पुलिस का काम कानून हाथ में लेने वालों के खिलाफ एक्शन लेना है और ये सुनिश्चित करना कि समाज में कानून का राज कायम रहे. लोग अमन चैन से सुरक्षित जीवन व्यतीत कर सके. मगर, क्या हो जब पुलिस खुद कानून हाथ में ले ले? कानून व्यवस्था कायम करने की आड़ में अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने लगे? वैसे ये तो कोर्ट को तय करना है कि माओवादियों का कथित तौर पर समर्थन करने वाले 5 लोगों की गिरफ्तारी के मामले में पुलिस की भूमिका कैसी रही है. हालांकि, अब तक पुलिस एक्शन को लेकर कोर्ट की जो टिप्पणी रही है उससे तो पुलिस के रवैये पर शक की पूरी गुंजाइश बनती है.
लेखिका अरुंधति रॉय, वकील प्रशांत भूषण, सोशल एक्टिविस्ट अरुणा रॉय और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी जैसे लोगों ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि देश भर में छापेमारी करके 5 कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सभी वाजिब प्रक्रियाओं का उल्लंघन है. ये लोक तंत्र प्रणाली का मजाक उड़ाना है, इसलिए महाराष्ट्र पुलिस के खिलाफ भी एक्शन होना चाहिये.
एक प्रेस कांफ्रेंस में अरुंधति रॉय ने पुलिस एक्शन के बहाने मोदी सरकार को टारगेट किया, "मोदी सरकार ध्यान भटकाओ और शासन करो का अनुकरण कर रही है. हमें नहीं मालूम कि कहां, कैसे, कब और किस प्रकार का आग का गोला हमारे सामने गिरेगा... वे हमें भटकाना चाहते हैं..." सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण का कहना रहा, "आज कल जो कुछ हो रहा है, वो आपातकाल की तुलना में कहीं ज्यादा खतरनाक है."
अर्बन नक्सल कार्यकर्ताओं के बीच कथित पत्राचार को पुलिस द्वारा आधार बनाये जाने पर जिग्नेश मेवाणी का कहना रहा, "प्रधानमंत्री की हत्या की तथाकथित माओवादी साजिश सहानुभूति बटोरने की एक कोशिश मात्र है."
दरअसल, विरोध के स्वर ऐसे ही होते हैं. सवाल है कि...
पुलिस का काम कानून हाथ में लेने वालों के खिलाफ एक्शन लेना है और ये सुनिश्चित करना कि समाज में कानून का राज कायम रहे. लोग अमन चैन से सुरक्षित जीवन व्यतीत कर सके. मगर, क्या हो जब पुलिस खुद कानून हाथ में ले ले? कानून व्यवस्था कायम करने की आड़ में अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने लगे? वैसे ये तो कोर्ट को तय करना है कि माओवादियों का कथित तौर पर समर्थन करने वाले 5 लोगों की गिरफ्तारी के मामले में पुलिस की भूमिका कैसी रही है. हालांकि, अब तक पुलिस एक्शन को लेकर कोर्ट की जो टिप्पणी रही है उससे तो पुलिस के रवैये पर शक की पूरी गुंजाइश बनती है.
लेखिका अरुंधति रॉय, वकील प्रशांत भूषण, सोशल एक्टिविस्ट अरुणा रॉय और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी जैसे लोगों ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि देश भर में छापेमारी करके 5 कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सभी वाजिब प्रक्रियाओं का उल्लंघन है. ये लोक तंत्र प्रणाली का मजाक उड़ाना है, इसलिए महाराष्ट्र पुलिस के खिलाफ भी एक्शन होना चाहिये.
एक प्रेस कांफ्रेंस में अरुंधति रॉय ने पुलिस एक्शन के बहाने मोदी सरकार को टारगेट किया, "मोदी सरकार ध्यान भटकाओ और शासन करो का अनुकरण कर रही है. हमें नहीं मालूम कि कहां, कैसे, कब और किस प्रकार का आग का गोला हमारे सामने गिरेगा... वे हमें भटकाना चाहते हैं..." सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण का कहना रहा, "आज कल जो कुछ हो रहा है, वो आपातकाल की तुलना में कहीं ज्यादा खतरनाक है."
