अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की सबसे बड़ी शिकायत यही रहती है कि दिल्ली पुलिस (Delhi Police) उनके कंट्रोल में नहीं है. चुनावों के दौरान भी अरविंद केजरीवाल मौका निकाल कर इस बात का जिक्र कर ही देते रहे. मिसाल के तौर पर सरकारी स्कूलों की तरफ ध्यान खींचते और कहते कि स्कूल भी वही हैं, टीचर भी वहीं हैं - लेकिन इमानदार राजनीति ने काम कर के दिखा दिया है.
जीत के बाद पहले चुनावी भाषण में भी अरविंद केजरीवाल का यही कहना रहा कि अब वो सब नहीं चलेगा, अब सिर्फ काम की राजनीति होगी - क्या वो यही बताना चाह रहे थे जो अभी हो रहा है? निश्चित तौर पर नहीं - लेकिन बाकी सब किस काम के? जब जिंदगी ही दांव पर लग जाये. जब जान पर बन आये - तो काम की राजनीति का कोई क्या करेगा?
क्या यही दिन देखने के लिए दिल्ली के लोगों ने अरविंद केजरीवाल को दोबारा भारी बहुमत के साथ विधानसभा में भेजा है? सीधा सा एक सवाल है जो सभी के मन में न सही, लेकिन बहुतों के मन में जरूर है - अगर दिल्लीवालों को वो दंगे (Delhi Violence) से नहीं बचा सकते तो अरविंद केजरीवाल किस बात के मुख्यमंत्री हैं?
केजरीवाल की खामोशी!
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी सरकार के तमाम कामों का जिक्र करते रहे, उनमें से एक है - दिल्ली के फरिश्ते स्कीम. ये स्कीम उन लोगों के लिए शुरू की गयी जो सड़क हादसों में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाने के लिए शुरू की गयी - और उसका मकसद रहा पैसे के अभाव में किसी की जान नहीं जानी चाहिये. दिल्ली के फरिश्ते स्कीम को लेकर अरविंद केजरीवाल ने खुद ट्विटर पर खुद लिखा था, 'दिल्ली के हर नागरिक की जान हमारे लिए कीमती है, किसी के जान का कोई मोल नहीं होता!'
जो नेता दिल्ली के हर नागरिक के जान की कीमत समझता हो. जो नेता ये महसूस करे कि किसी की जान का कोई मोल नहीं होता - वो अचानक कैसे बदल सकता...
अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की सबसे बड़ी शिकायत यही रहती है कि दिल्ली पुलिस (Delhi Police) उनके कंट्रोल में नहीं है. चुनावों के दौरान भी अरविंद केजरीवाल मौका निकाल कर इस बात का जिक्र कर ही देते रहे. मिसाल के तौर पर सरकारी स्कूलों की तरफ ध्यान खींचते और कहते कि स्कूल भी वही हैं, टीचर भी वहीं हैं - लेकिन इमानदार राजनीति ने काम कर के दिखा दिया है.
जीत के बाद पहले चुनावी भाषण में भी अरविंद केजरीवाल का यही कहना रहा कि अब वो सब नहीं चलेगा, अब सिर्फ काम की राजनीति होगी - क्या वो यही बताना चाह रहे थे जो अभी हो रहा है? निश्चित तौर पर नहीं - लेकिन बाकी सब किस काम के? जब जिंदगी ही दांव पर लग जाये. जब जान पर बन आये - तो काम की राजनीति का कोई क्या करेगा?
क्या यही दिन देखने के लिए दिल्ली के लोगों ने अरविंद केजरीवाल को दोबारा भारी बहुमत के साथ विधानसभा में भेजा है? सीधा सा एक सवाल है जो सभी के मन में न सही, लेकिन बहुतों के मन में जरूर है - अगर दिल्लीवालों को वो दंगे (Delhi Violence) से नहीं बचा सकते तो अरविंद केजरीवाल किस बात के मुख्यमंत्री हैं?
केजरीवाल की खामोशी!
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी सरकार के तमाम कामों का जिक्र करते रहे, उनमें से एक है - दिल्ली के फरिश्ते स्कीम. ये स्कीम उन लोगों के लिए शुरू की गयी जो सड़क हादसों में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाने के लिए शुरू की गयी - और उसका मकसद रहा पैसे के अभाव में किसी की जान नहीं जानी चाहिये. दिल्ली के फरिश्ते स्कीम को लेकर अरविंद केजरीवाल ने खुद ट्विटर पर खुद लिखा था, 'दिल्ली के हर नागरिक की जान हमारे लिए कीमती है, किसी के जान का कोई मोल नहीं होता!'
जो नेता दिल्ली के हर नागरिक के जान की कीमत समझता हो. जो नेता ये महसूस करे कि किसी की जान का कोई मोल नहीं होता - वो अचानक कैसे बदल सकता है? आखिर ये सब कारण ही तो थे जो लोगों को अरविंद केजरीवाल को दोबारा सत्ता की चाबी सौंपने के लिए मजबूर कर दिये.
