प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक विदेश दौरे में न्यू इंडिया के बारे में समझा रहे थे. अप्रवासी भारतीय समुदाय भी सत्यनारायण स्वामी की कथा की तरह ही सुने जा रहा था - दुनिया भर में भारत को Snake Charmers यानी सपेरों का देश माना जाता रहा है - लेकिन न्यू इंडिया में वो जगह कंप्यूटर के माउस ने ले ली है - और भारत अब 'माउस-चार्मर' मुल्क बन चुका है.
मोदी की बात पर तालियां खूब बजीं, वैसे ही जैसे बाकी सभाओं में बजती रहती हैं - लेकिन वास्तव में क्या ऐसा ही हुआ है? क्या वास्तव में ऐसी तब्दीली आ चुकी है?
अगर 'स्नेक' और 'माउस' को सिंबल के रूप में देखें तो - 'स्नेक' जहां भावनाओं का प्रतीक है, वहीं माउस तर्क का. एक दिल के हिसाब से सोचता है, दूसरा दिमाग से. दिल और दिमाग के द्वंद्व से गुजरे हुए फैसले अक्सर द्विविधा के ही शिकार पाये जाते हैं और परिणति भी लगभग एक जैसी ही हुआ करती है.
जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 के संदर्भ में अगर इसे समझने की कोशिश करें तो साफ तौर पर दो पक्ष हैं. दोनों पक्ष स्वाभाविक तौर पर अलग अलग रास्ते पर नहीं बल्कि आमने सामने हैं. एक सपोर्ट में, दूसरा विरोध में.
धारा 370 पर बंटे दोनों ही पक्षों का अपना अपना पक्ष है, मगर, एक बात कॉमन लगती है - दोनों ही तरफ तर्क के ऊपर भावनाएं ज्यादा हावी लगती हैं.
भावना प्रधान बातों को तर्क से कभी मतलब नहीं होता
किसी भी मसले पर यथास्थिति बनाये रखने की भी एक सीमा होती है और जम्मू-कश्मीर के मामले में सीमा भी कब की पार हो चुकी थी. जब मौजूदा मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर और धारा 370 पर कड़ा फैसला लेने का फैसला किया - और उसे अंजाम तक पहुंचा दिया तो समर्थक और विरोधी आमने-सामने आ खड़े हुए.
एक सहज सा सवाल है - अगर केंद्र में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार नहीं, बल्कि कोई और होती तो!
अव्वल तो कांग्रेस की केंद्र सरकारें हमेशा ही जम्मू-कश्मीर पर कोई फैसला लेने में कतराती रहीं, लेकिन जब मौजूदा सरकार ने कोई निर्णय लिया तो कांग्रेस विरोध में खड़ी हुई है. नतीजा...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक विदेश दौरे में न्यू इंडिया के बारे में समझा रहे थे. अप्रवासी भारतीय समुदाय भी सत्यनारायण स्वामी की कथा की तरह ही सुने जा रहा था - दुनिया भर में भारत को Snake Charmers यानी सपेरों का देश माना जाता रहा है - लेकिन न्यू इंडिया में वो जगह कंप्यूटर के माउस ने ले ली है - और भारत अब 'माउस-चार्मर' मुल्क बन चुका है.
मोदी की बात पर तालियां खूब बजीं, वैसे ही जैसे बाकी सभाओं में बजती रहती हैं - लेकिन वास्तव में क्या ऐसा ही हुआ है? क्या वास्तव में ऐसी तब्दीली आ चुकी है?
अगर 'स्नेक' और 'माउस' को सिंबल के रूप में देखें तो - 'स्नेक' जहां भावनाओं का प्रतीक है, वहीं माउस तर्क का. एक दिल के हिसाब से सोचता है, दूसरा दिमाग से. दिल और दिमाग के द्वंद्व से गुजरे हुए फैसले अक्सर द्विविधा के ही शिकार पाये जाते हैं और परिणति भी लगभग एक जैसी ही हुआ करती है.
जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 के संदर्भ में अगर इसे समझने की कोशिश करें तो साफ तौर पर दो पक्ष हैं. दोनों पक्ष स्वाभाविक तौर पर अलग अलग रास्ते पर नहीं बल्कि आमने सामने हैं. एक सपोर्ट में, दूसरा विरोध में.
