अरुण जेटली का जाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के लिए अपूरणीय क्षति तो है ही, दिल्ली के पत्रकारों की भी एक बड़ी तादाद बहुत मिस कर रही होगी.
नेताओं को श्रद्धांजलि देने वालों की लंबी कतार में भी राजनीतिक दलों के नेता ही आगे रहते हैं. जेटली के निधन के बाद टीवी पर हो रही चर्चाओं पर ध्यान देते हैं तो मालूम होता है कि दिल्ली के ज्यादातर पत्रकारों के पास जेटली से जुड़ी स्मृतियों का भंडार है. हर किसी के पास जेटली से संपर्क के निजी अनुभव और स्मृतियां हैं.
जेटली के 'दरबार' को मिस करेगा मीडिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भले ही मीडिया से दूरी बनाये रखने के आरोप लगते रहे हों, लेकिन जेटली के मामले में स्थिति बिलकुल इसके उलट रही. बल्कि कह सकते हैं कि बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों के लिए जेटली से बड़ा रिसोर्स सेंटर कोई दूसरा नहीं मिला.
मीडिया से संवाद के लिए जेटली के पास किस्सों का भंडार हुआ करता रहा - और उसका दायरा सिर्फ राजनीति नहीं बल्कि क्रिकेट और कारोबार जगत से लेकर कानून और फैशन तक फैला हुआ करता रहा.
जेटली की ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग को तो दरबार कहा जाता रहा. तबीयत खराब होने की स्थिति में या फिर किसी महत्वपूर्ण व्यस्तता को छोड़ दिया जाये तो तीन बजे ये दरबार हमेशा लगता रहा. खास बात ये रही कि इस दरबार की कोई जगह भी नियत नहीं हुआ करती वो बीजेपी दफ्तर भी हो सकता था या फिर संसद का सेंट्रल हाल भी. जेटली जहां भी तीन बजे बैठे होते दरबार वहीं लग जाता.
जेटली दरबार की खासियत ये रही कि यहां पॉलिटिकल गॉसिप तो होते थे, सिर्फ बीजेपी ही नहीं दूसरी पार्टियों की भी खबरें मिल जाया करतीं रहीं. बीजेपी में लगता नहीं कि अब कोई जेटली की...
अरुण जेटली का जाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के लिए अपूरणीय क्षति तो है ही, दिल्ली के पत्रकारों की भी एक बड़ी तादाद बहुत मिस कर रही होगी.
नेताओं को श्रद्धांजलि देने वालों की लंबी कतार में भी राजनीतिक दलों के नेता ही आगे रहते हैं. जेटली के निधन के बाद टीवी पर हो रही चर्चाओं पर ध्यान देते हैं तो मालूम होता है कि दिल्ली के ज्यादातर पत्रकारों के पास जेटली से जुड़ी स्मृतियों का भंडार है. हर किसी के पास जेटली से संपर्क के निजी अनुभव और स्मृतियां हैं.
जेटली के 'दरबार' को मिस करेगा मीडिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भले ही मीडिया से दूरी बनाये रखने के आरोप लगते रहे हों, लेकिन जेटली के मामले में स्थिति बिलकुल इसके उलट रही. बल्कि कह सकते हैं कि बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों के लिए जेटली से बड़ा रिसोर्स सेंटर कोई दूसरा नहीं मिला.
मीडिया से संवाद के लिए जेटली के पास किस्सों का भंडार हुआ करता रहा - और उसका दायरा सिर्फ राजनीति नहीं बल्कि क्रिकेट और कारोबार जगत से लेकर कानून और फैशन तक फैला हुआ करता रहा.
जेटली की ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग को तो दरबार कहा जाता रहा. तबीयत खराब होने की स्थिति में या फिर किसी महत्वपूर्ण व्यस्तता को छोड़ दिया जाये तो तीन बजे ये दरबार हमेशा लगता रहा. खास बात ये रही कि इस दरबार की कोई जगह भी नियत नहीं हुआ करती वो बीजेपी दफ्तर भी हो सकता था या फिर संसद का सेंट्रल हाल भी. जेटली जहां भी तीन बजे बैठे होते दरबार वहीं लग जाता.
जेटली दरबार की खासियत ये रही कि यहां पॉलिटिकल गॉसिप तो होते थे, सिर्फ बीजेपी ही नहीं दूसरी पार्टियों की भी खबरें मिल जाया करतीं रहीं. बीजेपी में लगता नहीं कि अब कोई जेटली की ये भूमिका निभाने में दिलचस्पी लेगा या फिर उसके लिए संभव भी होगा.
मोदी को PM कैंडिडेट क्यों चुना?