अरविंद केजरीवाल ने समझाया कि अब काम की राजनीति ही चलेगी, बाकी सब नहीं चलेगा - तो बाकी सब से उनका क्या मतलब रहा? बाकी सब से मतलब तो वो अपने राजनीतिक विरोधियों की 'बांटने वाली राजनीति' के बारे में ही समझा रहे थे. अरविंद केजरीवाल के बाकी साथी भी दिल्ली की जीत को इसी तरीके से समझाते रहे हैं.
लेकिन अरविंद केजरीवाल के दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के 10 दिन के भीतर ही ये सब क्या होने लगा?
दिल्ली जगह जगह जलने लगी. खबरों में लाशों की गिनती बढ़ने लगी. अस्पतालों में घायलों की भीड़ बढ़ने लगी.
अदालत में भड़काऊ बयानों के वीडियो देखे जाने लगे. राजनीति धीरे धीरे तेज होने लगी और इस्तीफा मांगा जाने लगा.
और अरविंद केजरीवाल तो जैसे खामोश ही हो गये - समझने लगे, केंद्र सरकार स्थिति संभाल लेगी.
बोलने की जिम्मेदारी भी साथी और सांसद संजय सिंह को थमा डाली - केंद्र सरकार के खिलाफ जो भी बोलेंगे संजय सिंह ही बोलेंगे, अरविंद केजरीवाल ने तो खामोशी अख्तियार कर लिया है. पहले लगता था ये चुनाव भर के लिए है, लेकिन ये तो हमेशा के लिए अख्तियार कर लिया गया लगता है.
केंद्र सरकार से रिश्ते सुधारने को लेकर अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि दोनों सरकारें मिल कर दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने की कोशिशे करेंगी. ऐसी ही दिल्ली वर्ल्ड क्लास सिटी बनेगी - ये तरीका इतना जल्दी लागू हो जाएगा, ये तो नहीं समझ में आया था.
जिस दिल्ली पुलिस के अपने अंडर में होने की कमी अरविंद केजरीवाल शिद्दत से महसूस करते रहे हैं, उसके बारे में सुप्रीम कोर्ट कोर्ट को लगता है कि वो पेशेवर तरीके से काम नहीं करती. उसी दिल्ली पुलिस को दिल्ली हाई कोर्ट भी फटकार लगाता है और पूछता है कि भड़काऊ बयान देने वालों के खिलाफ FIR दर्ज क्यों नहीं किये गये?
सबसे बड़ी बात ये वही दिल्ली पुलिस है जिसके अफसरों को कामचोरी के लिए NSA अजीत डोभाल भी झाड़ लगाते हैं और पूछे जाने पर उन्हें सामान्य सवालों के भी जबाव नहीं सूझते. बगलें झांकने लगते हैं.
अगर अरविंद केजरीवाल बगैर सिस्टम के चक्कर में पड़े 'दिल्ली के फरिश्ते' बनाकर लोगों की जान बचा सकते हैं, तो दंगों में खुद ही दिल्ली के फरिश्ते क्यों नहीं बन गये?
इतना तो कर ही सकते थे!
अरविंद केजरीवाल चाहते तो वो सब तो कर ही सकते थे जो अब तक करते आये हैं - और जिन बातों के लिए मशहूर हैं. अपने जिस टैलेंट के जरिये और काम की राजनीति के रास्ते वो दिल्ली में काम कराने की बातें चुनावों में करते रहे, वे सब तो उन्हीं के अनुसार केंद्र सरकार के सारे अड़ंगे लगाने के बाद भी हुए.
1. रेडियो और वीडियो मैसेज से अपील: सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर दिल्ली में डेंगू की समस्या तक अरविंद केजरीवाल के वीडियो मैसेज वायरल रहे हैं. रेडियो से भी उनकी ऐसी ही अपील कई बार सामने आयी है. ये ठीक है कि एक मैसेज आया था, लेकिन तरीका पहले जैसा जोरदार भी तो हो सकता था. जैसे चुनावों के दौरान लोगों के मोबाइल पर फोन आते रहे - दंगों को लेकर शांति की अपील वाले क्यों नहीं आये?
2. बीच सड़क पर धरने पर बैठ जाते: अगर दिल्ली वालों के लिए अरविंद केजरीवाल कैबिनेट साथियों के साथ दिल्ली के उप-राज्यपाल के दफ्तर में धरना दे सकते हैं तो दिल्ली में दंगे रोकने के लिए भी तो ऐसा कर सकते थे. आखिर दिल्ली के प्रशासनिक हेड तो एलजी ही हैं जो केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुसार काम करते हैं. जैसे खिड़की एक्सटेंशन की एक घटना को लेकर अरविंद केजरीवाल जाड़े की रात में दिल्ली के सड़कों पर धरने पर बैठे थे और वहीं से सरकारी काम निबटाते रहे - क्या दिल्ली में दंगे रोकने के लिए केंद्र सरकार पर एक्शन लेने का दबाव नहीं बना सकते थे?
