसी बात से करते हैं, 'अगर रैली में कोई मुस्लिम है तो यहां से चला जाए, हमें मुस्लिमों के वोट की जरूरत नहीं.'
अब भला कोई नेता ऐसा कहे, तो आश्चर्य करना जायज है. हम तो यही सुनते आए हैं कि नेता के लिए हर वोट जरूरी होता है. हमने यही राजनीति देखी भी है कि सांप्रदायिकता का दामन थामो लेकिन जरूरत पड़ने पर खुद को सभी धर्मों का हितैषी करार देने में भी पीछे न रहो. लेकिन सासाराम में थ्योरी दूसरी है.
सासाराम से इस बार भी प्रदीप की पत्नी के अलावा एनडीए गठबंधन से जतेंद्र कुमार और महागठबंधन की ओर से RJD के इलियास हुसैन मैदान में हैं. देखना होगा कि खुल के ध्रुवीकरण करने के लिए पहचाने जाने वाले प्रदीप जोशी का दांव अब भी चलता है या नहीं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.