एक टीवी शो में अरुण जेटली से एंकर का सवाल होता है - 'जो लोग भारतीय जनता पार्टी को जानते हैं, उनका कहना है कि आप चाहते तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते थे, लेकिन अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली - आपने कहा कि नरेंद्र मोदी को बनाना चाहिये.'
दरअसल, 2009 में जब बीजेपी पांच साल बाद भी चुनाव नहीं जीत पायी तो पार्टी के तब के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने लोक सभा में सुषमा स्वराज और राज्य सभा में नेतृत्व की जिम्मेदारी अरुण जेटली को सौंप दी. तब से लेकर पांच साल तक, जब तक यूपीए 2 का मनमोहन सरकार रही सुषमा स्वराज और अरुण जेटली लगातार सवालों के मामले में इतने हावी रहे कि सरकार का जवाब देना मुश्किल हो जाता रहा. हालांकि, ये जिम्मेदारियां देने का कतई मतलब नहीं रहा कि आडवाणी ने प्रधानमंत्री पद पर भी दावेदारी छोड़ दी थी - ये तो जिन्ना पर उनका बयान और मोदी का उभार ऐसा हुआ कि मार्गदर्शक मंडल पहुंचा दिया गया.
प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर 2014 के लिए मोदी के चुनाव पर जेटली का जवाब रहा, 'दो साल से स्पष्ट समझ में आ रहा था कि बहुत सारे लोग हमारी पार्टी की पहली पंक्ति में हैं - लेकिन जो हमारे कार्यकर्ताओं की और समर्थक वर्ग की और जनता में जो एक उभार बन रहा था वो सबसे ज्यादा नरेंद्र मोदी के पक्ष में था.'
मोदी के पक्ष में इस अंडर करेंट को जेटली ने वक्त से पहले ही समझ लिया था. यही वजह रही कि मोदी के अहमदाबाद से दिल्ली आने वाले रथ के जेटली सारथी तो रहे ही - दिल्ली में उन्हें स्थापित करने से लेकर उनके लिए आखिरी सांस तक संकट मोचक बने रहे. जब मोदी सरकार 2.0 के लिए जेटली ने मंत्रिमंडल में आने से मना कर दिया तब भी विपक्ष के खिलाफ उनके ब्लॉग की धार कभी कम नहीं पड़ी.
सभी के कानूनी सलाहकार रहे जेटली
कहते हैं जेटली CA बनना चाहते थे, लेकिन जब कॅरियर चुनने की बारी आयी तो पिता का ही पेशा अपना लिया. 80 के दशक में जेटली ने सुप्रीम कोर्ट और देश के कई हाई कोर्ट में कई महत्वपूर्ण मुकदमे लड़े, हालांकि, 2009 में उन्होंने वकालत का पेशा पूरी तरह छोड़ ही दिया.
जेटली ने पेशा जरूर छोड़ दिया लेकिन दोस्तों के कानूनी सलाहकार ताउम्र बने रहे. 2002 दंगों के मामले में जेटली ने मोदी तो सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस में शाह का केस लड़ रहे वकीलों को कदम कदम पर गाइड किया.
ये जेटली की राजनीति और कानून की बारीक समझ ही रही जो मोदी-शाह से पहले वो लालकृष्ण आडवाणी के सबसे भरोसेमंद हुआ करते थे. सिर्फ बीजेपी ही नहीं RSS और VHP की कानूनी अड़चनों में जब भी कानूनी रणनीति तय करनी होती - जेटली की राय ही फाइनल हुआ करती रही.
बीजेपी से इतर भी ममता बनर्जी, प्रकाश सिंह बादल हों शरद पवार या नवीन पटनायक हों - जेटली की जब भी जरूरत पड़ती वो कानूनी राय देने के लिए तैयार बैठे रहते.
अरुण जेटली ने पूरे राजनीतिक कॅरियर में दो ही चुनाव लड़े एक दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ का और दूसरा अमृतसर सीट से 2014 का लोकसभा का चुनाव. DS का चुनाव जीत कर जेटली अध्यक्ष तो बन गये लेकिन मोदी लहर में भी लोक सभा का चुनाव हार गये. एक टीवी शो में उनके संसदीय चुनाव लड़ने को लेकर जेटली से सवाल पूछा गया था. जेटली का कहना रहा कि जनता के बीच जाने और जनता से सीधे जुड़ने को लेकर वो एक कमी महसूस कर रहे थे, मगर, अफसोस ये इच्छा नहीं पूरी हो पायी - वैसे मुकम्मल जहां किसी को भी मिलता कहां है, लेकिन जेटली ने ऑलराउंडर बन कर जो जिंदगी जी है उसे बरसों बरस याद जरूर किया जाएगा.
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