धारा 370 पर बंटे दोनों ही पक्षों का अपना अपना पक्ष है, मगर, एक बात कॉमन लगती है - दोनों ही तरफ तर्क के ऊपर भावनाएं ज्यादा हावी लगती हैं.
भावना प्रधान बातों को तर्क से कभी मतलब नहीं होता
किसी भी मसले पर यथास्थिति बनाये रखने की भी एक सीमा होती है और जम्मू-कश्मीर के मामले में सीमा भी कब की पार हो चुकी थी. जब मौजूदा मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर और धारा 370 पर कड़ा फैसला लेने का फैसला किया - और उसे अंजाम तक पहुंचा दिया तो समर्थक और विरोधी आमने-सामने आ खड़े हुए.
एक सहज सा सवाल है - अगर केंद्र में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार नहीं, बल्कि कोई और होती तो!
अव्वल तो कांग्रेस की केंद्र सरकारें हमेशा ही जम्मू-कश्मीर पर कोई फैसला लेने में कतराती रहीं, लेकिन जब मौजूदा सरकार ने कोई निर्णय लिया तो कांग्रेस विरोध में खड़ी हुई है. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस के भीतर ही इस मसले पर फूट पड़ गयी है, लिहाज स्टैंड संशोधन प्रस्ताव पास करना पड़ा है.
आखिर कांग्रेस को स्टैंड में संशोधन क्यों करना पड़ रहा है? क्या कांग्रेस के कुछ नेताओं के कड़े तेवर को देखते हुए? लेकिन क्या कांग्रेस के ऐसे नेता मोदी सरकार का सीधा सीधा सपोर्ट कर रहे हैं?
ऐसा नहीं लगता. ज्यादातर कांग्रेस नेता धारा 370 पर वर्तमान सरकार का सपोर्ट जनभावनाओं को देखते हुए कर रहे हैं.
मतलब ये नेता भी जनभावना के साथ साथ खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. मतलब ये भी कि ये अपने तर्क को ताक पर रख कर जनभावनाओं के साथ जाना चाहते हैं. ये जनभावना ही फिलहाल बीजेपी की ताकत है. बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद उमड़ी जनभावना ने 2019 के आम चुनाव में 'चौकीदार चोर है' वाली लाइन को चारों खाने चित्त करके ही दम लिया.
जब BSP, YSRCP और BJD के बाद JD भी मोदी सरकार के फैसले के साथ खड़ा हो गया है - तो क्या 370 के विरोधी देश में सिर्फ यूपीए की सरकार चाहते हैं. कोई ऐसी सरकार जिसमें कांग्रेस के साथ साथ DMK, TMC, PDP और NC जैसे राजनीतिक दल शामिल होने चाहिये? क्या धारा 370 खत्म किये जाने के विरोधी सिर्फ मोदी सरकार के खिलाफ हैं?
कोई खुद को अराजनीतिक बताना चाहे या मौजूदा व्यवस्था विरोधी के रूप में खुद को पेश करे तो क्या इसे भी एक तरह की राजनीति नहीं समझा जाना चाहिये?
ये राजनीति भी तो वही है कि पहले एजेंडा तय कर लो और फिर उसे सही ठहराने के लिए तमाम ऊलजुलूल तर्क ढूंढ़ते रहो. ऐसा भी नहीं कि ये सिर्फ विरोधी पक्ष ही कर रहा है, सरकार के सपोर्ट में खड़ा समर्थक वर्ग भी ऐसा ही कर रहा है.
विरोधी पक्ष को न धारा 370 को खत्म किये जाने के फायदे समझ में आ रहे हैं, न समर्थक इसकी चुनौतियां और खतरे समझने को राजी है. विरोधियों को भी ये बात समझ में आ रही है कि धारा 370 के खत्म होने के फायदे क्या हैं? और ये बात भी कि उनका स्टैंड ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है. आखिर जेडीयू नेता आरसीपी सिंह क्यों कहने लगे कि जो हुआ वो हुआ और वो 'आज की सरकार' का फैसला है. ये फैसला स्वीकार कर लेने में कोई बुरायी नहीं है. कांग्रेस को भी ये बात एक तरीके से समझ आयी ही है, इसीलिए वो धारा 370 खत्म करने की जगह उसे समाप्त करने की प्रक्रिया का विरोध शुरू कर दिया है.
