अब चूंकि Exit Poll के अनुमान सभी के सामने हैं और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी कमोबेश अपेक्षा के अनुरूप ही हैं, लिहाजा समीक्षक अब इस उधेड़बुन में हैं कि इस एग्जिट पोल के क्या मायने निकाले जाएं. अगर परिणाम एग्जिट पोल के अनुरूप या आस-पास ही आए, तो समीक्षा का सबसे आसान तरीका यह होगा कि यह कह दिया जाए कि यह मोदी की सुनामी थी, वोट मोदी के लिए था, तो फिर चर्चा ही खत्म. हालांकि, यह सच हो भी सकता है, पर यह समीक्षा का सरलीकरण होगा. कद्दावर नेता होना, उसका लोकप्रिय होना, उसकी सर्व-स्वीकार्यता होना, चुनाव में सब मायने रखते हैं, पर कई बार यही काफी नहीं होते. इस भावना का वोट में ट्रांसफर कराने के लिए अगर मजबूत संगठन का साथ न हो, तो कई बार नतीजे भी उलटे पड़ जाते हैं और बीजेपी के संदर्भ में देश ने 2004 में इसका अनुभव भी किया था, जब शाइनिंग इंडिया की चमक और अटल बिहारी वाजपेयी के दमदार नेतृत्व के बावजूद पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा था.
मोदी की सुनामी !
अगर बात मोदी की सुनामी की हो, तो उसके पीछे कुछ खास कारण समझ में आए. जानकारी के मुताबिक, ऐन चुनावों के बीच में बीजेपी के शीर्ष नेताओं की एक समीक्षा बैठक हुई थी. उस समीक्षा बैठक में जो बातें उभर कर सामने आईं, उसके मुताबिक बीजेपी-संघ के आगे बढ़कर मोदी ने अपना ब्रांड खड़ा करने में कामयाबी हासिल की. इसकी वजह से ही मतदाताओं का एक खास वर्ग सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट कर रहा है, न कि पार्टी या प्रत्याशी के नाम पर. इन मतदाताओं में पहली बार वोट डालने वाले और महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है. अगर चुनाव आयोग के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस बार महिलाओं की भागीदारी अपने-आप में एक रिकार्ड रहा.
कुल...
अब चूंकि Exit Poll के अनुमान सभी के सामने हैं और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी कमोबेश अपेक्षा के अनुरूप ही हैं, लिहाजा समीक्षक अब इस उधेड़बुन में हैं कि इस एग्जिट पोल के क्या मायने निकाले जाएं. अगर परिणाम एग्जिट पोल के अनुरूप या आस-पास ही आए, तो समीक्षा का सबसे आसान तरीका यह होगा कि यह कह दिया जाए कि यह मोदी की सुनामी थी, वोट मोदी के लिए था, तो फिर चर्चा ही खत्म. हालांकि, यह सच हो भी सकता है, पर यह समीक्षा का सरलीकरण होगा. कद्दावर नेता होना, उसका लोकप्रिय होना, उसकी सर्व-स्वीकार्यता होना, चुनाव में सब मायने रखते हैं, पर कई बार यही काफी नहीं होते. इस भावना का वोट में ट्रांसफर कराने के लिए अगर मजबूत संगठन का साथ न हो, तो कई बार नतीजे भी उलटे पड़ जाते हैं और बीजेपी के संदर्भ में देश ने 2004 में इसका अनुभव भी किया था, जब शाइनिंग इंडिया की चमक और अटल बिहारी वाजपेयी के दमदार नेतृत्व के बावजूद पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा था.
मोदी की सुनामी !
अगर बात मोदी की सुनामी की हो, तो उसके पीछे कुछ खास कारण समझ में आए. जानकारी के मुताबिक, ऐन चुनावों के बीच में बीजेपी के शीर्ष नेताओं की एक समीक्षा बैठक हुई थी. उस समीक्षा बैठक में जो बातें उभर कर सामने आईं, उसके मुताबिक बीजेपी-संघ के आगे बढ़कर मोदी ने अपना ब्रांड खड़ा करने में कामयाबी हासिल की. इसकी वजह से ही मतदाताओं का एक खास वर्ग सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट कर रहा है, न कि पार्टी या प्रत्याशी के नाम पर. इन मतदाताओं में पहली बार वोट डालने वाले और महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है. अगर चुनाव आयोग के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस बार महिलाओं की भागीदारी अपने-आप में एक रिकार्ड रहा.
कुल 39.2 करोड़ महिला मतदाताओं में से लगभग 26.2 करोड़ महिलाओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. यानी, 2014 की तुलना में 2019 में करीब 4 करोड़ से ज्यादा महिलाओं ने मताधिकार का प्रयोग किया और पुरूष-महिलाओं की मत भागीदारी भी इस बार एक फीसदी से भी कम रह गई. खास बात यह है कि महिलाओं की मत भागीदारी ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर दर्ज की गई है. अब इस भागीदारी में उज्जवला, सौभाग्य, शौचाचल, आयुष्मान भारत या प्रधानमंत्री आवास य़ोजना जैसी योजनाओं ने कितनी भूमिकाएं निभाईं, इसकी समीक्षा महत्वपूर्ण होगी. महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी अध्यक्ष शाह ने कई मौकों पर इस बात की चर्चा की कि किस तरह इन योजनाओं के जरिए बीजेपी ने प्रामाणिक तौर पर करीबन 22 करोड़ परिवारों तक पहुंचने की और उन्हें साथ जोड़ने की कोशिश की.
