नोटबंदी को लेकर लिए गए फैसले को 15 दिन से ज्यादा बीत गए और सड़क पर कतार और संसद में तकरार दोनों जारी हैं. अब यह कब तक जारी रहने वाला है, कहना मुश्किल है पर देखकर लगता है कि हर व्यक्ति या पक्ष कहीं न कहीं फंसा है और उबरने की कोशिशों में लगा है. आम जनता की कोशिश है कि उनका पैसा उनकी जेब में आ जाए ताकि दैनिक खर्चा चलता रहे, किसान-मजदूर हों या सरकारी कर्मचारी, उनकी अपनी मशक्कत जारी है, दूसरी तरफ सरकार की कोशिश है कि लाइनों में लगी कतार की लंबाई कम हो, बैंकों पर से दवाब कम हो, ग्रामीण क्षेत्रों में नई करेंसी का प्रवाह बढ़े और तीसरी तरफ विपक्ष है, उसकी दुविधा यह है कि इस फैसले के विरोध को किस रूप में और किस हद तक लेकर जाएं और जिस हद तक लेकर आ गए, वहां से अब निकला कैसे जाए.
ममता केजरीवाल का साथ देने आजादपुर मंडी पहुंचीं, लेकिन केजरीवाल ममता के जंतर-मंतर के धरने से दूर रहे |
सरकार चिंतिंत है कि क्योंकि 8 नवंबर को जब फैसला लिया गया तब जो आत्मविश्वास दिखाया गया, अब हर बीतते दिन के साथ देश के ग्रामीण इलाकों से जो फीडबैक मिल रहा है, वह उतना उत्साहजनक नहीं है. शहरों-महानगरों की भीड़ तो पैसे के आदान-प्रदान तक सीमित है, छोटे व्यापारी भी कमोवेश कैशलेस व्यापार का रास्ता ढूंढना शुरू कर दिया है और जहां नुकसान है, उन्हें उम्मीद है कि अगले कुछ दिनों में शायद स्थिति में सुधार हो जाए, पर ग्रामीण अंचलों में जहां जुताई-बुवाई औऱ नए फसलों के क्रय-विक्रय का सीजन है, वहां किसानों की अपनी परेशानी है. मजदूर वर्ग के सामने दिहाड़ी की चुनौती है, छोटे व्यापारियों के सामने गिरते व्यापार का संकट है और यही सारी सूचनाएं हैं, जिसके दबाव में आकर सरकार को हर दिन अपने फैसले में कुछ न कुछ बदलाव करना पड़ रहा है.
नोटबंदी को लेकर लिए गए फैसले को 15 दिन से ज्यादा बीत गए और सड़क पर कतार और संसद में तकरार दोनों जारी हैं. अब यह कब तक जारी रहने वाला है, कहना मुश्किल है पर देखकर लगता है कि हर व्यक्ति या पक्ष कहीं न कहीं फंसा है और उबरने की कोशिशों में लगा है. आम जनता की कोशिश है कि उनका पैसा उनकी जेब में आ जाए ताकि दैनिक खर्चा चलता रहे, किसान-मजदूर हों या सरकारी कर्मचारी, उनकी अपनी मशक्कत जारी है, दूसरी तरफ सरकार की कोशिश है कि लाइनों में लगी कतार की लंबाई कम हो, बैंकों पर से दवाब कम हो, ग्रामीण क्षेत्रों में नई करेंसी का प्रवाह बढ़े और तीसरी तरफ विपक्ष है, उसकी दुविधा यह है कि इस फैसले के विरोध को किस रूप में और किस हद तक लेकर जाएं और जिस हद तक लेकर आ गए, वहां से अब निकला कैसे जाए.