कांग्रेस के विरोध पर बीजेपी के बुजुर्ग नेता मुरली मनोहर जोशी ने इमरजेंसी की याद दिलाते हुए बड़ा ही सटीक सवाल पूछा है - 'इमरजेंसी लागू करते वक्त किस किस का कंसेंट लिया था?'
धारा 370 खत्म किया जाना इमरजेंसी जैसा तो नहीं ही है
जनभावना के दबाव में टूटे आधे कांग्रेसियों के दबाव ने पार्टी नेतृत्व को भी झुका दिया है. कांग्रेस का संशोधित स्टैंड ये है कि धारा 370 को खत्म करने की प्रक्रिया ठीक नहीं रही.
कांग्रेस के ज्यादातर नेता, खास तौर पर कश्मीर से ही आने वाले गुलाम नबी आजाद घाटी के लोगों के कंसेंट की बात कर रहे हैं. CWC की बैठक में भी सबसे ज्यादा समय वही बोलते रहे और बीच बीच में पी. चिदंबरम उनकी बातों के समर्थन में मिसाल पेश करते रहे.
अब सवाल ये है कि क्या महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला या बाकी जितने भी क्षेत्रीय कश्मीरी पार्टियां हैं - धारा 370 जैसे मुद्दे पर सहमति देने के राजी होते?
देखा जाये तो कांग्रेस का अभी कुछ भी नुकसान नहीं हुआ है. आगे का मालूम तो नहीं लेकिन जो संकेत लग रहे हैं वो अच्छे तो बिलकुल नहीं हैं. जिस 35 A के नाम पर महबूबा मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार की राजनीति अब तक चलती रही है - बड़ा नुकसान सिर्फे उन्हें ही हुआ है.
फिर कांग्रेस किस बात का विरोध कर रही है? अगर उसे धारा 370 खत्म करने को लेकर कोई विरोध नहीं है तो प्रक्रिया से होने का क्या मतलब है - ये तो संशोधित स्टैंड में भी पुराना घालमेल ही पूरा का पूरा है. न कंसेंट मिलता न धारा खत्म हो पाती - ये कोई स्टैंड हुआ या गुमराह करने की एक और कोशिश भर हुई - आखिर अवाम को कब तक गुमराह किया जा सकता है?
मौजूदा बीजेपी नेतृत्व से खफा रहने वाले बुजुर्ग नेताओं की टोली भी इस मसले पर सरकार के फैसले पर खामोश नहीं बैठ रही है - बल्कि खुल कर बोल रहे हैं. मुरली मनोहर जोशी का सीधा सा सवाल है - 'क्या इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने देश में इमरजेंसी लोगों से पूछ कर लगायी थी?'
जिन परिस्थितियों में देश में इमरजेंसी लगायी गयी, क्या उसमें और कश्मीर के हालिया हालात में फर्क नहीं है कोई - फर्क तो जमीन आसमान का है. इमरजेंसी नहीं लागू हुई होती क्या फर्क पड़ता? देश को तो कोई फर्क पड़ता नहीं, सिवा लोकतंत्र बचाओ के नाम पर कांग्रेस बचाओ मुहिम के.
धारा 370 पर फैसला तो भरी पूरी संसद का है. देश के चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के वोटों से हुआ है. सरेआम लाइव टीवी पर हुआ है - इमरजेंसी की तरह आधी रात को चुपके चुपके तो बिलकुल नहीं.
जमीनी हालात में भी कोई बदलाव है क्या?
बाद की बात और है. अभी तो सब कुछ पहले जैसा ही लग रहा है. अगर 8 जुलाई, 2016 की तारीख कश्मीर के लिए कोई मायने रखती है, फिर तो बिलकुल नहीं. दरअसल, उसी दिन सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में हिजबुल कमांडर बुरहान वानी मारा गया था.