इस चुनाव में करीब 8.4 करोड़ पहली बार मत देने वाले वोटर थे औऱ बीजेपी की नजर इन नए मतदाताओं पर भी थी. अपने पूरे चुनावी अभियान में, खासकर दूसरे-तीसरे फेज के बाद प्रधानमंत्री अपने हर चुनावी सभा में इस तबके को संबोधित करते दिखे. वाराणसी में अपने नामांकन भरने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जो अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित किया, उसमें करीबन पांच मिनट वो नए मतदाताओं के बारे में ही चर्चा की. प्रधानमंत्री का संदेश साफ था कि आम मतदाता पांच साल के लिए सरकार के लिए मतदान करता है लेकिन नई पीढ़ी के लिए यह उनके भविष्य के लिए मतदान है.
पार्टी की समीक्षा बैठक में फीडबैक यही था कि नए वोटरों को झुकाव प्रधानमंत्री मोदी की तरफ दिखा. पिछले पांच साल के दौरान इस पीढ़ी से जुड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने भी विशेष दिलचस्पी दिखाई. पार्टी ने भी इस वर्ग को साधने के लिए 2014 की तरह इस बार भी सोशल मीडिया कैंपेन का जर्बदस्त सहारा लिया. एक्जाम वारियर्स, न्यू इंडिया यूथ कान्क्लेव, मन की बात जैसे कार्यक्रमों के जरिए प्रधानमंत्री जहां इस वर्ग से भी सीधे संवाद करते रहे, वहीं प्रधानमंत्री की ठोस और कड़े फैसले लेने वाले इमेज ने भी इस जुड़ाव में काफी मददगार भूमिका निभाई. अगर एग्जिट पोल में बीजेपी के मत प्रतिशत में चार से पांच फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना दिख रही है, उसके पीछे इस वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण है और समय रहते पार्टी ने इस ताकत को पहचान कर उसी दिशा में रणनीति तय की.
संगठन की ताकत
19 तारीख को अंतिम फेज के मतदान के ठीक पहले जब प्रधानमंत्री बीजेपी दफ्तर पहुंचे और अमित शाह की प्रेस वार्ता में साथ आए, तो कई पत्रकार आश्चर्य में थे. पूरे चुनावी अभियान को लेकर प्रधानमंत्री ने वहां जो कुछ भी कहा, वह राजनीतिक शास्त्र के समीक्षकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था. प्रधानमंत्री ने कहा कि किसी भी चुनावी अभियान में संगठन की ताकत क्या होती है, इसे लोगों को समझना होगा औऱ यह अपने आप में रिसर्च का विषय भी है. मोदी ने बताया कि कैसे पार्टी ने उनके चुनावी अभियान की शुरूआत मेरठ से शुरूआत कर मध्य प्रदेश के खरगौन में खत्म करने की योजना बनाई थी.
दोनों स्थानों का संबंध 1857 की क्रांति से जुड़ा था. प्रधानमंत्री ने अंतिम रैली खरगौन में लोगों को भी बताया कि दरअसल, मेरठ से शुरूआत कर 1857 क्रांति के लोकल हीरो भीमा की स्थली खरगौन को चुनने की पीछे पार्टी की सोच क्या थी और प्रधानमंत्री ने इसे सीधे राष्ट्रवाद से जोड़ा. एक-एक रैली का स्थान, तारीख और एजेंडा पार्टी ने सोच-समझ कर तय किया. पार्टी अध्यक्ष शाह ने बताया कि किस तरह जनवरी 2019 में पार्टी ने अपने चुनावी अभियान की शुरूआत कर दी थी. दूसरी पार्टियां जहां गठबंधन बनाने-जोड़ने को लेकर माथापच्ची में लगी थी, पार्टी ने संगठनात्मक स्तर पर 11 बड़े अभियानों के साथ मुहिम की शुरूआत कर दी थी.
12 जनवरी से ही “मेरा परिवार भाजपा परिवार” के जरिए पार्टी ने संपर्क अभियान की शुरूआत की, इसके बाद “मेरा बूथ सबसे मजबूत” के जरिए प्रधानमंत्री ने अलग-अलग क्षेत्र में, अलग-अलग वर्ग, योजनाओं के लाभार्थियों समेत लाखों लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया. पार्टी ने फिर 2 मार्च से देश भर में कमल बाइक रैली निकाली. पार्टी ने “भारत के मन की बात-मोदी के साथ” के अलावा, “मैं भी चौकीदार” अभियान के जरिए करोड़ों लोगों से सीधे और सोशल मीडिया के जरिए संपर्क साधने की कोशिश की. पार्टी ने सोशल मीडिया पर 14 कैंपेन चलाए, जिसमें “मोदी है तो मुमकिन है’, “फिर एक बार मोदी सरकार”, “कर चुका फैसला”, “चौकीदार”, “दिल्ली के दिल में”, “फर्स्ट टाइम वोटर” ने सोशल मीडिया पर काफी असर पैदा किया.
पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के आंकड़ों का मतलब
लेकिन अगर एग्जिट पोल के आंकड़े सही साबित हुए तो इसे सिर्फ छह महीनों के अभियान की सफलता का नतीजा नहीं कहा जा सकता. अधिकतर एजेंसियों के आकलन पर गौर करें तो बीजेपी इस बार पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में जर्बदस्त प्रदर्शन करने जा रही है और परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं. पश्चिम बंगाल में औसत आंकड़ा जहां 19 से 23 के बीच रहने की उम्मीद है, वहीं उड़ीसा में बीजेपी पहली बार डबल डिजीट को पार कर चौंकाने वाले परिणाम लाने की तैयारी में है. इंडिया टूडे-एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल की मानें तो यह आंकड़ा 19 तक पहुंच सकता है. सवाल यह पैदा होता है कि यह त्रिपुरा मॉडल की आंच पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक कैसे पहुंची. जवाब फिर उसी संगठन की सोच में छिपा है. दरअसल, जिस वक्त देश के तमाम राजनीतिक दल सुसुप्ता अवस्था में थे, उसी 2017 की जनवरी में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अगली लड़ाई की नींव रखनी शुरू कर दी थी.
जनवरी 2017 में बीजेपी अध्यक्ष ने दिल्ली में वरिष्ठ पदाधिकारियों की बैठक में अगली लड़ाई की रूपरेखा पर काम करना शुरू कर दिया था. पार्टी ने उन 120 सीटों की पहचान की, जहां 2014 की चुनाव में वे दूसरे स्थान पर थे या कम से अंतर से हारे. इनमें कईं सीटें पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में थी. पार्टी को पता था कि 2014 के चुनाव में जिन राज्यों में उन्हें शत-प्रतिशत सफलता मिली या प्रदर्शन जबरदस्त रहा, 2019 में वहां कुछ कमी आ सकती है. लिहाजा पार्टी ने उन सीटों पर सोचना शुरू किया, जहां से संभावित नुकसान की भरपाई हो सकती थी. इन सीटों पर पार्टी जनरल सेक्रेटरी से लेकर केंद्रीय मंत्रियों की जिम्मेदारी तय की गई. हर केंद्रीय मंत्री और जनरल सेक्रेटरी को पांच लोकसभा सीटों की जिम्मेदारी दी गई, साथ ही, यह भी जिम्मेदारी दी गई कि जमीन पर उज्जवला, सौभाग्य, प्रधानमंत्री आवास जैसी केंद्रीय योजनाओं को लागू करना सुनिश्चित किया जाए.
पार्टी ने करीब 3000 पार्ट टाइम वॉलटियर्स की फौज इन इलाकों के लिए खड़ी की. पार्टी अध्यक्ष ने उसी वर्ष स्वयं के लिए पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना, गुजरात और लक्षदीप में अपना 90 दिनों का अभियान तय किया. पिछले डेढ़ साल से पश्चिम बंगाल में कैलाश विजयवर्गीय और उड़ीसा में धर्मेंद्र प्रधान लगातार जमे रहे. बूथ से लेकर जिला, ब्लॉक स्तर की मीटिंग्स पर नजर रखी गई. इसके अलावा, 600 फुलटाइम वॉलटियर्स तैयार किए, उन्हें 543 सीटों में स्थापित किया गया और इनकी जिम्मेदारी तय की गई कि मतगणना के बाद ही वे अपनी-अपनी सीट छोड़ेगे. सारांश यह है कि जहां दूसरे दल मुद्दों ढूंढने में खोए पड़े थे, बीजेपी ने अगली लड़ाई के लिए सेना को तैयार करना शुरू कर दिया था. सच यह भी था, कि लोगों को जिम्मेदारी पर सिर्फ लगाया ही नहीं गया, बल्कि निगरानी भी रखी गई. प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल में आने वाली मोबाइल वैन पर जीपीसी टैग के जरिए नजर रखी गई, ताकि बात सिर्फ दावों तक सीमित न रहे.
जाहिर है इतने विविधता भरे देश में, इतने लंबे चुनावी प्रक्रिया में अभियान की वही गति औऱ पैनापन बनाए रखना किसी भी दल के लिए आसान नहीं था, ऐसे में अगर संगठन की ताकत न हो, तो नेता को भी धराशाही होने में वक्त नहीं लगता. रैलियों की भीड़ से परिणाम का अनुमान लगाने वाले अक्सर इसलिए भी गच्चा खा जाते हैं, क्योंकि रैलियां आयोजित करने और वास्तविक मतदान के मूड को भांपने में कही अंतर रह जाता है. ऐसे देश में जहां लगभग 29 फीसदी लोग अपना फैसला मतदान के कुछ दिन पहले तय करते हो और 14 फीसदी लोग ठीक मतदान के दिन, संगठन कैसे निर्णायक भूमिका निभाता है, यह वाकई एक शोध का विषय होने वाला है.
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