अर्बन नक्सल कार्यकर्ताओं के बीच कथित पत्राचार को पुलिस द्वारा आधार बनाये जाने पर जिग्नेश मेवाणी का कहना रहा, "प्रधानमंत्री की हत्या की तथाकथित माओवादी साजिश सहानुभूति बटोरने की एक कोशिश मात्र है."
दरअसल, विरोध के स्वर ऐसे ही होते हैं. सवाल है कि ये मांग कितनी वाजिब है? क्या वाकई पुलिस का एक्शन गैर-वाजिब है? अगर वास्तव में ऐसा है फिर तो पुलिस के खिलाफ भी एक्शन की जरूरत है.
कहीं फर्जी एनकाउंटर तो नहीं?
इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार पुणे पुलिस 5 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद 10 और लोगों को ऐसे ही उठाने की तैयारी में थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद पुणे पुलिस ने फिलहाल छापेमारी का एक्शन प्लान होल्ड कर लिया है.
अगर कोर्ट का दखल नहीं होता तो ये संख्या महज 5 या 15 नहीं बल्कि ज्यादा भी हो सकती थी. इसीलिए सवाल उठ रहा है कि हिंसा के मामले में प्रमुख आरोपी संभाजी भिडे के खिलाफ कोई एक्शन अब तक क्यों नहीं हुई?
ये ठीक है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस मार्च, 2018 में विधानसभा में बयान दे चुके हैं कि संभाजी भिड़े के खिलाफ कोई सबूत नहीं है. लेकिन उनके खिलाफ केस दर्ज तो हुआ है.
संभाजी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने वाली अनीता सावले का कहना है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने मजिस्ट्रेट के सामने उनके बयान की गलत तरीके से व्याख्या की है. पूछे जाने पर अनीता सावले बीबीसी मराठी को बताती हैं, "हो सकता है कि मुख्यमंत्री ने एफ़आईआर ठीक से पढ़ी ही न हो. उन्होंने पूरे मामले को गलत तरीके से समझ लिया हो. जहां तक संभाजी भिड़े की बात है तो उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए था." इसी साल जून में अनीता का कहना है कि उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में संभाजी भिड़े की गिरफ्तारी के लिए याचिका भी डाली थी, लेकिन उस पर सुनवाई अब तक शुरू नहीं हो पायी है.
इस बीच, महाराष्ट्र के एडीजी (कानून और व्यवस्था) परमवीर सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस कर पुलिस एक्शन पूरी तरह सही ठहराया है. परमवीर सिंह का कहना है - "माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई सबूतों के आधार पर की गई है... छापे के दौरान कई महत्वपूर्ण सबूत मिले हैं... साजिश कानून-व्यवस्था को बिगाड़कर सरकार गिराने की थी... एक आतंकवादी संगठन भी इस साजिश में माओवादियों के साथ शामिल था."
दूसरी तरफ, महाराष्ट्र के पूर्व डीजीपी शिवनंदन का मानना है कि अगर वो डीजीपी की कुर्सी पर बैठे होते तो गिरफ्तारी जैसा कदम उठाने से पहले पहले सौ बार सोचते, लेकिन अगर वास्तव में सबूत हैं तो निश्चित तौर पर आगे बढ़ना चाहिये.
द प्रिंट वेबसाइट के सवाल पर डी. शिवनंदन कहते हैं - "महाराष्ट्र पुलिस या कोई भी हो वो संविधान के दायरे में रह कर काम करती है. जब वो किसी हिंदू नेता या बड़े बुद्धिजीवियों को अरेस्ट करती है तो उसके पास ठोस सबूत होना जरूरी है. बगैर जरूरी होमवर्क के कोई भी पुलिस वरवर राव या सुधा भारद्वाज या अरुण फरेरा जैसे नेताओं को परेशान कर अपना नाक नहीं कटाएगी. मुझे तो जांचकर्ताओं द्वारा जुटाये गये सबूतों का बेसब्री से इंतजार है." मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है और 6 सितंबर को सुनवाई की तारीख है. निश्चित तौर पर देश की सबसे बड़ी अदालत से दूध का दूध और पानी का पानी होने की उम्मीद होनी चाहिये. यदि अपराध साबित करने लायक सबूत पेश नहीं किए जाते हैं तो जिस तरह फर्जी एनकाउंटर के मामलों में पुलिसवालों पर मुकदमे चलाये जाते हैं, इस केस में भी तकरीबन वैसा ही आधार बनता है.
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