1. क्या जमीनी स्थिति में कोई तब्दीली हुई है : महबूबा मुफ्ती 4 अप्रैल, 2016 से 20 जून, 2018 तक जम्मू-कश्मीर की बीजेपी-पीडीपी सरकार की मुख्यमंत्री रहीं. इसी दौरान बुरहान वानी मुठभेड़ में मारा गया. उसके बाद से सुरक्षा बलों ने ऑपरेशन 'ऑल आउट' चलाया और उसके सारे साथी एक एक कर मारे गये. सुरक्षा बलों ने तो हाल ही में ये भी बताया था कि अब आतंकवाद की राह चुनने वाले घाटी के नौजवानों की भी शेल्फ लाइफ महज एक साल ही है.
2016 में भी घाटी के हालात ऐसे हो गये कि ईद की नमाज भी लोगों को घरों में ही पढ़ने पड़े थे - इस बार तो सरकार कड़ी सुरक्षा में कुछ ज्यादा सुविधा देने के बारे में भी सोच रही है. मीडिया रिपोर्ट में मिली खबरें तो यही बता रही हैं.
जिस तरह के कल्पनातीत हालात की बात धारा 370 खत्म किये जाने के खिलाफ लामबंद लोग कर रहे हैं, नौकरशाही छोड़कर राजनीति में पांव जमाने की कोशिश में जुटे शाह फैसल भी उसका खंडन कर रहे हैं. शाह फैसल ही कह रहे हैं कि फिलहाल खाने और जरूरी चीजों की कोई कमी नहीं है.
हां, उनकी परेशानी भी वही है जो महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला या फारूक अब्दुल्ला जैसे नेताओं की है. शाह फैसल ने एक फेसबुक पोस्ट में कहा है कि 80 लाख की आबादी ऐसी 'कैद' में है जिसका सामना पहले कभी नहीं किया. पोस्ट में शाह फैसल कहते हैं, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन से संपर्क करना या उन्हें संदेश भेजना संभव नहीं है.
2. क्या शिमला समझौते का उल्लंघन हुआ है : शिमला समझौता में भी तो यही बात है न कि जम्मू-कश्मीर से जुड़े किसी भी विवाद पर बातचीत सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच होगी. तो क्या मोदी सरकार ने समझौते के दायरे से बाहर जाकर कोई काम कर दिया है?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप तो दो बार मध्यस्थता कि बात कर चुके ही थे, लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिकी समकक्ष माइक पॉम्पियो को साफ साफ कह दिया कि 'न वो परेशान हों न ही किसी मुगालते में रहें' - अगर कभी बातचीत की कोई सूरत बनती भी है तो वो 'सिर्फ और सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच' ही संभव होगी.
वैसे भी धारा 370 को खत्म किये जाने से भौगोलिक स्थिति में तो कोई बदलाव आने से रहा. जो भी संवैधानिक बदलाव हुआ है - उसका असर सिर्फ गवर्नेंस और एडमिनिस्ट्रेशन तक ही सीमित रहने वाला है.
अगर पाकिस्तान को ये कबूल नहीं है तो भारत को फर्क भी क्या पड़ता है? न तो भारत उसके निजी मामलों में हस्तक्षेप करता है, न अपने मामलों में बर्दाश्त करेगा. अगर पाकिस्तान को कश्मीर को लेकर कोई मलाल है तो बलोचिस्तान और गिलगित जैसे इलाके उधर भी तो हैं. उनकी फिक्र करनी चाहिये.
3. क्या पाकिस्तान की तरह दुनिया के किसी भी मुल्क ने रिएक्ट किया है : अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान को छोड़ किसी ने जम्मू-कश्मीर पर भारत के खिलाफ कोई कड़ा रिएक्शन नहीं दिया है. मालदीव भले ही छोटा मुल्क हो, समर्थन ही किया है. ऊपर से अमेरिकी सांसदों ने तो पाकिस्तान और इमरान खान को भी कड़ी चेतावनी दे डाली है. अमेरिका को मालूम है उसे बिजनेस भी करना है, लेकिन ये भी मालूम है कि कहां फायदे का बिजनेस है. वैसे भी उसके पास इमरान खान और उनके रहनुमाओं के सत्कर्मों का पुराना और नया दोनों ही रिकॉर्ड अमेरिका के पास तो होगा ही.
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