ऐसा भी तो मुमकिन था कि वो दंगा प्रभावित इलाके में जाते और चादर बिछा कर सड़क पर बैठ जाते - मजाल क्या जो कोई पीछे हटने को राजी नहीं होता? एक बार आजमा कर तो देख लेते, उनकी अपील में वही दमखम है या नहीं?
3. कोर्ट का दरवाजा खटखटाते: जैसे दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकारों को लेकर अरविंद केजरीवाल उपराज्यपाल के खिलाफ कोर्ट जाते रहे, वैसे दिल्ली में दंगों को रोकने के लिए क्यों नहीं गये? जैसे संसदीय सचिवों की लड़ाई के लिए या ऐसी ही दूसरी मांगों पर निर्देश के लिए अरविंद केजरीवाल अदालत के दरवाजे खटखटाते रहे हैं वैसे ही पुलिस को हिदायद देने के लिए, पैरा मिलिट्री फोर्स की तैनाती के लिए कोर्ट का रुख क्यों नहीं किया? वो भी तब जब सुप्रीम कोर्ट की भी दिल्ली के हालात पर नजर बनी हुई थी और जैसे ही सुनवाई हुई सख्त टिप्पणियां भी आयीं.
4. राष्ट्रपति के पास गुहार लगाते: क्या अरविंद केजरीवाल को केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के पास गुहार लगाने से जाने पर भी रोक रही थी? अगर अरविंद केजरीवाल को लगा कि हालात दिल्ली पुलिस के कंट्रोल के बाहर है, सेना बुलाने की जरूरत है और केंद्र सरकार उनकी बात पर ध्यान नहीं दे रही, तो क्या राष्ट्रपति से मिलकर अपनी बात नहीं कह सकते थे?
5. साथियों के साथ दंगा प्रभावित इलाकों में घूमते: दिल्ली के लोगों ने अभी अभी चुन कर विधानसभा में आप के 62 विधायक भेजे हैं. इसमें तो कोई शक नहीं कि उनके इलाके में कोई उन्हें जानता नहीं होगा. आखिर वे लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि ही तो हैं - क्या वे लोगों के बीच जाते और घूम घूम कर शांति बनाये रखने की अपील करते तो जरा भी असर नहीं होता?
ये तो नहीं कह सकते कि अरविंद केजरीवाल घर से निकले ही नहीं, जाने को तो वो राजघाट भी गये थे और महात्मा गांधी को फूल चढ़ा कर प्रार्थना भी किये - और आप नेताओं के साथ शिव विहार के मौका-ए-वारदात का दौरा भी किया, लेकिन कब? जब सब लुट चुका था!
जब जान-माल का भारी नुकसान हो गया तब ना? क्या उससे पहले वो दंगा प्रभावित इलाकों में नहीं जा सकते थे? ऐसा भी तो नहीं कि वो डरते हैं. खुद ही तो कहा करते थे कि भगवान उनकी रक्षा के लिए है और सरकारी सुरक्षा की भी कोई जरूरत नहीं है. हालांकि, ये बीते दौर की बातें हैं जब वो नये नये नेता बने थे. नाजुक जगहों पर वो अपने मंत्रियों को भेज सकते थे. राज्य सभा के तीन सांसद भी थे, वे भी तो जा सकते थे - और कुछ निगम पार्षद भी तो ऐसा कर सकते थे.
जो सबसे मुश्किल और तनावभरी जगह होती वहां खुद पहुंच कर लोगों से वैसे ही अपील करते जैसे चुनावों में वोट मांगते रहे - क्या कोई भी उनकी बात नहीं सुनता? हो सकता है कहीं कहीं लोगों का गुस्सा झेलना पड़ता जैसे दिल्ली पुलिस के हेड कांसटेबल रतनलाल के घर जाने को लेकर हुआ - लेकिन ये वही अरविंद केजरीवाल ही तो हैं जिन पर लोगों ने काली स्याही फेंकी, चप्पल फेंकी - और एक ऑटोवाले ने तो थप्पड़ भी जड़ डाली थी. ये वही अरविंद केजरीवाल ही तो हैं जो थप्पड़ मारने वाले ऑटोवाले के घर जाकर मिले थे?
ये सब तो ऐसे काम हैं जिनके लिए अरविंद केजरीवाल को किसी की मंजूरी की जरूरत नहीं थी. न दिल्ली के उप राज्यपाल की, न केंद्र सरकार की - और न ही दिल्ली विधानसभा में प्रस्ताव पारित करने की.
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