ममता केजरीवाल का साथ देने आजादपुर मंडी पहुंचीं, लेकिन केजरीवाल ममता के जंतर-मंतर के धरने से दूर रहे |
सरकार चिंतिंत है कि क्योंकि 8 नवंबर को जब फैसला लिया गया तब जो आत्मविश्वास दिखाया गया, अब हर बीतते दिन के साथ देश के ग्रामीण इलाकों से जो फीडबैक मिल रहा है, वह उतना उत्साहजनक नहीं है. शहरों-महानगरों की भीड़ तो पैसे के आदान-प्रदान तक सीमित है, छोटे व्यापारी भी कमोवेश कैशलेस व्यापार का रास्ता ढूंढना शुरू कर दिया है और जहां नुकसान है, उन्हें उम्मीद है कि अगले कुछ दिनों में शायद स्थिति में सुधार हो जाए, पर ग्रामीण अंचलों में जहां जुताई-बुवाई औऱ नए फसलों के क्रय-विक्रय का सीजन है, वहां किसानों की अपनी परेशानी है. मजदूर वर्ग के सामने दिहाड़ी की चुनौती है, छोटे व्यापारियों के सामने गिरते व्यापार का संकट है और यही सारी सूचनाएं हैं, जिसके दबाव में आकर सरकार को हर दिन अपने फैसले में कुछ न कुछ बदलाव करना पड़ रहा है.
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सरकार के पास जो सूचनाएं मिल रही है, उसके मुताबिक, शहरों में स्थिति में कुछ सुधार हो रहा है लेकिन दिक्कत ग्रामीण इलाकों में ज्यादा हो रही है, लिहाजा बुधवार को शक्तिकांत दास ने जो घोषणाएं की, उसे उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. नाबार्ड के जरिए किसानों को फंड देने की व्यवस्था, जिला सहकारी बैंकों को 21,000 करोड़ देने का फैसला, रूपेकॉर्ड का स्विचिंग चार्ज पूरी तरह से खत्म करने जैसे कुछ फैसले इसी दिशा में लिए गए. पिछले दिनों बीज की खरीदारी के लिए पूरी करेंसी के उपयोग की इजाजत भी इसी मकसद से की गई थी. हालांकि सरकार की मानें जो बुवाई-जुताई और किसानों को लेकर हो-हल्ला जितना शहरों और दिल्ली में मचाया जा रहा है, स्थिति उतनी गंभीर भी नहीं है. कृषि मंत्री राधामोहन सिंह की मानें तो रबी की फसल को लेकर किसानों की परेशानी की दुहाई दी जा रही है, तस्वीर इससे उलट है.
सामान्य तौर पर इस समय पर दलहन-तिहलन, गेहूं और आलू की पैदावार होती है और सरकार की मानें तो पिछले वर्ष की तुलना में इस बार इन तीनों की बुवाई पिछले साल से या तो बराबर है या ज्यादा हुई है. आंकड़ों की मानें तो गेंहू की बुवाई पिछले साल 78.83 लाख मिलियन हेक्टेयर वर्गक्षेत्र में हुई थी, जबकि इस साल 79.40 लाख मिलियन हेक्टेयर में बुवाई का काम पूरा हो चुका है. दालों की फसलों की बुवाई 74.55 लाख हेक्टेयर में हो चुकी है, जबकि पिछले साल 69.89 लाख हेक्टेयर में हुई थी. आलू की नई फसल तो बाजार में भी आने लगी है, बुवाई का काम पहले ही पूरा हो चुका है.
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लेकिन आम आदमी, किसान, मजदूर, उद्घोग की चिंता पर उलझे विपक्ष की हालत थोड़ी ज्यादा चिंताजनक होती जा रही है. सरकार की रणनीति साफ है, सरकार के रणनीतिकारों को लगता है कि जितना विपक्ष हंगामा करेगा, संसद की कार्रवाई बाधित होगी, मीडिया और जनता में उनकी नकारात्मक छवि ही बढ़ेगी. ऱणनीतिकारों की मानें तो ले-देकर विपक्ष के तरकश में जन असुविधा के अलावा सरकार पर हमला करने का कोई और तीर नहीं है और सरकार इस असुविधा को कम करने के लिए पहले ही कई कदम उठा चुकी है. इसके अलावा, मोबाइल एटीएम, पेट्रोल पंप- बिग बाजार पर स्वाइप कर कैश निकालने की सुविधाओं का भी असर दिखने लगा है. कुल सवा दो लाख एटीएम में से करीब 1.2 लाख एटीएम में कैलिब्रेशन का काम पूरा हो चुका है, लिहाजा एटीएम के बाहर लगने वाली लंबी कतारों में कमी आई है, लिहाजा आने वाले दिनों में हमले की यह धार अपने-आप कुंद हो जाएगी. लिहाजा पिछले दो दिनों से जो संकेत दिए जा रहे है उनके मुताबिक ताकत अब ग्रामीण क्षेत्रों पर लगाई जा रही है ताकि किसानी और शादी के इस सीजन में नई करेंसी गांवों तक पहुंचे.
दो हफ्ते से संसद का काम-काज ठप है |
दरअसल विपक्ष की मुसीबत कोई नई नहीं है. जब कभी भी वे एकता की बात करना शुरू करते हैं, बिखराव वहीं से शुरू हो जाता है. अब संसद के बहस पर जरा गौर करेंगे तो तस्वीर वहीं से स्पष्ट हो जाएगी. कांग्रेस कहती है, वह फैसले के समर्थन में है और रोलबैक के खिलाफ है, सपा के नरेश अग्रवाल राज्यसभा में कहते हैं कि वह तो पूरी तरह से फैसले के ही खिलाफ है. कांग्रेस कहती है जेपीसी से फैसले में हुई लीक की जांच हो, ममता बनर्जी कहती है, जेपीसी का क्या काम, पहले जो जेपीसी बनी थी, उनका क्या नतीजा निकला. ममता राष्ट्रपति के यहां मार्च करती हैं तो कांग्रेस, सपा-बसपा और वामपंथी दल पीछे हट जाते हैं. कांग्रेस संसद में धरने की बात करती है, तो ममता, माया और मुलायम नदारद रहते हैं, ममता जंतर-मंतर पर धरने पर बैठती है तो शरद यादव के अलावा कोई बड़ा नेता साथ देने नहीं पहुंचते. जो ममता केजरीवाल का साथ देने आजादपुर मंडी में पहुंच जाती हैं, वही केजरीवाल ममता के जंतर-मंतर के धरने से दूर हट जाते हैं. और, नीतीश कुमार कहते हैं कि फैसला सही लिया गया है. दरअसल, सपा-बसपा को डर सता रहा है कि बीजेपी, इस फैसले का लाभ उत्तर प्रदेश चुनावों में लेने की कोशिश करेगी, कांग्रेस को लगता है काले धन को लेकर पार्टी जिस हथियार से मोदी को घेरने में लगी थी, अगर जनभावना मोदी के साथ हुई तो आगे पांच राज्यों के चुनाव में बीजेपी को इसका लाभ मिल सकता है. उधर, केजरीवाल को पंजाब दिख रहा है.
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दो हफ्ते से संसद का काम-काज ठप है और मीडिया जिस तरीके से पूरे मामले का कवरेज रही है, विपक्ष की चिंता उससे भी बढ़ी हुई है. राज्यसभा में पहले प्रधानमंत्री को बुलाने की मांग की गई, हफ्ते भर के हंगामे के बाद प्रधानमंत्री आए तो मांग हुई कि वह बहस में हिस्सा लें और जवाब दें, जब जेटली ने हाउस को आश्वस्त किया, तब यह मांग उठा दी गई कि मांग तो पूरी बहस के दौरान प्रधानमंत्री के सदन में मौजूद रहने की हुई थी. अब मांग ऐसी थी और उससे की जा रही थी, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री को बुलाना संभव नहीं था. दो हफ्ते बाद आनंद शर्मा प्रधानमंत्री प्रीविलेज मोशन लाने की बात करते हैं और तर्क यह है कि एक बार राष्ट्रपति ने जब संसद की बैठक की तारीखों की घोषणा कर दी, तो सरकार को इस फैसले की घोषणा के लिए संसद सत्र का इंतजार करना चाहिए था और ऐसा नहीं कर प्रधानमंत्री ने संसद की उपेक्षा की. सवाल उठाया गया कि आरबीआई एक्ट की भी अवहेलना हुई, यह फैसला आरबीआई द्वारा लिया जाना चाहिए.
अब बार-बार गोल पोस्ट बदलने की रणनीति से छवि यह बन रही है विपक्ष बहस से बचने में जुटा है और यह विपक्ष के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. अब जो संकत मिल रहे है कि कांग्रेस भी अब 28 नवंबर को आक्रोश दिवस मनाने के बाद नए मुद्दों पर जाना चाहती है. लिहाजा, विरोध को इस स्तर पर ले जाकर इससे वापस निकलने की छटपटाहट महसूस की जा रही है, पर उपाय के लिए सरकार से उम्मीदें टिकी हुई हैं. औऱ प्रधानमंत्री के करीबियों की मानें तो यह रास्ता भी इतनी आसानी से नहीं मिलने वाला.
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